छलक जाती है कविता।

छलक जाती है कविता।  

उफनते भाव मन के जब ,पलक के कोर तक आते
आँखों की सियाही से, छलक जाती है तब कविता।

नदी गहरी तेज धारा, लगे धुँधला जब किनारा
राहें चल के रुक जायें, नजर कुछ दूर झुक जायें
थके मन से किनारे जब, नहीं कुछ और चल पाते
आँखों की सियाही से, छलक जाती है तब कविता।

आहें जब बिलखती हों, ये साँसें जब तड़पती हों
बीते दौर की बातें, जब पलकों से बरसती हों
थोड़ी दूर जाकर के, कदम जब खुद ही रुक जाते
आँखों की सियाही से, छलक जाती है तब कविता।

पलकों को भिंगोती है, जब नींदों में सताती है
बदलते मौसमों में जब हँसाती है रुलाती है
नजर कुछ दूर जाकर जब खयालों में उलझ जाए
आँखों की सियाही से, छलक जाती है तब कविता।

तड़कती धूप में दिल जब बिखरती छाँव को देखा
तड़पते दर्द को देखा बिलखते भाव को देखा
आँचल से अलग हो कर, जो तारा टूट गिर जाते
आँखों की सियाही से, छलक जाती है तब कविता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जून, 2023

पैसा ही जब शीश मुकुट

पैसा ही जब शीश मुकुट

पैसों की पहचान जिन्हें बस वो रिश्तों को क्या जानेंगे
पैसा जिनका शीश मुकुट हो संबंधों को क्या मानेंगे।

जाने कैसी रीत जगत की दुर्बल हरदम हारा है
ताकत जिसके चरण चूमती उसका ही जयकारा है
झूठ साँच चौखट पर टेके, माथ कभी न पछतायेंगे
पैसों की पहचान जिन्हें बस वो रिश्तों को क्या जानेंगे।

जीते जी सम्मान नहीं की मरने पर मूरत लगवाई
कितनी अर्जी डाले बैठी करी नहीं उसपर सुनवाई
जिसने वक्त को धन से तोला वो अर्जी को क्या  मानेंगे
पैसों की पहचान जिन्हें बस वो रिश्तों को क्या जानेंगे।

चार घड़ी न साथ रहे जो बात जनम की हैं दोहराते
पैसे कहते, मैल हाथ के लेकिन पीछे आते-जाते
जो संबंधों को तोले धन से वो सोचो क्या पहचानेंगे
पैसों की पहचान जिन्हें बस वो रिश्तों को क्या जानेंगे।

पैसा ही है मजहब जिनका मंदिर मस्जिद और शिवालय
जग के रिश्ते नाते सारे उनकी खातिर शून्यालय
धन ही जिनका मूल मंत्र है वो दया धरम क्या मानेंगे
पैसों की पहचान जिन्हें बस वो रिश्तों को क्या जानेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       28मई, 2023

क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।

क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।

दो कदम चाँद के साथ चल लें जरा 
क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।

बाद मुद्दत के यादों ने दस्तक दिया
दिन पुराने नयन में चमकने लगे
गात आगोश में साँझ की खो गया
बिन पिये ही कदम ये बहकने लगे
हाथ में ले पियाली जरा प्रेम की
क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।

फिर सुधियों के सावन गगन छा रहे
गीत भूले कभी याद फिर आ रहे
श्रावणी भाव पा गीत सजने लगे
बूँद तन पर गिरी राग बजने लगे
गीत की पंखुरी होंठ पर अब लगा
क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।

लिपट रात से साँझ फिर खो न जाये
सिमट अंक में फिर कहीं सो न जाये
आओ के फिर चाँद ने है पुकारा
समझो जरा तुम भी इसका इशारा
चलो इस रात को हम जरा ओढ़ लें
क्या पता चाहतें फिर मचलने लगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मई, 2023

बदल जाती हैं।

बदल जाती हैं।

यादों को बाँध लो चाहे पलकें ये मचल जाती हैं
आहों में असर होगा तो जंज़ीरें पिघल
जाती हैं

कौन कहता है राहें रुक जाती हैं वहाँ तक जाकर
दो कदम साथ चलने से राहें खुद ही बदल जाती हैं

दिल के जज्बातों को कोई क्या रोकेगा भला
एक नजर देखने से आहें भी मचल जाती हैं

कौन कहता है कि किस्मत को बदल सकते नहीं
हौसला दिल में हो तो तकदीरें भी बदल जाती हैं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26मई, 2023

चलो आज मिला जाए।

चलो आज मिला जाए। 

बीते हुए लम्हों के यादों को जिला जायें
बहुत दूर रहे अब तक चलो आज मिला जाए।

पलकों पे सजे कितने सपने क्यूँ उतरते हैं
कभी पास रहे लम्हे क्यूँ जाने बिखरते हैं
बिखरे हुए सपनों के यादों को जिला जायें
बहुत दूर रहे अब तक चलो आज मिला जाए।

हालात ने हम सबको कितना ही सताया है
हैं मोड़ चले कितने ही फिर आज मिलाया है
जो रुकी हुई राहें हैं फिर आज चला जायें
बहुत दूर रहे अब तक चलो आज मिला जाए।

दुनिया की निगाहों से चलो दूर कहीं चल दें
अपने गुनाहों को एक दूजे से हम कह दें
जो दर्द छुपा रक्खा चलो आज सुना जायें
बहुत दूर रहे अब तक चलो आज मिला जाए।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई, 2023

अधूरे शब्द।

अधूरे शब्द।  

शब्द अधूरे छपे पृष्ठ पर उनको पूर्ण करूँ कैसे।

गंगा सा पावन मन लेकर
अंजुलि निर्मल जल भर कर
पग-पग पर चरण पखारा है
कितना कुछ जो वारा है
चाह मगर जो रुकी हृदय की उनका मूल गहूँ कैसे
शब्द अधूरे छपे पृष्ठ पर उनको पूर्ण करूँ कैसे।

आहत जितनी हुई चाहतें
ढूंढ रहा वही राहतें
सारे तर्क अधूरे क्यूँ हैं
आहों के फेरे क्यूँ हैं
आहों के इस चक्रव्यूह से ख़ुद को दूर करूँ कैसे
शब्द अधूरे छपे पृष्ठ पर उनको पूर्ण करूँ कैसे।

क्यूँ व्याकरण के सारे अक्षर 
पृष्ठ पलटते पलट गये
जो भी उत्तर लिखा कहीं भी
जाने क्यूँ सब उलट गये
फिर से इस कोरे कागज पर नव अक्षर अब गढूं कैसे
शब्द अधूरे छपे पृष्ठ पर उनको पूर्ण करूँ कैसे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई, 2023

सूर्य किरणें गा रही हैं।

सूर्य किरणें गा रही हैं।  

बादलों की ओट से सूर्य किरणें गा रही हैं।

रात की गुमनामियों से भोर की पहली किरण
कर रही है देख अर्पित अंक में पुष्पित सुमन
चीर कर नभ घनेरे रोशनी मुस्का रही है
बादलों की ओट से सूर्य किरणें गा रही हैं।

ओस की बूँदें धरा पर रश्मियों को भा रहीं शीत के अहसास में वो सौम्य बनकर छा रहीं
भोर का पाकर निमंत्रण ओस मुस्का रही है
बादलों की ओट से सूर्य किरणें गा रही हैं।

दूर कर आलस्य सारे चेतना संचार हो
नींद से जागी सुबह पर रात का ना भार हो
छाँव आँचल के सिमट धूप भी मुस्का रही है
बादलों की ओट से सूर्य किरणें गा रही हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19मई, 2023

मुस्कुरा कर के सितारे चाँद से कुछ कह रहे हों।

मुस्कुरा कर के सितारे चाँद से कुछ कह रहे हों।

आ रही है चाँदनी यूँ रात के आँचल लिपट कर 
मुस्कुरा कर के सितारे चाँद से कुछ कह रहे हों।

रूप खुद श्रृंगार कर के रात ओढ़े सो रही है 
चाँदनी की रश्मियां खुद रात का मुख धो रही हैं 
जुगनुओं ने मौन मन से रात का आँचल सजाया 
रूपसी के तन लिपट कर प्रेम ने मन को लुभाया।

नेह के सुन्दर इशारे अंक यूँ आए सिमट कर 
मुस्कुरा कर के सितारे चाँद से कुछ कह रहे हों।

आज बादल ने धरा पर नेह का मधुमास भेजा 
आज तपती कामनाओं को मृदुल अहसास भेजा 
स्वयं सपनों ने सजाये नैन में सुन्दर सितारे 
डूब कर मधु चाँदनी में आस का बादल पुकारे।

रंग रँगे हैं नैन खुद यूँ कोर पलकों के लिपट कर 
मुस्कुरा कर के सितारे चाँद से कुछ कह रहे हों।

ढल न जाये रात यूँ ही मौन हो कर चाहतों  में 
खोजती ही रह न जाये रात खुद को राहतों में 
भींगती इस रात में फिर जाग तारे भींग जाएँ 
सो रहे हों जो सितारे जाग कर फिर रीझ जाएं।

मुक्त कर दे यूँ हृदय को आज साँसों से लिपट कर 
मुस्कुरा कर के सितारे चाँद से कुछ कह रहे हों।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद 
        18मई, 2023


खोजती संभावनाएं।

खोजती संभावनाएं।  

रात की गुमनामियों में ख्वाब पलकों पर टहलते
टिमटिमाती रोशनी में खोजते संभावनाएं।

पास अपने है यहाँ क्या और क्यूँ इतरा रहे हैं
ओढ़ कर आडंबरों को स्वयं को बिसरा रहे हैं
कौन जाने भाव मन के कोर पर आकर मचलते
कह रहे हैं बूँद में कुछ दंश की संकीर्णताएं।

रोज मदिरा नाचती है ओढ़ मन के आवरण को
और नंगा कर रही हैं सभ्यता को, आचरण को
वासना के दलदलों में पीढ़ियों के मन बहकते
कोरे पृष्ठ पर वक्त के लिख रहे हैं अन्यथायें।

चुप्पियाँ जब तक रहेंगी नाग तन लिपटे रहेंगे
अनगिनत आहें गगन के पृष्ठ पर लिखते रहेंगे
शब्द खुद ही पँक्तियों में राख बन जायें दहकते
आवाज को इतना उठाओ हों सजग वर्जनाएं।

संकल्प ले यूँ अंजुरी मौन हो प्रण सो न जाये
भीड़ या तन्हाइयों में वो बिखर कर खो न जाये
रह न जायें फिर ऋचाएँ छंद की खातिर तड़पते
लेखनी फिर हाथ में आ हों सृजक नवकल्पनाएँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17मई, 2023





क्यूँ आँसू में मुस्काता हूँ।

क्यूँ आँसू में मुस्काता हूँ।

है दर्द से जाने क्या नाता
बिन जोड़े ही जुड़ जाता हूँ
मैं जानूँ या दिल जाने
क्यूँ आँसू में मुस्काता हूँ।

इक राह चुनी थी चलने को
जाने वो क्यूँ कर दूर हुई
क्यूँ राहें इतनी मुश्किल थीं
क्यूँ मंजिल थक कर चूर हुई
क्या हुआ कदम क्यूँ राहों में
चलने से पहले थमने लगे
क्यूँ चलना इतना मुश्किल था
चलने से पहले थकने लगे
अब खुद से है शायद अनबन
या खुद को अब भरमाता हूँ
मैं जानूँ या दिल जाने
क्यूँ आँसू में मुस्काता हूँ।

ना जाने कैसी भूल हुई
खुशियों ने रस्ता मोड़ लिया
जो दर्द छुपा कर रक्खा था
उसने ही दिल को तोड़ दिया
खुशियों से क्या करूँ शिकायत
जब दर्द भी अपना हो न सका
पलकों से क्या शिकवा बोलो
जब रातों को खुद सो न सका
थी शायद नींदों से अनबन
पलकों से कह, बहलाता हूँ
मैं जानूँ या दिल जाने
क्यूँ आँसू में मुस्काता हूँ।

अब तक जो भी दर्द मिला था
वो दर्द भी मुझको प्यारा था
इस रंग बदलती दुनिया में
एक वो ही था जो हमारा था
अब तो शायद खुद पर ही
मुझको मेरा अधिकार नहीं
वक्त से थी शायद ठनगन
अब इससे भी इनकार नहीं
दूर कहीं जब तारा देखूँ
जाने क्यूँ कर खो जाता हूँ
मैं जानूँ या दिल जाने
क्यूँ आँसू में मुस्काता हूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मई, 2023


अब और तुम पर क्या लिखूँ।

अब और तुम पर क्या लिखूँ।  

हो प्रणय का गीत तुम खुद, अब और तुम पर क्या लिखूँ।

देख कर मादक नयन में, नेह का नूतन निमंत्रण,
छूट जाता है हृदय से, स्वयं ही मेरा नियंत्रण,
देख नयनों की चपलता, ओर अपने खींचती है,
और अधरों की तरलता, मौन मन को भींचती है,

भावनाओं का नगर तुम, अब और तुम पर क्या लिखूँ
हो प्रणय का गीत तुम खुद, अब और तुम पर क्या लिखूँ।

प्राण हो इन पंक्तियों की, तुम गीत का संसार हो,
प्रिय मौन स्मृति तंत्र में तुम, नव प्राण का संचार हो,
तुम ही हृदय के पृष्ठ पर, पल-पल बदलती करवटें,
ध्यान बरबस खींचती हैं, प्रिय भाल की ये सिलवटें,

रूप का मधुमास हो तुम, अब और तुम पर क्या लिखूँ
हो प्रणय का गीत तुम खुद, अब और तुम पर क्या लिखूँ।

शोर की गहराइयों में, पुण्यता का मौन चिंतन,
तुम हृदय के पृष्ठ अंकित, भावना का तीव्र मंथन,
तुम भोर की मृदु रश्मियाँ, अनुभूति तुम अभिसार की,
अब क्या नियंत्रण मैं लिखूँ, जब पंक्ति हो मनुहार की,

छंद का पर्याय तुम खुद, अब और तुम पर क्या लिखूँ
हो प्रणय का गीत तुम खुद, अब और तुम पर क्या लिखूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12मई, 2023
        

अब व्यर्थ नहीं बह जाने दो।

अब व्यर्थ नहीं बह जाने दो।  

कुछ आँसू में दर्द छुपा है, कुछ आँसू में प्रीत छुपी
कुछ आँसू में हार छिपी है, कुछ आँसू में जीत छुपी
ये आँसू हैं अनमोल बहुत, पलकों में रह जाने दो
अब व्यर्थ नहीं बह जाने दो।

कुछ यादों की बदली लाते, कुछ ले आते फरियादें
कुछ में अपनेपन के मेले, कहीं पराई आघातें
इनके भावों को मत रोको, भावों को कह जाने दो
अब व्यर्थ नहीं बह जाने दो।

मुस्कानों के बीच पला जो, दर्द यहाँ अनमोल बहुत 
पल भर में सब कह डाले ये, कौन कहे अनबोल बहुत 
आँसू अंतस का दर्पण है, अंतस को बहलाने दो
अब व्यर्थ नहीं बह जाने दो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12मई, 2023

सपनों के गीत।

सपनों के गीत।  

फिर सपनों के गीत लिखें, हम।

कुसमित मन के भाव जहाँ हो
मुकुलित कानन छाँव जहाँ हो
शब्द-शब्द में हो अनुबन्धन
परमानंद नेह अनुरंजन
गुंजित नभ नव गीत लिखें, हम
फिर सपनों के गीत लिखें, हम।

पल-पल नव संयोग जहाँ हो
रास रंग नव योग जहाँ हो
शुद्ध प्रेम हो भोग नहीं हो
मन में कोई रोग नहीं हो
योग-सुयोग मन मीत लिखें, हम
फिर सपनों के गीत लिखें, हम।

जहाँ नेह के गीत प्रवाहित
हो पोर-पोर स्नेह समाहित
जहाँ हृदय खुद मादक प्याला
देख जिसे झूमे मतवाला
मादक मन की प्रीत लिखें, हम
फिर सपनों के गीत लिखें, हम।  

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11मई, 2023

कहीं कोई गाँव तो होगा।

कहीं कोई गाँव तो होगा। 

सुलगती जिंदगी है ये कहीं पर ठाँव तो होगा
बड़ी वीरान है बस्ती कहीं पर गाँव तो होगा

बहुत है धूप राहों में, तपिश है और अंगारे
जलेंगे रास्ते कब तक कहीं पर दाँव तो होगा

नहीं ढलते यहाँ पर शब्द गीतों में फकत यूँ ही 
कहीं कोई  इशारा है कहीं  पर काँव तो होगा

न पूछो क्यूँ उमड़ते हैं दिलों में दर्द के बादल
कँटीली याद के घुँघरू सँजोये पाँव तो होगा

यूँ भटकेंगे कहाँ तक ये हमारे रास्ते बोलो
कहीं पर तो मिलेंगे ये कहीं पर गाँव तो होगा

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद
        10मई, 2023


गाँव-भूली बिसरी यादें

गाँव-भूली बिसरी यादें।

आज लिखने चले गीत जब गाँव पर
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।

वो जो बचपन मेरा था वहीं रह गया
जो था अल्हड़ मेरा वो कहीं बह गया
साथ बस रह गयी याद जो थी सुहानी
भूली बिसरी वो यादें वो कितनी कहानी
यादों के पृष्ठ पलटे जो इक पल यहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।

दूर तालाब तक जाती पगडंडियाँ
राह में खेलती कितनी अठखेलियाँ
पेड़ की छाँव में धूप का मुस्कुराना
और पुरवाई का हौले से गुदगुदाना
बाग में चिड़ियों से बातें करते वहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।

खेतों में रोपती धान की क्यारियाँ
आँखों में सपनों की कितनी तैयारियाँ
साँझ चौपालों पे गीत की रागिनी
बोली ऐसी शहद की घुली चाशनी
गीत में गूँजते मन के गाने जहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।

उम्र के छोर पर जिंदगी की लड़ी
तक रही राह, उम्र हाथ ले कर छड़ी
आज भी होंठ पर लोरियों की लड़ी
राहों के संग-संग जिसकी नजरें मुड़ीं
आज ठोकर लगी राह में जब यहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।

शहरों की रोशनी में कहीं खो गए
तारे खुद रात को ओढ़ कर सो गए
दिन ढला कब यहाँ, रात कब क्या पता
मंजिले कब मुसाफिर हुईं क्या पता
हैं चलीं राह खुद मंजिलें जब यहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।

वक्त के साथ बढ़ती ये तन्हाईयाँ
दूर होने लगी आज परछाइयाँ
जा रहा है शहर-गाँव, खुद छोड़कर
रिश्ते नाते सभी से यहाँ तोड़कर
चार पैसों की चाहत में आये यहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मई, 2023

गो माता की पुकार।

गो माता की पुकार।  

बिलख रही हैं गाय हमारी किसको व्यथा सुनायें
कदम-कदम पर दर्द मिल रहा किसके द्वारे जायें
बिलख रही हैं.....।।

सबको दूध पिला कर जिसने बचपन से है पाला
उसके ही जीवन को जग ने संकट में क्यूँ डाला
आज स्वार्थी हुआ जगत क्या कोई नहीं सहारा
आवाज नहीं जाती कानों तक कितनी बार पुकारा
बदल रही है रीत जगत की किसको व्यथा सुनायें
कदम-कदम पर दर्द मिल रहा किसके द्वारे जायें।

तड़प रहे वृंदावन गोकुल तड़प रहे हैं ग्वाला
जिसने जग को प्रेम सिखाया उसका वध कर डाला
वेद, पुराण, गीता ग्रन्थों ने जिसको पग-पग पूजा
त्याग, तपस्या, दया, धर्म है और नहीं कोई दूजा
बिलख रही है गली-गली अब किसको व्यथा सुनाये
कदम-कदम पर दर्द मिल रहा किसके द्वारे जायें।

पाप-पुण्य में होड़ मची है ये कैसी विपदा आयी
कदम-कदम पर बूचड़खाने है ये कैसी कहो कमाई
तनिक स्वाद की खातिर जग में नैतिकता को तोड़ा
क्यूँ स्वार्थ में अंधा हुआ जगत क्यूँ माँ का आँचल छोड़ा
माँ का आँचल तार-तार है अब किसको व्यथा सुनाये
कदम-कदम पर दर्द मिल रहा किसके द्वारे जायें।

आज नहीं दिखता इस युग में गो माँ का रखवाला
कहाँ बसे हो आन मिलो है मुरलीधर गोपाला
टूटा जो विश्वास यहाँ तो सृष्टी मिट जाएगी
मानवता दर-दर भटकेगी राह न मिल पाएगी
इतना दो वरदान सभी को मानव धर्म निभायें
कदम-कदम पर दर्द मिल रहा किसके द्वारे जायें।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मई, 2023

जाने न देंगे।

जाने न देंगे।  

जो जागे हैं फिर नींद अब आने न देंगे
तुम्हें फिर यहाँ से अब जाने न देंगे

चलेंगे तुम्हारे कदम दर कदम हम
कदम के निशाँ अब मिटाने न देंगे

गायेंगे फिर गीत मन के मिलन के
उसे फिर कभी अब भुलाने न देंगे

बाद बरसों के जागे हैं लम्हें सुहाने
किसी को उन्हें अब सुलाने न देंगे

रूठना और मनाना बहुत हो चुका है
फिर रूठने के कोई अब बहाने न देंगे

मिटेंगी दिवारें सभी मैं और तुम की
फिर नई कोई दिवारें अब बनाने देंगे

नहीं कोई दौलत यहाँ तुमसे बढ़कर
इसे हाथ से देव अब जाने न देंगे

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07मई, 2023

सुनना यदि जरूरी था, तो कहना भी जरूरी था।

सुनना यदि जरूरी था, तो कहना भी जरूरी था।

शब्द कितने ही झरे थे आँख से उस दिन वहाँ पर
और कानों ने सुने थे बात कितनी ही वहाँ पर
कोई मजबूरी तो होगी शब्द अधरों पर रुके 
और सपने बूँद बनकर के कोर पे आकर रुके
बूँद जो उस दिन रुके वहाँ बहना भी जरूरी था
सुनना यदि जरूरी था, तो कहना भी जरूरी था।

अब भार कितनी बात का ये मन यहाँ ढोता कहो
अब और कितनी चोट दिल से मन यहाँ कहता सहो
कोई हद होती जहाँ पर दर्द को विश्राम मिलता
और बिखरे उन पलों को कुछ वहाँ आराम मिलता
नासूर कहीं बन न जाये बहना भी जरूरी था
सुनना यदि जरूरी था, तो कहना भी जरूरी था।

वही मैं था वही तुम थे वही थी राहतें दिल की
अधूरी थी गुजारिश वो अधूरी चाहतें दिल की
कभी भटके कभी पहुँचे कभी थी मंजिलें झूठी
कभी थी आहटें झूठी कभी थी राहतें झूठी
हुई मंजिल मुसाफिर जब भटकना भी जरूरी था
सुनना यदि जरूरी था, तो कहना भी जरूरी था।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06मई, 2023

और कब तक पथ निहारा जाएगा।

और कब तक पथ निहारा जाएगा।  

सूनापन कब तक तके सांध्यतारा
और कब तक पथ निहारा जाएगा।

निकल पड़ी जब पीर मन को चीर कर
कौन इसको रोक फिर तब पायेगा
और विकलता जब रुकेगी तीर पर
कौन इसके सामने फिर जाएगा।

इन रास्तों पे शूल हैं बिखरे बहुत
यादों पर भी धूल हैं बिखरे बहुत
आएगी जब पीर सबको चीरकर
हाथ बोलो क्या यहाँ रह जायेगा।

मौन यहाँ मन कहो कब तक रहेगा
शून्य हो पंथ कहो कब तक तकेगा
जब मिलेंगे शब्द विकल इस पीर को
नैन में सारा गगन आ जायेगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04मई, 2023





पिता।

पिता।  

दूर खड़ा हो
कोई भाव छुपा रहा है
वो पिता है, साहब
भीतर ही मुस्कुरा रहा है।

कितनी ही डिग्रियां बटोरी है
तब ये मंजिल पाई है
वो पिता है, साहब
डिग्रियों से ऊंची 
उसकी लड़ाई है।

दो वक्त की रोटी
कपड़ा और मकान
पिता होना 
कहाँ इतना आसान।

जिसके आगे 
सारा जमाना झुकता है
वो खुदा भी
पिता के आगे झुकता है।

हर रोज नए सपने बुनता है
बच्चों की खुशियों के लिए
किसी और की कहाँ सुनता है।

जरा सी गलती पर 
आँख दिखाता है
वो पिता है, साहब
डाँटता जब है
फिर पछताता है।

बच्चों की आँखों
में आँसू देख नहीं पाता
कौन कहता है कि
उसे पढ़ना नहीं आता।

अपने काँधों पर
कितनी ही जिम्मेदारियों का
बोझा ढोता है
वो पिता है, साहब
सेहत की कहाँ सोचता है।

त्यौहारों में सबके लिए
कुछ न कुछ लाता है
पर उसी पुराने कुरते में
खुद एडजस्ट कर जाता है।

एक माँगो
तो हजार देता है
वो पिता है, साहब
पल में चाँद-तारे 
उतार देता है।

लेखनी में इतनी स्याही नहीं
के लिख सकूँ पिता क्या है
बस इतना ही जान पाया
इस तपती धूप में
पिता एक सुनहरी छाया है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2023

जब था तुमसे संबन्ध यहीं तक और भला मैं क्या कहता।

जब था तुमसे संबन्ध यहीं तक और भला मैं क्या कहता।

कुछ बात अधूरी रही हृदय की चाह रही पर कह न सके
बीती उन सारी बातों की टेर यहॉं ढूँढा करती है
कुछ तस्वीर अधूरी मन की चाहा पर पूरा कर न सके
तस्वीरों पर रुकी तूलिका  मुड़-मुड़ कर देखा करती है
जब सारे अनुबन्ध यहीं तक रंग भला मैं क्या-क्या भरता
जब था तुमसे संबन्ध यहीं तक और भला मैं क्या कहता।

कितनी बातें नई पुरानी रुके अधर सब कहते-कहते
सपने सारे बने मुसाफिर पलकों को यूँ तकते-तकते
रुकी राह सारी तब जाकर मिला नहीं जब कहीं इशारा
कहता किससे बात हृदय की काँधों का जब नहीं सहारा
थे आगे प्रतिबंध वहाँ जब खालीपन को किससे भरता
जब था तुमसे संबन्ध यहीं तक और भला मैं क्या कहता।

अब तो हर सूनापन मेरे अंतस को प्यारा लगता है
चाहे कितना भरा जगत हो बरबस बंजारा लगता है
अब तो सारी बातें मन को बस सुनी सुनाई लगती है 
अब तो मन की पीर हृदय को सब पीर पराई लगती है
परछाईं से आबंध यहीं तक दोष छाँह पर क्या धरता
जब था तुमसे संबन्ध यहीं तक और भला मैं क्या कहता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2023

पास नहीं क्यूँ आते हो?

पास नहीं क्यूँ आते हो?

कितने तारे नील गगन में जोह रहे बाँह पसारे
क्यूँ यूँ इनको उलझाते हो पास नहीं क्यूँ आते हो?

निस दिन बाहों को पुलकित कर
साँसों में पुष्पादित स्वर 
धवल दीप्त कर इस जीवन को
यूँ ही तुम बहलाते हो, पास नहीं क्यूँ आते हो?

पुन अंतर्मन को झंकृत कर 
विरह वेदना के स्वर भर
भावों को अस्फुट स्वर देकर
अंतर्मन दहलाते हो, पास नहीं क्यूँ आते हो?

शैशव मन के भावों में घुल
मृदु यौवन मधुरस से धुल
साँसों में स्मित मधुमासों का
पोर-पोर छू जाते हो, पास नहीं क्यूँ आते हो?

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अप्रैल, 2023

अश्रु बूँदों में छिपी जाने कितनी भावनायें।

अश्रु बूँदों में छिपी जाने कितनी भावनायें।

एक तिनका आ कहीं से आँख में ऐसे पड़ा
यूँ लगा जैसे हृदय में शब्द आकर के गड़ा
आह फिर निकली हृदय से मौन मन को बींधती
कंठ से फिर आह निकली शून्यता को चीरती
शून्यता में छिपी जाने कितनी वेदनायें
अश्रु बूँदों में छिपी जाने कितनी भावनायें।

हैं छुपे कितने उजाले वक्त की बदलियों में
और कितने खो गए धूम्र बनकर चिमनियों में
पर कहीं अब भी छपे हैं वीथियों पे कुछ निशाँ
देखती हैं मौन आँखें शून्य में वो कहकशाँ
है कहीं अब भी छिपी शून्य में संवेदनाएं
अश्रु बूँदों में छिपी जाने कितनी भावनायें।

थी अधूरी बात मन की टूट आँसू गिर गया
बात पूरी कह न पायी धूल में वो मिल गया
पर कपोलों पर छपे रह गये संवाद के पल
मिट न पायी रेख उनकी यूँ चुभे उस रोज पल
मिल गए जो धूल में क्या कहें परिवेदनाएं
अश्रु बूँदों में छिपी जाने कितनी भावनायें।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अप्रैल, 2023

आ विरह के इन पलों को सींच दें मधुयामिनी से।

आ विरह के इन पलों को सींच दें मधुयामिनी से।

जो दूर थे तारे गगन में इन क्षणों में पास हैं
शून्यता के मध्य देखो पल आज कितने खास हैं
आ निशा के इन पलों को सींच दें सौदामिनी से
आ विरह के इन पलों को सींच दें मधुयामिनी से।

हैं दूर जो नक्षत्र सारे अंक में भर आज लायें
तोड़ कर निज बंधनों को आज फिर से पास आयें
आ सजायें पंक्तियों को हम मधुर अनुरागिनी से
आ विरह के इन पलों को सींच दें मधुयामिनी से।

गूँजते हैं गीत अब भी सुन तनिक जो थे सुरीले
फैलते हैं भाव मन के सांध्य में होकर रंगीले
आ मिलायें साँस को हम साँस की अनुगामिनी से
आ विरह के इन पलों को सींच दें मधुयामिनी से।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अप्रैल, 2023

लेकर द्वार मिलूँगा मैं।

लेकर द्वार मिलूँगा मैं।  

जब गाने को गीत रहे ना, याद मुझे तब कर लेना
टूटी-फूटी चंद पंक्तियाँ, लेकर द्वार मिलूँगा मैं।

सुंदर है हर फूल यहाँ पर, इस जीवन के उपवन में
सबका मोल चुका पाना कब, संभव होता मधुवन में
लेकिन पुष्पच्छादित मन ले, पल-पल राह तकूँगा मैं
जब उपवन की क्यारी भटके, याद मुझे तब कर लेना
टूटी-फूटी चंद पंक्तियाँ, लेकर द्वार मिलूँगा मैं।

सागर से मिलकर कितनी, नदिया हर पल रही पियासी
खुशियों के सम्मुख रहकर, आहों में जब रहे उदासी
दिल की बात सुने न कोई, संग-संग तब रहूँगा मैं
दिल के घाव तुम्हें सताए, याद मुझे तब कर लेना
टूटी-फूटी चंद पंक्तियाँ, लेकर द्वार मिलूँगा मैं।

इतना भी अनिभिज्ञ नहीं हूँ, मन की बात समझ न पाऊँ
इतना भी अनजान नहीं, चेहरों को मैं पढ़ न पाऊँ
मौन उदासी के भावों को, कह दो यहाँ पढूँगा मैं
जब चेहरे के भाव थकेंगे, याद मुझे तब कर लेना
टूटी-फूटी चंद पंक्तियाँ, लेकर द्वार मिलूँगा मैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27अप्रैल, 2023

गीत अधूरा रहे न कोई।

गीत अधूरा रहे न कोई।  

प्यासी आँखों में मन का, गीत अधूरा रहे न कोई
बूँद बनो ऋतु पावस की तुम, मन की प्यास बुझा जाओ।

गरजो-बरसो आज घटा बन, सौ-सौ बिजली बन चमको
अंग-अंग में मादकता की, मोहक छवि बनकर दमको
गूँजो बनकर मधुर तान तुम, मन मेरा बहका जाओ
बूँद बनो ऋतु पावस की तुम, मन की प्यास बुझा जाओ।

सूखी-सूखी धरती सारी, एक बूँद को जोह रही
उमड़-घुमड़ कर श्याम घटायें, मेरे मन को मोह रही
बरसो श्याम घटा बनकर तुम, अंतर्मन नहला जाओ
बूँद बनो ऋतु पावस की तुम, मन की प्यास बुझा जाओ।

दस्तक देती द्वार खड़ी है, मेरे मन के पुरवाई
गीत अधूरे राग बिना है, जाने कैसी निठुराई
मन के गीत सजे अधरों पर, ऐसा राग सुना जाओ
बूँद बनो ऋतु पावस की तुम, मन की प्यास बुझा जाओ।

बादल की जब चाह धरा को, धरती उसे बुलाती है
सागर से मिलने को नदिया, खुद चलकर के आती है
मुरली की मृदु तान छेड़ कर, फिर मधुमास जगा जाओ
बूँद बनो ऋतु पावस की तुम, मन की प्यास बुझा जाओ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27अप्रैल, 2023

हमसफ़र।

हमसफ़र।  

काश उस रोज तुझसे जो न बेखबर होता
तुम्हारे जुल्फ की छाँवों में मेरा बसर होता

मैं लिखता गीत तेरे नैन की हर करगुजारी पर
मिले हम राह ए मंजिल में कभी ऐसा सफर होता

तन्हा है बहुत मुश्किल गुजारा इस जमाने में
कि ऐसा हो जो मेरा है वही तुम्हारा भी घर होता

आया इस ऊँचाई पर तो जाना जिंदगी क्या है
अकेला हूँ बहुत मैं देव कोई हमसफ़र होता

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अप्रैल, 2023

ग़ज़ल--सँभल के मिलना।

सँभल के मिलना।  

जुनून-ए-इश्क की दुनिया है जरा सँभल के मिलना तुम
नकाबों में लिपट चेहरे हैं जरा सँभल के मिलना तुम

हिफाजत हो किसी की तो यहाँ नासूर पलता है
बड़े हैं शूल राहों में जरा सँभल के चलना तुम

चेहरों पे नहीं लिखा है किसी के दिल में क्या-क्या है
अगर दिल खोलते हो तो जरा सँभल के खुलना तुम

हजारों ख्वाहिशें माना तुम्हारे दिल में पलती है
गिरे जो ख्वाहिशें राहों में तो फिर खुद सँभलना तुम

कि अब परछाइयाँ भी दूर तक कब साथ देती हैं
राहों में बड़े धोखे हैं जरा सँभल के चलना तुम

वादों का भरोसा क्या यहाँ हर रोज गिरते हैं
जुबाँ पर और दिल में और जरा सँभल के मिलना तुम

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अप्रैल, 2023

ग़ज़ल-हालात के दर्द।

हालात के दर्द।  

क्या कहूँ के किन-किन हालात से गुजरे हैं
जिंदगी हम तो तेरी हर घात से गुजरे हैं

कुछ ख्वाब ऐसे चुभे हैं मेरी इन आँखों में
जख्म आँखों में लिए बरसात से गुजरे हैं

अब दर्द का क्या कहें क्या ठिकाना था कहाँ था
चुभती आहों औ दर्द के जज्बात से गुजरे हैं

कुछ खता थी या नहीं अब ये मालूम किसे है
बेबसी हम तो तेरी हर बात से गुजरे हैं

तब जाना जिंदगी भी एक खेल है यहाँ पर
कदम-कदम पर जब शह और मात से गुजरे हैं

क्या बताएं देव किस-किस ने सताया है हमें
बात जितनी भी निकली हर बात से गुजरे हैं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अप्रैल, 2023

मन की पीर।

मन की पीर।  

एक कसक सी रही हृदय में
मन की पीर समझ न पाया।।

सूने नयनों ने कितने ही
यादों के संदेशे भेजे
मन के विह्वल नील गगन ने
कितने ही अंदेशे देखे
लेकिन मन के संदेशों को
चाहा लेकिन कह कब पाया
एक कसक सी रही हृदय में
मन की पीर समझ न पाया।।

कितनी बार हृदय ने चाहा
मन की पीर लिखे पृष्ठों पर
मन ने कितनी बार उकेरा
आहों के पल को पृष्ठों पर
कुछ थी धुंध हृदय में गहरी
पृष्ठों को मन समझ न पाया
एक कसक सी रही हृदय में
मन की पीर समझ न पाया।।

मन के सारे भाव अधूरे
सब अक्षर-अक्षर हुए अवारा
दूर हुआ है मन दुनिया से
कहूँ किसे है कौन सहारा
उलझे ऐसे भाव हृदय में
चाहा कितना सुलझ न पाया
एक कसक सी रही हृदय में
मन की पीर समझ न पाया।।

मन की खूँटी पर यादों की
कुछ तो बाकी बची कहानी
जिसकी पीड़ा में घुल-घुलकर
पिघल रही है एक हिमानी
पीड़ा के उस उच्च शिखर का
दर्द हृदय ये समझ न पाया
एक कसक सी रही हृदय में
मन की पीर समझ न पाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अप्रैल, 2023

शब्द पन्नों पे उतरे गजल हो गए।

शब्द पन्नों पे उतरे गजल हो गए।  

याद आयी उनकी नयन सजल हो गए
शब्द पन्नों पे उतरे गजल हो गए

बात में कुछ सच्चाई तो होगी वहाँ
यूँ ही नहीं बातें सारी असल हो गए

तेरी यादों ने इतना रुलाया हमें
नैन के कोर सारे विजल हो गए

उनके दर्द ने दर्द को दर्द इतना दिया
कि दर्द के भाव सारे खिजल हो गए

कहीं कुछ तो कमी रह गयी आहों में
के जतन जो थे सारे विफल हो गए

अब कहें देव किससे मन की यहाँ पर
दिल के रिश्ते सभी अब अजल हो गए


विजल- जल विहीन, निर्जल
खिजल- शर्मिंदगी
अजल- मृत्यु

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई, 2023

नहीं आती।

नहीं आती।  

जाने क्यूँ रात अब नहीं आती
नींद आँखों में अब नहीं आती

कितनी उम्मीद थी घटाओं से
बूँद आँखों में अब नहीं आती

रोज तकता हूँ रात तारों को
फिर वही रात अब नहीं आती

जिसने दिल को कभी लुभाया था
वो सूरत नजर अब नहीं आती

एक गुजारिश थी उनसे मिलने की
क्या ये फरियाद अब नहीं आती

कुछ तो ख्वाहिश अभी अधूरी है
जिंदगी रास अब नहीं आती

यादों से जाने कैसी अनबन है
याद आती थी अब नहीं आती

अपना साया भी कुछ अधूरा है
कल थी परछाईं अब नहीं आती

पहले आती थी देव हँसी यूँ ही
किसी बात पर अब नहीं आती

कैसे रखूँगा मैं खबर उनकी
अपनी भी खबर अब नहीं आती

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20अप्रैल, 202

कैसे कहो मनाऊँ मैं।

कैसे कहो मनाऊँ मैं। 

जाने कैसी है हलचल
व्यग्र हो रहा मैं पलपल
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ मैं ।।

भाव हृदय में रह रहकर
हलचल नई मचाते हैं
रचता हूँ कुछ और यहाँ
और गीत रच जाते हैं
रूठे शब्दों को बोलो
कैसे आज बुलाऊँ मैँ।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ मैँ।।

अनजाना भय व्याप्त हुआ
किसने जाने किसे छुआ
संवादों पर ताले हैं
उर के फूटे छाले हैं
बाँध सबर का टूट रहा
जीवन जैसे रूठ रहा
टूट रहे सपनों को फिर
कैसे कहो सजाऊँ मैं।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ मैं।।

कदम कदम पर क्रंदन है
मौन हृदय का नंदन है
कितने सपने खोएंगे
पलकें कब तक रोयेंगे
चीखूँ या अरदास करूँ
कैसे और प्रयास करूँ
कैसे दर्द दिखाऊँ मैं
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ में।।

जो विलंब है आने में
तो इतना उपकार करो
जहाँ जहाँ तम गहरा है
वहाँ वहाँ उजियार करो
ऐसा दो वरदान मुझे
गीत नया रच जाऊँ मैं
अँधियारे में दीप जला
मधुर रागिनी गाऊँ मैं।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ मैं।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद

उम्मीद नहीं टूटा करती।।

 उम्मीद नहीं टूटा करती।।

ढीली माना डोर हाथ की आस नहीं टूटा करती
एक हार से जीवन की उम्मीद नहीं टूटा करती।।

माना तेज धूप राहों में दूर-दूर तक छाँव नहीं
मन को थोड़ा चैन मिले ऐसा भी कोई गाँव नहीं
माना छाँव दूर है लेकिन राह नहीं रूठा करती
एक हार से जीवन की उम्मीद नहीं टूटा करती।।

मन पर कितने बोझ भले हों काँधे कब झुक जाते हैं
जिनके सपने उच्च शिखर कब बाधा से घबराते हैं
मन को मन थाह मिले जब चाह नहीं रूठा करती
एक हार से जीवन की उम्मीद नहीं टूटा करती।।

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता
पलकों के यूँ झुक जाने से सपना नहीं गिरा करता
भले उम्मीदों की राह कठिन साँस नहीं छूटा करती
एक हार से जीवन की उम्मीद नहीं टूटा करती।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई, 2023

गीत को सम्मान।

गीत को सम्मान।  

हो समर्पण प्रेम में जब तब मधुरतम गान बनता
तब हृदय में प्रेम पनपे गीत को सम्मान मिलता।।

नैन की जब पुण्य बूँदें इस हृदय की सींचती हैं
प्रेम में अभिभूत होकर जब अधर को भींचती हैं
साँस भी उन्मुक्त होकर जब कह पड़े दिल की लगी
और आहों में हृदय की जब भावनाएं हों जगीं
भावनाओं के समर में नेह को जब मान मिलता
तब हृदय में प्रेम पनपे गीत को सम्मान मिलता।।

बूँद पलकों से उतरकर जब कपोलें चूमती हैं
नैन से बिछड़ी मगर जब मस्त होकर झूमतीं हैं
जब बहे गीतों के संग आँसुओं की धार घुलकर
और कह दे भावनाओं से हृदय के तार मिलकर
जब नयन से गीत छलके आँसुओं को मान मिलता
तब हृदय में प्रेम पनपे गीत को सम्मान मिलता।।

लेखनी जब भी मचलकर गीत लिखती कागजों पर
चाँदनी मन की निखरती सुर सजाती बादलों पर
अर्चना के भाव में मन प्रेम को नव धाम देते
मौन गीतों को सफर में इक नया आयाम देते
पाषाण मन के भाव को जब नया भगवान मिलता
तब हृदय में प्रेम पनपे गीत को सम्मान मिलता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        19अप्रैल, 2023

रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

उर पीड़ा के मौन अंश जो, नयन कोर में रहते प्रतिपल
जो स्थापित मन के भावों को, चुभते बनकर अभिशापित दल
बूँद नयन से चरण पखारूं, मैं आहों को समझाता हूँ
रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

साँसों से साँसों का बंधन, है आह-आह का अनुबन्धन
निज हृदय सृजित स्मित भावों का, हिय पीड़ा से कैसा बंधन
आँसू के दो चार कणों से, मैं तप्त हृदय नहलाता हूँ
रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

दुर्बल मन के कुछ सपनों का, जाने कैसा ये चढ़ाव है
बिखरे मोती मनके सारे, कैसा मन का ये दुराव है
बिखरे मनके मोती चुनता, मन ही मन को समझाता हूँ
रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

कुछ सपनों के मर जाने से, रिश्तों में कैसी परवशता
एक कोख से जन्मे मन में, कैसी लघुता कैसी गुरुता
अंतर्मन के कोर में बसे, पाषाणों को समझाता हूँ
रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अप्रैल, 2023

अंतिम मधु प्याला।।

 अंतिम मधु प्याला।।


गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला
तारों का रथ चाँद सारथी, जीवन अपना है मधुशाला।।

कितने द्वार खड़े पीने को, कितने प्याले तोड़ चुके हैं
कितने मदिरालय में रहकर, जीवन मधुघट फोड़ चुके हैं
प्रथम बूँद की कुछ को चाहत, कुछ अंतिम की बाट जोहते
मधु की लाली में नव जीवन, कुछ को प्यासी राह मोहते
कुछ डूबे मधु के सागर में, और बने कुछ जीवन हाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

दिल से दूर हुए हैं कितने, जीवन मधु सा जीनेवाले
मदिरालय ने कितने देखे, आते-जाते पीने वाले
कितने पीकर मस्त हुए हैं, कितने डूब गए जीवन में
कितने साकी रूठ गए हैं, डूबे कितने सिन्धु नयन में
जब-जब छलकी प्याली मन की, तब-तब नयन बने ख़ुद हाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

कुछ मुस्काये नयनों में घुल, कुछ नयन कोर से ढलक गये
कुछ ने मन को दिया सहारा, अरु कुछ राहों में बहक गये
कुछ राहों में घिरकर भटके, कुछ को भय भ्रम ने आ घेरा
कुछ ने सहज भाव स्वीकारा, जीवन जनम मरण का फेरा
कितने मदिरालय खुद बहके, कितनों ने खुद संशय पाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

कुछ को धूप मिली राहों में, कुछ ने पग-पग पाई छाया
कुछ अभाव में जीवन काटा, कुछ को हाथ मिली बस माया
कुछ बंधन में स्वयं बँधे हैं, कुछ को हालातों ने बांधा
कुछ साधक बन स्वयं सधे हैं, कुछ को अनुपातों ने साधा
कितनी मद की प्याली छलकी, अरु टूटी कितनी मधुशाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

अंतिम बूँद प्रखर कितनी है, समझा किसने काल हलाहल
जिसने कंठ धरा है इसको, पग-पग चलता रहा चलाचल
लेकिन अंतिम बूँद मदिर की, प्यासे मन को भरमाती है
मदिरालय के द्वार पहुँचकर, अंतिम सुख क्या दे पाती है
अंतिम सुख की चाह हृदय में, मधु घट सेज सजाती हाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15अप्रैल, 2023


आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

उम्र का पहिया निरंतर चल रहा रफ्तार से
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

बीते कितने ही बसंत और कितनी आस है
अतृप्त मन के भाव की और बाकी प्यास है
पल-पल घट रही दूरियाँ उम्र के अनुपात की
और धूमिल हो रही है तेज प्रतिपल गात की
किंतु मन की भावनाएं गीत नूतन गढ़ रही
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

बढ़ रहा दायित्व जब से मौन मन का गान है
उम्र के अनुरोध है ये मत कहो अभिमान है
चल रहे हैं पंथ सारे पर शिथिल चाल माना
अनुभवों की रेख पर है जिंदगी का ताना-बाना
मौन हल्की सी हँसी अब झुर्रियों को ढँक रही
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

लिख दिए ग्रन्थ कितने और कितने लिख रहे
चाहतों के पृष्ठ में जा गीत कितने छिप रहे
दूर कितना भी सवेरा दीप लेकिन जल रहा
मौन एकाकी हृदय के अंक को पर खल रहा
आहटें हल्की समय की रेत बनकर झर रहीं
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11अप्रैल, 2023





इतिहास

इतिहास।  

हो सुलगती आग भीतर,मौन रहना क्या उचित है
क्या पता किस पृष्ठ का, इतिहास रह जाये अधूरा।।

चल न पाए पंथ पर जो, आज भी पथ जोहते हैं
इक अधूरी आस लेकर, स्वयं का मन टोहते हैं
जो देखते हैं वीथियों पर, स्वप्न के टुकड़े बिखरते
बस देखते हैं वो सफर में, सूर्य को रथ से उतरते
स्वयं बढ़कर हाथ थामो, हो सके अहसास पूरा
क्या पता किस पृष्ठ का, इतिहास रह जाये अधूरा।।

दूर यदि जाओ कभी तो, पास रखना कुछ निशानी
रिश्तों की डोरी बँधी है, उम्र पर है आनी जानी
बाँध कोई कब सका है, वक्त को पाबंदियों में
और रिश्तों के सफर में, मौन को अभिव्यक्तियों में
कुछ शब्द जो ठहरे अधर पर, कब रहा कोई अछूता
क्या पता किस पृष्ठ का, इतिहास रह जाये अधूरा।।

लिख दिये हैं ढेर सारी, पर है अभी बाकी कहानी
कुछ सुनी है हमने तुमसे, और कुछ अपनी सुनानी
एक मन में भाव कितने, और कितनी यादें पल रही हैं
आज कह दो स्वयं आकर, देख संध्या ढल रही है
इस सांध्य के स्मित पलों में, ना चाँद रह जाये अधूरा
क्या पता किस पृष्ठ का इतिहास रह जाये अधूरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10अप्रैल, 2023

भारत।

भारत।  

जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत
स्वर्ण स्वर है, स्वर्ण भाव है, स्वर्ण ब्रह्म विशारद
जल थल नभ.....।।

सत्य सनातन शिव मनभावन, त्रेता, द्वापर, कलयुग
पग-पग कुसमित, पथ-पथ सुषमित जैसे है सतयुग
श्री राम, कृष्ण आदि देव, और कण-कण विश्वनाथ
कालेश्वर, ओंकारेश्वर, त्र्यंबकेश्वर, और केदारनाथ
धर्म संस्कृति श्रद्धा सबुरी, आदि परंपरा वाहक
जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत।।

गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, कल-कल आदि गोमती
सस्य-श्यामला, पुण्य धरा को, सूर्य किरण हैं चूमती
जन गण मन विश्वास अडिग है, कण-कण इसका पावन
प्रकृति के सब रंग समाहित, ऋतुएं सब मनभावन
इसकी ओर विश्व की नजरें, ज्यूँ तके वृष्टि को चातक
जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत।।

सुबह आरती शाम वंदना, सब भारत नाम पुकारें
वसुधैव कुटुंबकम का प्रण मन में, प्रति पल यही उचारें
वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, हैं ज्ञान ध्यान के दाता
शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता, जग कितना कुछ है पाता
विश्व रूप है, विश्व गुरु है, है विश्व शांति का द्योतक
जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत।।

कीर्ति पताका फहराई है, सोई सदियाँ जागीं
भेद-भाव, संताप मिटाया, समस्त वेदना भागी
ज्योति जला कर राष्ट्रवाद का, दिया धर्म को जीवन
सत्य शिवम है सत्य सुंदरम, उल्लासित सब अंतर्मन
शंखनाद है पांचजन्य का, है भारत विश्व उद्धारक
जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10अप्रैल, 2023

शायरी।

महफ़िल में तेरी कभी यूँ भी आयेंगे
हम न होंगे पर वो लम्हे गुनगुनायेंगे

साथ चल न सके जो जुदा हो गये
मोहब्बत के अब वो खुदा हो गये

रात भर चाँद से बात होती रही
तेरे ख्वाब ने मुझको न सोने दिया

कैसे मानूँ के मैं याद आता नहीं
इन आँखों ने कह दी कहानी सभी

मुझसे नजरें चुरा कर भले चल दिये
बस, आईना देखिएगा जरा सोच के

कुछ है बाकी निशानी मेरे प्यार की
बेसबब आईना तुमने चूमा न होता

रात भर हिचकियों ने सताया मुझे
और कहते हैं मैं याद आता नहीं

याद करना ही मोहब्बत की निशानी नहीं देव
भूल जाना भी मोहब्बत हुआ करती है

भूल जाना किसी को बड़ी बात नहीं है देव
फिर याद न आना बड़ी बात हुआ करती है

कौन कहता है कि अब हम उन्हें याद नहीं हैं
कमबख्त हिचकियाँ आज भी सोने नहीं देती

जिंदगी एक दिन तू भी ये मान लेगी
मेरी शख्शियत क्या है पहचान लेगी

हर पल मंजिलों पे नजर रखता हूँ
ऐ जिंदगी हर रोज सफ़र करता हूँ

खुद ही बोले खुद ही खफा हो गये
और कहते हैं हम बेवफा हो गये

अब तो तन्हाईयाँ भी सताती नहीं
तेरी रुसवाईयाँ रास आने लगीं

जिन्हें मेरी परछाइयाँ भी गँवारा नहीं
उम्र भर दुश्मनी क्या निभायेंगे वो

जीवन के अँधियारे में रोशनी की आस हैं दोस्त,
बेचैनियों में भी इस दिल के सबसे पास हैं दोस्त।
मुश्किल हालात में जब कुछ भी नहीं सूझता दिल को,
आँख का अश्रु, अधरों की हँसी, मौन जज्बात हैं दोस्त।

मन का जीवन।

मन का जीवन।  

आज कसौटी पर कितने ही
कटु शब्द ह्रदय चुभ जाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।

कर सज्ज हृदय के मौन सार
कर परिचय मूल्यों के अपार।
भावों में अनुशाषित जीवन
हर्षित, पुलकित, कुसमित उपवन।।
वर्षित प्रेम भाव रस संचित
हम उद्द्यम करते जाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।

थोड़ा खोना थोड़ा पाना
थोड़ा है थोड़े की जरूरत।
संचित कर सपनों की गागर
पृष्ठ उकेरी कितनी मूरत।।
कितने संचित स्वप्न हृदय के
पग-पग नव आस जगाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।

सुख-दुख जीवन के दो पहलू
एक आता एक जाता है।
हार-जीत की पकड़ से कहो
अब कौन भला बच पाता है।।
आस साँस के द्वार खड़ी जब
खुद से खुद को फुसलाते है।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2023


पुण्य पथिक।

पुण्य पथिक।  

जो पुण्य पंथ के राही हैं,
वो आस नहीं छोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

माना के धुंध घनेरी है,
औ रात अभी गहराई है।
माना के सूरज किरणों पे,
हल्की सी बदली छाई है।
रश्मिरथी, जो पुण्य पंथ के,
व्यवहार नहीं छोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

जो चले यहाँ बस जीत लिखे,
अवसादों में भी गीत लिखे।
रुँधे कंठ हो चाहे लेकिन,
जब लगे गले, मनमीत लिखे।
रिश्तों के मध्य, भँवर फँसकर,
वो तार नहीं तोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

कौन विश्व में ऐसा बोलो,
जिसका सर सबसे ऊँचा है।
सीना तान खड़ा पर्वत भी,
आकाश तले तो नीचा है।
जीवन में दंभ किया जिसने,
वो धार नहीं मोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

इक छोटी सी नदिया हमको,
बस बात यही समझाती है।
कुछ राहों के अवरोधों से,
क्या, डूब कहीं खो जाती है।
बढ़ना जिनकी फितरत में हो,
अटकाव, नहीं तोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       03अप्रैल, 2023





भाव अंतस के।

भाव अंतस के। 

न जाने क्यूँ वहाँ उम्मीद सारी टूट जाती है
लिखे जब भाव अंतस के कलम आँसू बहाती है।।

खिले जब फूल सपनों के नजारे गुनगुनाते हैं
इशारों ही इशारों में वहाँ अपना बनाते हैं
चमन में फूल, कलियाँ हैं नजारे हैं, बहारें हैं
मगर जब पास जाता हूँ नजारे रूठ जाते हैं
कुछ तो बात है ऐसी के पैहम टूट जाती है
लिखे जब भाव अंतस के कलम आँसू बहाती है।।

लिखे जो गीत थे अपने रचे जो साज थे अपने
सजे जब राग अधरों पर देखे नयनों ने सपने
मगर था दोष किस्मत का कहीं जो रागिनी टूटी
अधूरी ख्वाहिशों के बीच बिछड़े राह में अपने
है कुछ तो बात ऐसी कि तराने भूल जाती है
लिखे जब भाव अंतस के कलम आँसू बहाती है।।

समेटे दर्द गीतों में लिखे मन दीन दुनिया के
लिखे जो चोट मन खाये चुभे जो तीर दुनिया के
नहीं था दोष स्याही का नहीं था दोष पृष्ठों का
अधूरी चाह थी मन की अधूरे भाव दुनिया के 
कुछ तो बात है ऐसी के साँसें रूठ जाती हैं
लिखे जब भाव अंतस के कलम आँसू बहाती है।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         02अप्रैल,2023

खिड़की वाली सीट।

खिड़की वाली सीट।   

वो सीटी से सब कुछ कहना
वो झंडी का इशारा
यूँ लगा जैसे मुझे
मेरे बचपन ने पुकारा।
वो रेल का सुहाना सफर
और उसकी सुहानी यादें
कभी खत्म न होने वाली
वो प्यारी-प्यारी बातें।
खिड़की वाली सीट की चाहत
धूप में जैसे छाँव सी राहत
वो पेड़ों का दूर से पास आना
फिर तेजी से पीछे छूट जाना
उस एक पल में मन
कुछ खोता कुछ पाता है
न जाने क्या-क्या याद आता है।
वो खिड़की से आती हुई
उम्मीदों के झोंके
गुजरी यादों में ले जाती है
ठहरे हुए पेड़, चलता हुआ सूरज
जीवन का भेद समझाती हैं।
वो पटरियों पर दौड़ती जिंदगी
जिसका कोई छोर नहीं दिखता
खिड़की से तलाशती दो आँखें
सच ही तो है रेल की जिंदगी
आगे बढ़ती है जब 
कोई शोर नहीं दिखता।
हर बार हल्की सी मुस्कान
होठों पे लिए हम आते हैं
और कितने ही सपनों को
हम सपनों से मिलवाते हैं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01अप्रैल, 2023

फागुन के रंग।

🙏🌹होली की हार्दिक शुभकामनाएं🌹🙏

फागुन का रंग।

नयनन की भूल भुलइया में
पिय अइसन तुमरे खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

रात रात भर जागत हैं 
इन अँखियन में अब नींद नहीं
इक तुमरो संग सुहात इसे
दूजा अब कउनो मीत नहीं।

अंग लगा लो अब तो हमको
रंग में तुमरे खोय गयी।
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

यहि फागुन फाग रचो अइसन
मन मोहन मोय श्रृंगार करो
रँग जाऊँ तुमरे रंगन में
मोहे कछु अइसन प्यार करो।

अइसन रंग लगा हिय पर
सब रंगन को मैं खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मार्च, 2023

हो संभव साथी बन जाना।।

हो संभव साथी बन जाना।।

और नहीं कुछ चाहूँ तुमसे, मुझपर अहसान यही करना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

शांत अचेतन मन में जब तुम्हारे होने का भान उठे
सांध्य क्षितिज सिमटे आँचल में जब अपनेपन का गान उठे
शब्द सिमट अधरों पर आयें तब उनकी प्रति ध्वनि बन जाना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

सर्द रात जब चंदा सिमटे जब तारों के अरमान जगे
जब साँसों के मद्धम लौ पर अरमानों के मधुमास जगे
तब मेरे एकाकीपन में आकर नव दीप जला जाना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

जब पीड़ा की मौन तपिश में अंतर्मन ये उलझा जाये
मधु स्मृतियाँ जब स्वयं पथिक बन राहों में उलझी जायें
मधु स्मृतियों को पुष्पित कर दे वो नूतन पंथ सजा जाना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

जीवन की गोधूली में जब साँसों की डोरी मद्धम हो
धुँधली-धुँधली बेला में जब रिश्तों की डोरी मद्धम हो
तब रिश्तों की डोर थामना अरु नूतन राह दिखा जाना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मार्च, 2023

संग-संग जब हम गाएंगे।।

संग-संग जब हम गाएंगे।।

निज सपनों के पुण्य पंथ ये
सुरमित सुरभित हो जाएंगे
संग-संग जब हम गाएंगे।।

बाट जोहती इन पलकों को
सुख सपनों से मैं बाँधूँगा
उर में उपजे भाव सभी जो
गीतों में उनको साधुंगा
बादल की उजली किरणों से
सपने सारे सज जाएंगे।।

दिल ये अब तक रहा उपेक्षित
मन वीणा के मृदु तारों से
रहा अपरिचित जीवन अपना
वीणा के मृदु झंकारों से
गूँजेंगे सब भाव हृदय के
गीत अधर पर सज जाएंगे।।

आशाओं के पंथ सजा कर
अपने सपनों को साजेंगे
चंचल मन के भाव सुनहरे
साथ-साथ में हम साधेंगे
चंदा की किरणों से सजकर
स्वप्न लोक तक हम जाएंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मार्च, 2023


लम्हों का दर्द।

लम्हों का दर्द।  

कुछ शब्द गिरे थे उस दिन शायद क्या तुमको अहसास नहीं
कुछ मुझसे छूटे कुछ तुमसे शायद वो लम्हे अब भी पास वहीं
गिरे वहीं पर सपने शायद जब नींद बहुत ही गहरी थी
दोनों के हाथों से गिरकर एक उम्मीद वहीं कहीं ठहरी थी
शब्दों का क्या है कब बिगड़े और कभी फिर बन जाये
घाव कभी देते हैं गहरे और कभी मलहम बन जाये
जब परदेसी हवा चली मौसम का रुख तब बदल गया
जो वक्त हाथ में ठहरा लगता लम्हों में ही फिसल गया
पलकों में कुछ अश्रु ठहर कर चौखट को यूँ देख रहे
मौन सिसकती आवाजों में अपनेपन को खोज रहे
जाने थी वो कौन घड़ी जब मन से मन का मान गिरा
औरों की बातों में आकर खुद अपना सम्मान गिरा
एक कोख के रिश्तों पर कुछ शब्द किसी के भारी क्यूँ
लम्हों के कुछ दोषों से ये सदियाँ हरदम हारी क्यूँ
उगता सूरज रोज निकलता साँझ ढले छिप जाता है
जाते-जाते जीवन के वो कुछ सीख हमें दे जाता है
रात अँधेरी भले घनेरी लेकिन कितनी देर रही है
खिली किरण जब पुनः भोर की रातें कितनी देर रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मार्च, 2023

जीवन पथ से नाता।

जीवन पथ से नाता।  

सुख के कभी पुष्प खिलते हैं
कभी दुखों के अँधियारे
पथ जीवन का शीतल लगता
कभी लगे ये अंगारे
सुख-दुख जीवन के दो पहलू
इक आता इक जाता है
जीवन कब ये रहा अछूता
इनसे सबका नाता है।।

कभी बिना माँगे मिल जाता
कभी चाहतें दूर हुईं
कभी आस चौखट पर आई
कभी स्वयं ही दूर हुई
कभी खिली उम्मीदें सारी
जिनमें मन हँसता गाता
है शिथिल कभी गतिशील कभी
जीवन यूँ बीता जाता।।

कभी अधर पर गीत सुनहरे
कभी आह के सुर सजते
कभी विरह के गीत सताते
कभी प्रेम के सुर सजते
बिछड़ गया जो कभी मिलेगा
मन खोता, मन फिर पाता
नहीं सफर ये रहा अकेला
इससे सबका है नाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मार्च, 2023




मुक्तक- सलीका, प्रतिकीर्ति

मुक्तक- सलीका, प्रतिकीर्ति

कहूँ कैसे के दर्द-ए-गम यहाँ कैसे भुलाया है
कभी गीतों में गजलों में कभी छंदों में गाया है।
बहुत एहसान उन जख्मों का जिनमें जिंदगी रोई
सलीका जिन्दगी जीने का तब जाकर के आया है।।

बहुत मुश्किल नहीं है कि मैं लहरों से उलझ जाऊँ
लिखूँ मैं भाव खुद के और खुद में ही सुलझ जाऊँ।
है प्रतिकीर्ति, जो गढ़ता हूँ मन के भाव पृष्ठों पे
इशारा हो मचल जाऊँ इशारा हो सँभल जाऊँ।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         24 मार्च, 2023

रीत को गिरने न देंगे।।

 रीत को गिरने न देंगे।।

आधुनिकता की लहर में बह चले चाहे किनारे
किन्तु भावों के समर में रीत को गिरने न देंगे।।

मन के भावों को कहे जो शब्द वो प्रवाहमय है
आस का अहसास है वो गान का निर्झर निलय है
तान मुरली की मधुर है रास है संगीत है वो
भावों की अभिव्यक्ति है प्रीत का अनुपम विलय है
शब्द के संसार से अनुगीत को गिरने न देंगे
आज भावों के समर में रीत को गिरने न देंगे।।

पंछियों ने तान देकर गीत का आँगन सजाया
आज ऋतुओं ने मचलकर प्रीत का मधुगीत गाया
वेदनायें मिट गईं सब अवसाद के बादल छँटे
शब्द का सानिध्य पाकर मौन ने मधुमास गाया
मौन मन के भाव से मधुगीत को गिरने न देंगे
आज भावों के समर में रीत को गिरने न देंगे।।

गीत मन के भाव सारे और जीवन आचरण हैं
सत्य हैं सौंदर्य हैं ये संहिता के अवतरण हैं
गीत हैं ये वेद मन के कल्पनाएं उपनिषद हैं
पंक्ति बन जो सज रहे हैं गीत जीवन का वरण हैं
मुक्त हों श्रृंगार चाहें गीत को गिरने न देंगे
आज भावों के समर में रीत को गिरने न देंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23मार्च, 2023

गीत हो छंद हो या गजल हो कोई, मिले जब समय गुनगुना लीजिए।।



मन के भाव।

गीत हो छंद हो या गजल हो कोई, मिले जब समय गुनगुना लीजिए
भाव को रोकना जब मुनासिब न हो, भाव मन के अपने बता दीजिए
न रुका है समय न रुकेगा कभी, मन में जो कुछ दबी हो जता दीजिए।।

कहने को बात कितनी है कैसे कहें , कुछ तो सलीका बता दीजिए
आये मन पास कैसे सजन आपके , मुझे अपने दिल का पता दीजिए
हर खता आपकी है स्वीकार अब , नई फिर से कोई खता कीजिए।।

प्रतीक्षा के पल और कब तक रहें , नजर से नजर को छुआ कीजिए
रहें और कब तक अकेले यूँ ही, ले के करवट मुझे अब बता दीजिए
दीदार-ए-दिल जब खता कुछ नहीं , तो दिल को बता कर दुआ कीजिये।।

गीत हो छंद हो या गजल हो कोई, मिले जब समय गुनगुना लीजिए।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        22मार्च, 2023


भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

अपने मन में प्रेम की तू कश्तियाँ उतार ले
चार पल की जिन्दगी है हँस के तू गुजार ले
कौन जाने कंठ में कब शब्द का घट शून्य हो
शब्द के प्रवाह में खुद को पार तू उतार ले
भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

ले आये क्या यहाँ जो छूटने का गम तुम्हें
क्या रहा यहाँ हमेशा टूटने का गम तुम्हें
कौन जाने कब भरे कब अंक जाने शून्य हो
इस शून्य के प्रभाव में खुद स्वयं को विचार ले
भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

कब जाने छोड़ दे कहाँ जिंदगी ये साथ भी
छूट कर बिछड़ न जाये राहों में कहीं कोई
हँस रही है जो नजर न जाने कब वो शून्य हो
मौन मन नहीं रहे फिर साँसों में श्रृंगार ले
भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       21मार्च, 2023

चाँद पकड़ कर ले आता।

चाँद पकड़ कर ले आता।  

यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

काश कभी चंदा के रथ तक मेरे हाथ पहुँच पाते
काश सितारों के आँगन तक मेरे सपने जा पाते
काश पलक कोरों को सुख सपनों से नहला पाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

लिखता मन के गीत सुनहरे भावों को जो सुख देतीं
ऐसे शब्द पिरोता उनमें सारे दुख जो हर लेती
शब्दों के गुलशन से कलियाँ चुनता मन को बहलाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

जुगनू से बातें करता तारों से मैं पंथ सजाता
रात अँधेरी चौखट पर उम्मीदों के दीप जलाता
जिन पलकों के सपने वंचित उन पलकों को सहलाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

दूध भात की एक कटोरी दादी-नानी का आँचल
एक निवाला हाथों से खाने को मन अब भी पागल
तुतलाती बोली जब सुनता तारों का मन ललचाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

इक-इक पल से मोती चुनता गुहता यादों की माला
रखता उनको कहीं छुपाकर मन के बीच बना आला
सपने नयन द्वार जब आते माला उनको पहनाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15मार्च, 2023

अर्पित करने आया हूँ।

अर्पित करने आया हूँ।  

शब्दों के गुलशन से चुनकर कोमल कलियाँ लाया हूँ
गीतों में कुछ पुष्प सजाकर अर्पित करने आया हूँ।।

नहीं पास है सोना चाँदी धन दौलत की चाह नहीं
कल क्या होगा किसने जाना मुझको भी परवाह नहीं
वर्तमान से मिला मुझे जो पूजित करने आया हूँ
गीतों में कुछ पुष्प सजाकर अर्पित करने आया हूँ।।

दुनियादारी बोध नहीं है बीते का अफसोस नहीं
अच्छे का नतमस्तक हूँ मैं बुरा किसी का दोष नहीं
जग से कितना कुछ पाया है अर्हित करने आया हूँ
गीतों में कुछ पुष्प सजाकर अर्पित करने आया हूँ।।

लिखे गीत जो मन को भाये जिसने पग-पग बहलाया
पीड़ा के आवेगों में भी जिसने मन को सहलाया
उन्हीं पँक्ति के आदर्शों को अर्चित करने आया हूँ
गीतों में कुछ पुष्प सजाकर अर्पित करने आया हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15मार्च, 2023

कुछ नूतन कर जाओ।

कुछ नूतन कर जाओ।  

रीत पुरानी बहुत हुई नई रीत के पंथ बनाओ
युग नई दिशाएं पाये ऐसा कुछ नूतन कर जाओ।।

मिले प्रेरणा इस जग को पुण्य पंथ की ओर चरण हो
मुक्त हृदय, भाव प्रवण हो नव गीतों का आज वरण हो
जीवन के सब पंथ सजे काँटों में भी पुष्प खिलाओ
युग नई दिशाएं पाये ऐसा कुछ नूतन कर जाओ।।

बीता पीछे छूट गया आने वाला वक्त नया है
हर युग की नई कहानी पीछे बोलो कौन गया है
नई कहानी नए राग में इस जग को आज सुनाओ
युग नई दिशाएं पाये ऐसा कुछ नूतन कर जाओ।।

अज्ञानी का तर्क सर्वदा अंतस को दुख देता है
तर्क ज्ञान का मिले जहाँ पर भावों को सुख देता है
ज्ञान श्रेष्ठ संपत्ति जगत में अपने गीतों में गाओ
युग नई दिशाएं पाये ऐसा कुछ नूतन कर जाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15मार्च, 2023

पंखुरी गुलाब की सुन तो क्या कह रही।।

पंखुरी गुलाब की सुन तो क्या कह रही।।

प्रेम की छुअन है या गीत कोई गा रहा
मौन मन के भाव को राग में सुना रहा
खिलखिला उठे सभी भाव आज प्यार के
पल विरह के बने भाव अब श्रृंगार के
चाहतों की बात कुछ सुन जरा कह रही
पंखुरी गुलाब की सुन तो क्या कह रही।।

चाँदनी की रश्मियाँ देखो गुनगुना रहीं
जो रुकी बात थी पल में सब सुना रही
रात ने भी रागिनी को मधुर साज दी
तारों ने जुगनू में रश्मियाँ साज दी
रात की रश्मियाँ सुन जरा कुछ कह रहीं
पंखुरी गुलाब की सुन तो क्या कह रही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मार्च, 2023

मन की बातें।

 मन की बातें।  

आदि गोमती तट पर जन्मा गंगा तट पर पला बढ़ा
पृष्ठों पर कुछ भाव सजा अपने मन की कह लेता हूँ।।

मर्यादा की खड़ी लकीरें मेरे मन को भाती हैं
अवध धाम की सोंधी खुशबू छन-छन जिनसे आती है
आदि संस्कृति का मैं पूजक नीति धर्म का पालक हूँ
माँ गंगा की गोद पल रहा मैं नन्हा सा बालक हूँ।।

अवध निवासी भक्त राम का हँसता हूँ कह लेता हूँ
पृष्ठों पर कुछ भाव सजा अपने मन की कह लेता हूँ।।

काशी की गलियों में बीता बचपन यौवन यहीं खिला
शिक्षा संस्कृति और सभ्यता संस्कारों का संग मिला
जिसने दिया ज्ञान को जीवन जिसकी माटी है चंदन
देव, दैत्य औ गन्धर्वों की वाणी में जिसका वंदन।।

उसी सभ्यता नगरी की धूल माथ मैं रख लेता हूँ
पृष्ठों पर कुछ भाव सजा अपने मन की कह लेता हूँ।।

लिखे भाव जो मन को भाए जिसने मन को मान दिया
कंटक हो या पुष्प पंथ के सबको है सम्मान दिया
नहीं चाहता हूँ जग से केवल अपने मन की पाऊँ
लिखूँ भाव सब जन मानस के गीतों में उसको गाऊँ।।

शब्दों के कुछ पुष्प उठा श्रेष्ठ चरण में रख देता हूँ
पृष्ठों पर कुछ भाव सजा अपने मन की कह लेता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13मार्च, 2023

होली-जोगीरा सारा रा रा.. ।।

जोगीरा सारा रा रा.. ।।

दूर देश में जाइके करें देश के बात
राहुल जी के देश में देत न केहू साथ
जोगीरा सारा रा रा...।।

भारत जोड़न को चले लिए हाथ में हाथ
लेकिन उपचुनाव में मिलल ने केहू साथ
जोगीरा सारा रा रा..।।

माया चुप है, राहुल बोलें, लालू जी हैं दंग
बाबा जी के राज में न मिला किसी का संग
जोगीरा सारा रा रा..।।

दिल्ली की कुर्सी मिले मची हुई है जंग
सबके अपने स्वार्थ हैं आये न कोई संग
जोगीरा सारा रा रा...।।

ममता दंग बंगाल में यूपी में अखिलेश
आएं कैसे साथ में सबक मन में क्लेश
जोगीरा सारा रा रा...।।

होली के त्यौहार की मची हुई हुड़दंग
नेता जी को देख कर शर्माए खुद व्यंग्य
जोगीरा सारा रा रा..।।

बाबा जी के राज में हुआ विपक्ष नाकाम
भगवा रंग सब पर चढ़ा बोलो जय श्री राम
जोगीरा सारा रा रा..।।

खिला कमल चहुँओर है आया भारत संग
पंजा, झाड़ू, साइकिल, सबकी हालत तंग
जोगीरा सारा रा रा..।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

इस बार करो कुछ होली में।

इस बार करो कुछ होली में।  

मन को मन की चाह जगे इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

नयनों में सूनापन लेकर दूर कहाँ तक जाओगे
खुद से जितना दूर चलोगे उतना खुद को पाओगे
खुद से खुद ही मिल जाये इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

ऊंच नीच का भेद रहे न मन में कोई खेद रहे न
मन से मन यूँ मिल जाये फिर कोई मनभेद रहे न
मन से मन का मेल मिले इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

टूटी सरगम जुड़ जाये बिखरे सारे साज मिला दो
दूर ठहरती आवाजों में फिर अपनी आवाज मिला दो
नहीं अकेला रहे हृदय इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

झूठे वादे झूठी कसमें झूठी शानो शौकत बस
झूठे भाषण झूठे राशन जन गण मन से घातें बस
टूटे भरम जाल सारे इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

कितनी दूर अभी तक आये कितनी दूर अभी जाना
कहीं ख्वाहिशों के मेले औ सपनों का ताना-बाना
पलकों पे फिर स्वप्न सजे इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

गीत गजल कवितायें कितनी कितने लिखे  छंद दोहे
सतरंगी जब भाव हृदय के पंक्ति-पंक्ति मन को मोहे
मन के सब अवसाद मिटे इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मार्च, 2023

मुक्तक।



यहाँ हर बार जीवन ने लिखी सबकी कहानी है।
किसी की याद में ठहरी किसी की मय जुबानी है।।
लिखे कुछ भाव जीवन ने मेरे हिस्से में ऐसे।
कि बन कर गीत कुछ छाये कुछ आंखों का पानी है।।

किसी से है नहीं शिकवा नहीं कोई शिकायत है।
जमाने की यही शायद पुरानी ही रवायत है।।
भरोसा हो जहाँ ज्यादा वहीं पर दर्द ज्यादा है।
कि कुछ तो बात है ऐसी सभी में ये अदावत है।।

मैं क्या करूँगा।

मैं क्या करूँगा।   

है मिला जग से बहुत कुछ
प्यार भी सत्कार भी
और शब्दों से खिला है
गीत का संसार भी
पर गीत जो गा न पाए
गीत का क्या करूँगा
तुम हमारे हो न पाए
जग मिले क्या करूँगा।।

हैं लोग कहते शब्द में
है छुपा संसार भी
भाव जिस हिय में बसा हो
है वहीं पर प्यार भी
जक हृदय के भाव शंकित
मैं वहाँ क्या करूँगा
तुम हमारे हो न पाए
जग मिले क्या करूँगा।।

वक्त की पाबंदियों से
तुम घिरे हम भी घिरे
वक्त के आगोश से ये
पल न जाने कब गिरे
लम्हा छूटा हाथों से
शोक कर क्या करूँगा
तुम हमारे हो न पाए
जग मिले क्या करूँगा।।

है कहीं कुछ रोकता है
नैन के मृदु कोर को
गिर न जाये मौन होकर
बूँद बंधन तोड़ कर
आस में जब तक रहोगे
मैं न साँसें तजूँगा
दूर पर तुमसे हुआ तो
जग मिले क्या करूँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

कैसे कह दूँ मन को अब भी चाह नहीं है।

कैसे कह दूँ मन को अब भी चाह नहीं है।  

दूर हुए थे जिन गलियों से उन गलियों ने पुनः पुकारा
कैसे कह दूँ उन राहों को अब भी मन की चाह नहीं है।।

कहने को कितनी ही बातें
पलकों में अलसाई रातें
अधरों की मृदु पाँखुरियों पे
मृदुल हास्य की वो सौगातें
रक्त कपोलों के डिम्पल में दिल कल डूबा अब भी हारा
कैसे कह दूँ उन सपनों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

दूर क्षितिज पर मन का मिलना
कदम मिलाकर पग-पग चलना
कहना सुनना कितनी बातें
फिर कहने को और मचलना
दूर गगन की छाँव तले जब सांध्य-निशा का पंथ बुहारा
कैसे कह दूँ पुनर्मिलन की अब भी मन को चाह नहीं है।।

वीथी पे कुछ याद पुरानी
भूली बिसरी एक कहानी
कुछ साँसों में बसे अभी तक
और बहे कुछ बन कर पानी
कहीं दूर अंतर्मन पिघला यादों ने है पुनः पुकारा
कैसे कह दूँ उन यादों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

वहीं दूर पर भोर सुहानी
खुशियों का अंबार लिए है
रातों की सिलवट की खातिर
पुष्पच्छादित हार लिए है
उसी भाव के अपनेपन ने मधु गीतों को दिया सहारा
कैसे कह दूँ उन गीतों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2023

है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।।

भेंट कर अपनी जवानी उम्र को जीवन दिया,
पुष्प राहों में बिछा कर कंटकों को चुन लिया।
है हमें जिसने दिखाया भोर की पहली किरण,
अंक में जिसने हमारे हैं भरे सुंदर सुमन।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ बलिदानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

हैं सँवारे स्वप्न जिसने हर सिसकती आह में,
और तन को है सँवारा हर दहकती आग में।
जिनके जज्बों ने दिखाया दर्द को भी रास्ता,
जिनके मन में राष्ट्र से बस प्रेम का था वास्ता।

है नमन उस अंक को जिस अंक बलिदानी पले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

जिसने मृत्यू से सदा पूछा क्या उसका पता,
मृत्यू खुद सम्मुख रही जिसके नतमस्तक सदा।
दौड़ता जिनकी नसों में राष्ट्र का अभिमान था,
और जिनके नैन में नव स्वप्न का निर्माण था।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ अभिमानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

है दिया जिसने हमेशा मंत्र केवल जीत का,
राष्ट्र को जिसने सिखाया मंत्र सबसे प्रीत का।
साँस में जिनकी हमेशा राष्ट्र का गुणगान था,
राष्ट्र ही अभिमान था बस राष्ट्र ही सम्मान था।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ सम्मानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी, 2023
 

कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।


जीवन के कुछ प्रतिमानों के नए-नए नित अनुमानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

कुछ में मन के मीत लिखे हैं
कुछ में मन क्यूँ हुए पराए
कुछ में छूटा संग किसी का
कुछ में मन ने जो अपनाए
जीवन में कुछ व्यवधानों के नए-नए नित प्रतिमानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

सावन में बूँदों को गाया
पतझड़ में पातों को हमने
कुछ में है खुशियों को गाया 
तो कुछ में घातों को हमने
कभी मिले कुछ अपमानों के और कभी कुछ सम्मानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

शब्दों से कुछ शब्द निकाले
और समय से कुछ पल हमने
आये जितने प्रश्न उभरकर
उनसे ही ले कर हल हमने
मन के सारे अरमानों के साँझ ढले कुछ अवसानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26फरवरी, 2023

तुम मन के द्वारे आये हो।

तुम मन के द्वारे आये हो।  

सुप्त हो चलीं जब-जब स्मृतियाँ ये मन भटका अँधियारों में
तब यादों का लिए पिटारा तुम मन के द्वारे आये हो।

किन सपनों ने मुझे डुबोया किन सपनों ने दिया सहारा
किसमें जीता किसमें हारा मुझको कुछ मालूम नहीं था
पल दो पल का साथ मिला था या जनमों का संग हमारा
कितना समय हमारा रहता मुझको कुछ मालूम नहीं था
गरल सिक्त की पीड़ाओं में मन जब मूर्छित हुआ जा रहा
तब अमृत का लिए पिटारा तुम मन के द्वारे आये हो।।

जब सर्पीले स्वप्न पलक के कोरों में कुछ चुभे जा रहे
आशाओं के पंख झुलसकर कहीं बदन में छुपे जा रहे
लगे दोष माथे पर सारे मन को जिसका भान नहीं था
पुष्प बिछा काँटों पर सोना ऐसा भी अनुमान नहीं था
विरह वेदना शापित नख से मन जब छलनी हुआ जा रहा
तब मधुगंधों का कोष लिये तुम मन के द्वारे आये हो।।

कितने देहरी कितने चौखट और कितनी हैं सीमाएं
हर जीवन की अपनी रेखा है सबकी अपनी परिभाषाएं
लक्ष्मण रेखा जब-जब खींची सब रिश्ते नाते रूठ गये
समय ने ऐसे लाँघी देहरी बंधन बाँधे छूट गए
एकाकी का घाव लिए जब सांध्य क्षितिज में छुपा जा रहा
तब अनुबंधों की संधि लिए तुम मन के द्वारे आये हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23फरवरी, 2023

एक गीत मुझको दे सके न।

एक गीत मुझको दे सके न। 

एक तुमसे गीत जीवन का था कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के एक गीत मुझको दे सके न।।

थी बड़ी लंबी डगर और रास्ते भी थे हजारों
पर उभरते प्रश्न मन के रोकते थे राह मेरे
चाहता था मन यही इक बार तुमको फिर पुकारुँ
पर अधूरे शब्द कुछ थे चुभ रहे थे कंठ मेरे
एक तुमसे शब्द जीवन का था कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के एक शब्द मुझको दे सके न।।

अंजुरी थी रिक्त लेकिन पुष्प तुमको सौंपना था
दूर राहें हो न जायें एक पल को रोकना था
रोक पर मैं न पाया आवाज थी कितनी लगाई
पर रुँधे थे शब्द शायद दे न पाये जो सुनाई
आस के कुछ पल वहाँ पर हमने कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के इक पल भी मुझको दे सके न।।

एक अंतिम भेंट की उम्मीद पग बाँधे हुए थी
इसलिए नजरें अभी तक द्वार पर ठहरी हुई हैं
भोर की उम्मीद मन में रात भी बाँधे हुए थी
इसलिए कुछ चाँदनी की रश्मियाँ पसरी हुई हैं
बस यही उम्मीद लेकर ये रात थी जागी मगर
है यही अफसोस एक उम्मीद भी तुम दे सके न।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21फरवरी, 2023



तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

कितनी बार द्वार पर देखा हमने सबसे नजर छुपाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

आस पास जितने घेरे थे सबमें कुछ तो बहस छिड़ी थी
घूर रहीं थीं कितनी नजरें कितनी नजरें झुकी पड़ी थीं
कुछ में था अफसोस उमड़ता कुछ में थोड़ा सा अपनापन
कुछ नजरों में आस भरी थी कुछ नजरों में था सूनापन
कितनी बार द्वार पर देखा हमने सबसे नजर बचाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

हमने कितने व्योम उड़ाए सपनों के निज आसमान में
मन ने भी थे राह सुझाये मन को मिलन के अनुमान के
अभिलाषित भी हुआ हृदय ये झुरमुट से जब चाँद खिला था
तारों ने भी राह सजाई जुगनू को सम्मान मिला था
मन ने कितनी बार पुकारा मन को मन ही मन अकुलाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

जितनी बार जलाये हमने दीपक मन के अँधियारों में
उतनी बार हुई है खंडित बाती मन के गलियारों में
फिर भी हमने मन को अपने बार-बार जितना समझाया
मन को सब कुछ रहा विदित पर चाहा लेकिन समझ न पाया
बिखरे मन को जोड़ रहा था तेरी आहट से बहलाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

मुझे पता है तुम आओगी सांध्य ढले जब थक जाओगी
माथे पर कुछ खड़ी लकीरें लिए दूर तक क्या जाओगी
शायद मैं फिर रहूँ ना रहूँ गीत हमारे पर गाओगी
पलकों से बस नीर बहेंगे चाह के भी न सो पाओगी
कितनी बार जताना चाहा मन ने गीतों में गा गाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19फरवरी, 2023

धुँधले अक्षर उन पन्नों के।

धुँधले अक्षर उन पन्नों के।  

आज वीथियों पर यादों के मुड़े-तुड़े कुछ पन्ने देखा
धुँधले अक्षर उन पन्नों के सुना रहे थे कोई कहानी।।

हाथ लगाया उस पन्ने को जमी धूल को जैसे झाड़ा
उभर के अक्षर नैन में चुभे जैसे तैसे उसे सँभाला
रुँधे कंठ से सारे बोले बतलाओ क्या दोष हमारा
समय जो लिखा नाम पटल पर हमने तो बस उसे पुकारा

माथे की रेखायें उभरी अंतस भी बोला अकुलाकर
कितनी रहीं अधूरी बातें साँसों को है जिसे सुनानी

कुछ ने मन का द्वार खँगाला औ कुछ ने मन का वातायन
कुछ ने मन को दुत्कारा है औ मन का कुछ ने अभिवादन
छपे प्रेरणा बन नयनों में कुछ में थोड़ी नींद रह गई
एक पृष्ठ में कितनी बातें कुछ धुँधली उम्मीद रह गईं

उम्मीदों को दिया सहारा कुछ सूने मन को समझाकर 
कुछ धुँधली बातें खिल आयीं कुछ बातें रह गईं बतानी

कुछ अक्षर इतने धुँधले थे जो नयनों को दिख नहीं पाये
कुछ की साँसें घुटी-घुटी थी मन की बात नहीं कह पाये
कुछ उमड़े अधरों को छूकर कुछ ने आँखों को फुसलाया
कुछ ने मन को राह दिखाई कुछ ने मन को फिर बहलाया

कुछ आँसू का रूप धर लिये गिरे बूँद नयनों से बहकर
कुछ माटी में कहीं खो गये कुछ की बाकी रही निशानी

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18फरवरी, 2023

हनुमान चालीसा- देहु भक्ति का दान।

हनुमान चालीसा- देहु भक्ति का दान।  

मन में सुमिरन कीजिये, सदा नाम हनुमान।
स्वास्थ्य सुख समृद्धि बढ़े, बनते बिगड़े काम।।

जय जय जय हनुमान पुकारें।
कष्ट मिटे जीवन उद्धारे।।1।।

जिनके मन में बसे प्रभु राम,
उनके कष्ट हरें ये तमाम।।2।।

तन सिंदूरी लाल लँगोटी।
इनकी कृपा सबहि पर होती।।3।।

कलयुग के प्रभु एक अधारा।
जीवन के सब संकट टारा।।4।।

अंग वज्र है काँध जनेऊ।
सबपर कृपा न कछु संदेहू।।5।।

हाथ गदा है भाव कृपालू।
प्रभु से बड़ा न कोय दयालू।।6।।

शंकर सुवन केशरी नंदन।
कोटि कोटि है प्रभु अभिनंदन।।7।।

वेद पुराण उपनिषद ज्ञाता।
तुम्हरी शिक्षा जग विख्याता।।8।।

मंगलवार धरा पर आए।
सबका मंगल करते जाए।।9।।

भिन्न-भिन्न धरि रूप दिखाए।
दुर्गम काज सब सुगम बनाए।।10।।

सियाराम के तुम रखवारे।
हम भी आये प्रभु के द्वारे।।11।।

हमको अपनी भक्ति दीजिए।
इतनी कृपा हमपर कीजिए।।12।।

अतुलित बल है बुद्धि विशाला।
सकल जगत के प्रभु रखवाला।।13।।

संकट मोचन अंतर्यामी।
हम सबके प्रभु तुम हो स्वामी।।14।।

भक्त पियारे राम दुलारे।
सबके मन के काज सँवारे।।15।।

जो भी द्वार तिहारे आता।
बिन माँगे वो सब फल पाता।।16।।

सच्चे मन से जो भी आवे।
मनचाहा वो सब फल पावे।।17।।

तुम्हरी कृपा जिन पर होई।
बड़हि विवेक ज्ञान सुख होई।।18।।

जिनपर होए सत्य सनेहू।
पूरन काज न कछु संदेहू।।19।।

हम याचक हैं प्रभु तुम दाता।
तुम ही हो प्रभु भाग्य विधाता।।20।।

हम अग्यानी बालक तेरे।
दूर करो प्रभु सकल अँधेरे।।21।।

ज्ञान ध्यान का दीप जलाओ।
जग के सब अँधियार मिटाओ।।22।।

तुम्हरे भजन जे मन गाँवहि।
मनचाहा जीवन फल पाँवहि।।23।।

तुम हो जग के कष्ट निवारक।
प्रभु तुम दुख दरिद्र के नाशक।।24।।

रघुपति के सब कष्ट निवारे।
मैं भी आया द्वार तिहारे।।25।।

मुझ पर भी अब दृष्टि करो प्रभु।
मेरे भी सब कष्ट हरो प्रभु।।26।।

तुम हो सत्य जगत ये झूठा।
तुमसा और नहीं है दूजा।।27।।

तुमको भजे ज्ञान वो पावे।
जीवन में सुख समृद्धि आवे।।28।।

तुम्हरी शरण जे भी आवे।
रोग व्याधि से मुक्ती पावे।।29।।

जिन पर अपनी किरपा दीन्हा।
उनकर सबहिं कष्ट हर लीन्हा।।30।।

जे भी राम नाम को गावे।
तुमसे प्रतिपल किरपा पावे।।31।।

तुम ही हो प्रभु के रखवाले।
सकल कष्ट को हरने वाले।।32।।

हम अनपढ़ नादान बड़े हैं।
द्वार तिहारे आन खड़े हैं।।33।।

हमको भी प्रभु बुद्धि दीजिए।
अवगुण सभी प्रभु हर लीजिए।।34।।

यहिं जीवन को तुम ही तारो।
भवसागर से पार उतारो।।35।।

भटक रहा मन कौन सहारा।
तुम ही प्रभु बस एक अधारा।।36।।

सूझ रहा नहिं अब पथ कोई।
तुम्हरे सिवा नहिं है कोई।।37।।

तुम्हरे सिवा और न जानूँ।
तुमको ही मैं सबकुछ मानूँ।।38।।

करहुँ कृपा हमपर भी दाता।
तुम्हरे चरण नवाहुँ माथा।।39।।

तुम्हरी कृपा जिन पर होई।
सकल काज सम्पूरण होई।।40।।

घट-घट में प्रभु व्याप्त हो, तुम ही एक महान।
हमरी ये विनती सुनो, देहु भक्ति का दान।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16फरवरी, 2023




एक किनारा।

एक किनारा।  

मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा
कभी मिलेगा साहिल इसको कहीं मिलेगा इसे सहारा।।

जीवन के हर पथ पर कितने
स्वप्न खड़े हैं हाथ पसारे
कुछ नयनों में आन बसे हैं
कुछ पलकों को करे इशारे
कुछ बूँदों में बहे बिखर कर कुछ ने आकर इसे सँवारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

जग में कितने मेले सारे
कब जाने मन किसमें हारे
किसमें जाने क्या मिल जाये
किसमें जाने कौन पुकारे
जग के इस मेले में जाने क्या लग जाये मन को प्यारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

दूर क्षितिज पर सूर्य ढल रहा
धरती से आकाश मिल रहा
सांध्य पलों में जीवन में अब
मन से मन को मौन पल रहा
देर रात धीरे से आकर सिमटा लेती है जग सारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13फरवरी, 2023

एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

वही डगर है जहाँ कभी हम
छोड़ चले थे बचपन अपना
इसी राह पर चलते-चलते
टूटा था जो देखा सपना
थी सपनों की रात सुहानी जाग रही थी रैन तरसते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

कहीं कसक थी मन के भीतर
धड़क रही थी जो धड़कन में
रही सुलगती प्यास हृदय की
आशाएं मन की सावन में
बूँदें झर-झर रहीं बरसते प्यासा मन पर रहा तड़पते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

हाथों की रेखाओं में भी 
जाने कैसी जंग छिड़ी थी
लिए लेखनी वक्त खड़ा था
मगर वक्त की किसे पड़ी थी
किया बेरुखी वक्त से हृदय देख रहा मन उसे बिखरते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

आज शून्य में विचर रहा है 
सिमट गईं सब आहें मन की
सन्नाटे में बिखर रहा मन 
बिछड़ रहीं अब साँसें तन की
हाय कहूँ क्या दूर हुए क्यूँ प्रेम डगर पर चलते-चलते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11फरवरी, 2023

श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

वसुधैव कुटुंबकम के पोषक जग को राह दिखाने वाले
ऊंच-नीच का भेद छोड़ कर हम सबको अपनाने वाले
त्याग धर्म है मूल हमारा हम कुरुक्षेत्र के नायक हैं
रामायण के अनुगामी हैं औ हम गीता के गायक हैं

हम धीर धरा सा रखते हैं औ हम संयम के पाले हैं
कैसी भी बाधाएं आये हम नहीं बिखरने वाले हैं
जीवन पथ की बाधाओं को हँस-हँस कर झेला करते है
कुरुक्षेत्र के रणभूमि में भी हम अरि से खेला करते हैं

अपने सम्मुख जो भी आया हम हँस कर गले लगाते हैं
धर्म-जाति से ऊपर उठकर हम तो सबको अपनाते हैं
नहीं किसी से बैर मानते हम सबसे मिलकर रहते हैं
शरणागत पर वार कभी हो हम आगे बढ़कर सहते हैं

सत्य सनातन मूल मंत्र है पहले हँसकर समझाते है 
कुरु वंश के दरबारों में हम देवदूत बन जाते हैं
अनुचित वारों प्रतिकारों को इक हद तक ही हम सहते हैं
नीति नियम के पालन करते हम मर्यादा में रहते हैं

शास्त्र हमारे दिल में रहता हम शस्त्र हाथ में रखते हैं
हम अमृत के पोषक हैं पर बन नीलकंठ विष चखते हैं
हम मुरली की तान छेड़ते पर नाग नाथना आता हैं
सागर की उच्छृंखल लहरों पर सेतु बाँधना आता है

हम गोपालक हम मनमौजी पर चक्र सुदर्शन धारी हैं
जब-जब विपदा पड़ी धरा पर हमने ही धरती तारी है
हम गीता के अनुयायी हैं हम पहला वार नहीं करते
लेकिन दुश्मन बात समझ ले हम दूजा वार नहीं सहते

साधु संत ऋषियों मुनियों से हमने तो जीना सीखा है
अपने धर्म ग्रन्थ से हमने ये जीवन जीना सीखा है
रामायण के अनुगामी हैं औ हम गीता के गायक हैं
श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10फरवरी, 2023

कौन है जो इस निशा में लिख रहा है गीत सुंदर।।

कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

रूप की कैसी छटा है 
चाँदनी शरमा रही है
रात भी अपने सफर में
स्वयं ही भरमा रही है
ये पौन मद्धम मनचली
बह रही क्यूँ आज रुककर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

नैन ये किसके यहाँ पर
कर रहे हैं छेड़खानी
कौन है जिसने सिखाया
मौसमों को बेइमानी
हर रहे है भाव मन के
गीत ये किसके निखरकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

रश्मियाँ भी देखती है
रूप सुंदर आज छुपकर
लग रहा जैसे घुला हो
चाँदनी में आज केसर
आज मेघों की घटाएं
झर रही हैं नेह बनकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

द्वार पर है रात ठहरी
सौम्य मन की आस लेकर
आँजुरी में पुष्प भर कर
अंक में मधुमास लेकर
लग रहा है स्वयं रतिपति
दे रहे हों छंद चुनकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2023

जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

कितने सपने सिमट रहे हैं दीप तले अँधियारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

भूख कहीं है कहीं गरीबी और कहीं मारामारी
दूर खड़ी हो राह देखती बंद द्वार पर बेकारी
लेकिन अवसर सिमट रहे हैं चंद चुने मनुहारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

महँगाई की बात यहाँ अब कोई मोल नहीं रखता
जनता के टूटे सपने का शायद मूल्य नहीं रहता
अपने खाते काजू किशमिश थाली गिनते नारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

एक समस्या सुलझ न पायी दूजी नई बना लेते
ध्यान हटाने को जनता के वादा नया सुना देते
वोट के लिये मौन तोड़ते चौकों में चौबारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

कहीं गूँजते नारे कैसे कहीं टूटती मर्यादा
जोड़-तोड़ के खेल-खेल में वोटों की चिन्ता ज्यादा
पहले मुख के बोल बिगड़ते झुकते फिर मनुहारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07फरवरी, 2023

त्याग किसे कहते हैं।

त्याग किसे कहते हैं।  

चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।
जिसने जीवन सौंप दिया, उससे अनुराग किसे कहते हैं।।
पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।

जिसके छूने भर से माटी पल में सोना हो जाता है
जिसका आँचल मिल जाने से दुनिया का सब सुख आता है
जिसकी एक झलक पड़ते ही खुद कष्ट सभी मिट जाते हैं
जिसकी एक छुअन अंतर्मन के कष्ट सभी हर जाता है
दुख में जिसने सुख को पाला, सुख का राग किसे कहते हैं
चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।


जिसे नेह से नैन निहारा उसका ही सम्मान हो गया
जिसकी नजर उतारी पल-पल पूरण सारा काम हो गया
गीले बिस्तर में भी जिसको सुख का सब अहसास मिला है
उँगली जो भी पकड़ चला है वो जीवन में राम हो गया
अंगारों पर चली उम्र जो उससे दाग किसे कहते हैं
चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।


जिसने नभ सा प्रेम जताया दूर खड़ा हो दिया सहारा
जिसने प्रस्तर काट-काट कर सपनों का है पंथ बुहारा
जिसकी स्वेद बूँद जीवन के काँटों में पुष्प खिलाती है
जिसने भाव छुपा कर सारे ओट खड़ा हो पंथ निहारा
जिसकी उबटन स्वेद बूँद उससे तनुराग किसे कहते हैं
हो चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06फरवरी, 2023

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...