व्यथा रात की।

व्यथा रात की।   

जो व्यथा थी रात की कब भोर ने समझा यहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।

बाँचती अपनी व्यथा कब रात जाने सो गयी
भोर की आगोश में घिर स्वयं को ही खो गयी।
खो गए संकल्प सारे जो किये उसने कभी
रात के अवशेष में ही आस नूतन फिर जगी।

छिप गये ख्वाब कितने मौन इन परछाइयों में
खो गए संवाद क्या वक्त की गहराइयों में
मौन के उस घाव को फिर कौन समझेगा यहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।।

दर्द मिला जो रात को सब दिवस का ही दंश है
और टूटी आस जो निज गलतियों का अंश है
छोड़ कर अफसोस सारे आस का दीपक जला
औ तिमिर के ज्वार में भी ज्ञान का दीपक जला।

है समय की बात ये सब बीतता जीवन यहाँ
और उसके तेज से कुछ छूटता है कब यहाँ
पर घुटी जो मौन में अब चीख है जाने कहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2021

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