सुन के अवध वासी अपने प्रभु के आगमन की
नगर के द्वार सभी दीप बाती से सजा रहे
आँखों में चमक लेकर गीतों में खनक लेकर
मिल जुल पुर वासी सभी बधाई गीत गा रहे।
जिसे देखो व्यस्त है औ सारा नगर मस्त है
जन जन के होठों पे अब बस एक ही नाम है
बरसों से सूनी पड़ी थी अवध की नगरी ये
प्रभु के अवन से देखो बनी आज ये धाम है।
खग, मृग, जीव जंतु सभी आज मंत्र-मुग्ध देखो
गली-गली, नगर नगर मंगल गीत गा रहे हैं
सभी के होठों पर बस एक ही है गीत सजा
जन जन के प्रिय श्री रघुवर आज घर आ रहे हैं।
नगर के द्वार पर भरत आज व्याकुल घूम रहे
रह रह मन के सब अपने भावों को दबा रहे
मिलन में विलंब हुआ तो क्या मैं बताऊँगा
माता कौशल्या को कैसे मुँह दिखलाऊँगा।
यही दशा प्रभु जी के मन में भी है बनी हुई
विलंब हुई तनिक तो भरत को नहीं पाऊँगा
कितने कष्ट झेले हैं भरत ने वहाँ अकेले
कुछ हुआ उसे तो फिर माफ नहीं कर पाऊँगा।
अवध की सीमा पे पहुँचा जैसे वायुयान वो
सारा नगर खुशी हो के झूम झूम नाच उठा
बरसों से सोये हुए नगर के थे भाग जगे
जैसे अँधियारे को चीर कर सूरज खिल उठा।
देख कर वेश भूषा भरत जड़ जैसे बन गए
सूर्य गगन चाँद तारे धरती पवन रुक गए
वक्त ने ये खेल निठुर कैसा खेला है यहाँ
झुकता था जग जिनसे आज वो खुद ही झुक गए।
कभी देखें दूजे को कभी देखें अपने को
झर झर नैनों से देखो बस अश्रुधार बह रहे।
होठ चुपचाप हैं दोनों ही भाइयों के मगर
अँखियों ही अँखियों से अपने दुख सभी कह रहे।
मेरी त्रुटी थी क्या जो मुझे ऐसे छोड़ दिया
जरा भी ना सोचा कैसे जिंदगी बिताऊँगा
एक कदम मैं कभी अबतक चला न प्रभु के बिना
बिन आपके कैसे कोई कर्तव्य निभाऊँगा।
आपकी खड़ाऊँ यही मेरी प्राण वायु बनी
इसके सहारे मैंने सुख दुख सभी काटे हैं
कैसे बताऊँ प्रभु आपके बिना यहाँ मैंने
दिन रात अपने आँखों हि आँखों में काटे हैं।
क्या हुई थी भूल मुझसे जो मुझे ये सजा दी
अपनी सेवा से मुझे आपने वंचित कर दिया
पिछले जनम की कोई ऐसी भूल थी मेरी
जिसकी सजा में प्रभु आपने मुझको त्याग दिया।
सुन कर भरत के शब्द प्रभु भाव विह्वल हो गए
उठा के चरणों से अपने फिर उर से लगा लिया
कैसे कहूँ तुम बिन कैसे बिता है ये पल पल
लगता था जैसे मैंने खुद को ही सजा दिया।
बिन भाई पूछो नहीं जीवन ये कैसे जिया
शरीर तो साथ रहा पर प्राण तेरे पास था
लखन जो आँखे मेरी शत्रुघ्न भुजाएँ मेरी
पर प्राण मेरे भाई तुम्हारे ही पास था।
मौन बात कर रहे सामने से दोनों भाई
देख देख देवता भी सारे विह्वल हो गए
देख कर प्रेम ऐसा दोनों भाइयों के बीच
अवनी, अंबर, चाँद-तारे पल भर को थम गए।
बरसों का खालीपन आज देखो भरने चला
यही सोच सोच के अवधवासी आज खिल रहे
वियोग से मिला कष्ट अब आज मिटने चला है
चारों ही दिशाएँ जैसे आज यहाँ मिल रहे।
सारे जन हर्षित है औ भाव भाव पुलकित है
बरसों के बाद देखो अवध के भाग खिल रहे
काले बादल जो भी छाए थे इस नगरी पे
धीरे धीरे आज वो बादल काले खुल रहे।
खड़े खड़े दोनों भाई देखते दूसरे को
लगता कि जैसे दोनों दो बदन एक प्राण हैं
चाहे साँस चल रही है दोनों की भले अलग
लेकिन दोनों भाई इक दूसरे की जान हैं।
दोनों भाइयों के मन इक अंतर्द्वंद चल रहा
एक दूसरे से कैसे बात अपनी वो कहें
कहने को कितनी ही बातें सारी उनकी हैं
सोच यही मन में कि बात कैसे और कब कहें।
देख मनोदशा भरत की प्रभु बाँह फैला दिए
पैरों पे झुके भरत तो सीने से लगा लिए
बरसों का दुख सारा इक पल में ही खतम हुआ
सदियों का तप सारा जा के अब सफल हुआ।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
23अप्रैल, 2021