स्मृतियाँ।
साँझ समय के आँचल पर।।
मन का साथी ढूंढ रहा है
पहले वाला दीवानापन
और घटायें चाह रही हैं
फिर वैसा ही अपनापन।
लेकिन वही धुँधलका पसरा
जैसा पसरा बादल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।
बीते पल की कितनी बातें
रह रह मन पर छाती हैं
विरह, करुण, दारुण भावों से
अंतरमन को तड़पाती हैं।
अंतरमन की पीड़ाएँ अब
उकर चली हैं बादल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।
यादों ने भी पंख समेटे
पलकों की अँगनाई में
राह थकी अब चलते चलते
साँझ ढले परछाईं में।
गूँज रहे हैं मौन शब्द पर
स्मृतियों के मूक पटल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
30अप्रैल, 2021
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