राहों की धूल।
जिन पर उड़ती धूल नहीं
कभी न कहना उन बातों को
जिनका कोई मूल नहीं।।
सुन कर जन की विरह वेदना
मूक शब्द रह जाएं जब
और देख कर जन की पीड़ा
मौन नयन रह जाएं जब
ऐसे व्यवहारों का जग में
रहता कोई मोल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।
जग के सारे संतापों में
जिनको अवसर दिखता है
और जहाँ के अवसादों में
मौका अकसर दिखता है
उन लोगों से बचना जिनके
हृद में चुभती शूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।
समय चक्र का खेल है सारा
कौन यहाँ कब रुकता है
आज चढ़े जो आकाशों पर
उनका सिर भी झुकता है
झुका शीश जो कभी कहीं तो
उसको समझो भूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।
जीवन की गोधूली बेला
कितना अनुभव देती है
पथ के सारे किंतु परन्तु को
वो संभव कर देती है
धूल नहीं माथे का चंदन
समझो इसको भूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08मई, 2021
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