अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।

अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

गा लिए तुमने सभी क्या गीत थे जी भी सुरीले
शब्दों के तूणीर में क्या बस बचे तेरे शोले
है ये कैसी वेदना और कैसा ये उन्माद है
आरती के क्षण ने देखे युग विरह के क्यूँ हठीले।
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

हैं आज फिर बरसे नयन से शब्द की क्यूँ वेदना
और विस्मृत हो गयी क्या वो मुक्तिकामी चेतना
प्रेम के इस मौन क्षण में व्योम हैं कैसे हठीले
खो गए अवसाद में क्या रूप जो तेरे सजीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

ज्वार के क्षण में भी तुमने बस प्रेम आलिंगन दिए
औ नेह का वटवृक्ष बनकर छाँव आवंटन किये
खो गए क्यूँ नेह के सब ओस सारे जो रसीले
और विस्मृत हो गए क्यूँ कंठ के वो स्वर सुरीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

जिस अहसास के स्पर्श से मधुमास था जागा कभी
जिस हृदय के अंक में मृदु श्रृंगार था जागा कभी
और जिसके अनुराग का संसार नतमस्तक रहा
उस हृदय के अंश में क्यूँ आज आये अश्रु गीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

बाँट कर आकाश सारा जो स्वयं किंचित में रहे
पंथ के हर शूल को भी जो स्वयं पुलकित हो सहे
वेदना का भार सभी मौन जिसने हो के झेला
उसके अंतस में जगे क्यूँ दर्द के ये मौन शोले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2021

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