चन्द स्वार्थी सत्ता के मतवालों को रेखांकित करती एक रचना जिनके कारण जनता राजनीति और से कई कई बार विश्वास खोने लगती है--
जनतंत्र की अभिलाषा
ऐ स्वार्थी सत्ता के मतवालों
कलुषित कुंठित मनोदशा वालों
स्वरचित मोहपाश में
एक दिन तुम बंध जाओगे
जो चले बेचने लोकतंत्र को
एक दिन तुम खुद बिक जाओगे।।
कुर्सी का है खेल निराला
समझो न इसे निज मय का प्याला
मत भूलो हर घूंट से इसकी
नशा अधिक गहराता है
खुद पर कोई ज़ोर चले न
मन परतंत्र हो जाता है।।
चंद स्वार्थी लोगों ने
लोकतंत्र का मान घटाया है
खुद की नाकामी ढंकने को
जनता को भरमाया है।।
सत्तामोह में पड़कर मुफ्तखोरी
की जो आदत डाल रहे
मत भूलो संसाधनों पर तुम
अपनी कुदृष्टि डाल रहे।।
मुफ्तखोरी की आदत
व्यवहार में जो रच बस जाएगी
भारत की संपूर्ण व्यवस्था
स्वतः पंगु हो जाएगी।।
मत भूलो निज स्वार्थ में पड़कर
तुम जनता को बांट रहे
नासमझी की पराकाष्ठा यही है
जिस डाली पर बैठे हो
उसी डाली को काट रहे।।
नित नए घोटाले कर के
शुचिता तक को खा गए
भ्र्ष्टाचार की बेदी पर
जनता की बलि चढ़ा गए।।
राजधर्म की मर्यादा को
जब चाहा तुमने तोड़ा है
रक्षक बनकर लोकतंत्र के
इसे न कहीं का छोड़ा है।।
जागो है मतवालों जागो
गली चौक चौराहे जागो
कब तक भोले बनकर के
उनकी इक्क्षा के बटन दबाओगे
कब बनकर पाञ्चजन्य तुम
शुचिता की अलख जगाओगे।।
जन गण मन ये पूछ रहा
सत्ता के पहरेदारों से
भूख कुपोषण और गरीबी
जब उनको नही सुहाती थी
तब जनता की करुण पुकार क्यूँ
उन तक पहुंच ना पाती थी।।
जिस देश के गमलों में
करोड़ों की गोभी उग जाती है
उस देश की तिहाई जनता
कैसे भूखी रह जाती है।।
महलों के आगे जब
झोंपड़ियों के आंसू का कोई मोल नही
नैतिकता बेमानी हो जाती तब
शुचिता का भी मोल नही।।
तब जगता है फ़र्ज़ कलम का
अत्याचारों से लड़ने का
आत्ममुग्ध सत्ता के आगे
तानकर सीना अड़ने का।।
जिस दिन हो निष्पक्ष लेखनी
अपनी पर आ जायेगी
उस दिन ही ये भूखी जनता
सत्ता को खा जाएगी।।
जनतंत्र की अभिलाषा
ऐ स्वार्थी सत्ता के मतवालों
कलुषित कुंठित मनोदशा वालों
स्वरचित मोहपाश में
एक दिन तुम बंध जाओगे
जो चले बेचने लोकतंत्र को
एक दिन तुम खुद बिक जाओगे।।
कुर्सी का है खेल निराला
समझो न इसे निज मय का प्याला
मत भूलो हर घूंट से इसकी
नशा अधिक गहराता है
खुद पर कोई ज़ोर चले न
मन परतंत्र हो जाता है।।
चंद स्वार्थी लोगों ने
लोकतंत्र का मान घटाया है
खुद की नाकामी ढंकने को
जनता को भरमाया है।।
सत्तामोह में पड़कर मुफ्तखोरी
की जो आदत डाल रहे
मत भूलो संसाधनों पर तुम
अपनी कुदृष्टि डाल रहे।।
मुफ्तखोरी की आदत
व्यवहार में जो रच बस जाएगी
भारत की संपूर्ण व्यवस्था
स्वतः पंगु हो जाएगी।।
मत भूलो निज स्वार्थ में पड़कर
तुम जनता को बांट रहे
नासमझी की पराकाष्ठा यही है
जिस डाली पर बैठे हो
उसी डाली को काट रहे।।
नित नए घोटाले कर के
शुचिता तक को खा गए
भ्र्ष्टाचार की बेदी पर
जनता की बलि चढ़ा गए।।
राजधर्म की मर्यादा को
जब चाहा तुमने तोड़ा है
रक्षक बनकर लोकतंत्र के
इसे न कहीं का छोड़ा है।।
जागो है मतवालों जागो
गली चौक चौराहे जागो
कब तक भोले बनकर के
उनकी इक्क्षा के बटन दबाओगे
कब बनकर पाञ्चजन्य तुम
शुचिता की अलख जगाओगे।।
जन गण मन ये पूछ रहा
सत्ता के पहरेदारों से
भूख कुपोषण और गरीबी
जब उनको नही सुहाती थी
तब जनता की करुण पुकार क्यूँ
उन तक पहुंच ना पाती थी।।
जिस देश के गमलों में
करोड़ों की गोभी उग जाती है
उस देश की तिहाई जनता
कैसे भूखी रह जाती है।।
महलों के आगे जब
झोंपड़ियों के आंसू का कोई मोल नही
नैतिकता बेमानी हो जाती तब
शुचिता का भी मोल नही।।
तब जगता है फ़र्ज़ कलम का
अत्याचारों से लड़ने का
आत्ममुग्ध सत्ता के आगे
तानकर सीना अड़ने का।।
जिस दिन हो निष्पक्ष लेखनी
अपनी पर आ जायेगी
उस दिन ही ये भूखी जनता
सत्ता को खा जाएगी।।
आज की राजनीति पर कठोर वार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ,एक प्रयास है बात को समझा पाने का
हटाएंVery nice uncle.. 🙏🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंAtisunder
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