पिता।
जिंदगी की धूप में चुपचाप कोई चल रहा है
देकर के हमको छाँव ताप में खुद जल रहा है।
चट्टान सा है सख्त पर भीतर से वो मोम है
पुण्यता का है प्रतीक और मंदिरों का ॐ है।
अनुभवों का ज्ञान है और प्रेम है विश्वास है
नन्हीं नन्हीं उँगलियों के आस का आकाश है।
रास्तों की धूप में वटवृक्ष की शीतल छाँव है
तूफानों को चीर दे उम्मीद की वो नाव है।
हालात कैसे भी रहे उफ नहीं करते यहाँ
पैर के छालों को हरदम फूल वो समझे यहाँ।
बैठ कर काँधों पे जिनके देखा है हमने जहाँ
स्वेद बूंदों से भी जिनके मृदुलता बरसे यहाँ।
मंजिलों को नापने को ताउम्र जो चलते रहे
औ जिनके काँधों पर मासूम स्वप्न पलते रहे।
जिनके पलकों की नमी देव भी न देख पाए
औ जिनके हौसलों को मुश्किलें न रोक पाए।
जिसने सिखलाया हमें के क्या बुरा है क्या भला
अनुभवों के छाँव तले वक्त जिनके हरदम पला।
जिसने सबको है सिखाया पंथ प्रतिपल जीत का
पाठ प्रतिपल है पढ़ाया मनुष्यता से प्रीत का।
जिसने सिखलाया है सदा मूल मंत्र बस कर्म का
जिसने दिखलाया है हमें राह प्रतिपल धर्म का।
उपनिषद हैं वेद हैं गीता का पूरा सार हैं
कहने को बस पंक्ति है पर शब्दों का संसार है।
संतान के सुख के लिए जो हर दर्द भूल जाते हैं
वो पिता ही हैं जो जिम्मेदारियाँ निभाते हैं।
जिसकी इक मुस्कान से ही खिल उठे सारे चमन
पिता के निश्छल प्रेम को शत शत है अपना नमन।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
12मई, 2021
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