पिता।

पिता।  

दूर खड़ा हो
कोई भाव छुपा रहा है
वो पिता है, साहब
भीतर ही मुस्कुरा रहा है।

कितनी ही डिग्रियां बटोरी है
तब ये मंजिल पाई है
वो पिता है, साहब
डिग्रियों से ऊंची 
उसकी लड़ाई है।

दो वक्त की रोटी
कपड़ा और मकान
पिता होना 
कहाँ इतना आसान।

जिसके आगे 
सारा जमाना झुकता है
वो खुदा भी
पिता के आगे झुकता है।

हर रोज नए सपने बुनता है
बच्चों की खुशियों के लिए
किसी और की कहाँ सुनता है।

जरा सी गलती पर 
आँख दिखाता है
वो पिता है, साहब
डाँटता जब है
फिर पछताता है।

बच्चों की आँखों
में आँसू देख नहीं पाता
कौन कहता है कि
उसे पढ़ना नहीं आता।

अपने काँधों पर
कितनी ही जिम्मेदारियों का
बोझा ढोता है
वो पिता है, साहब
सेहत की कहाँ सोचता है।

त्यौहारों में सबके लिए
कुछ न कुछ लाता है
पर उसी पुराने कुरते में
खुद एडजस्ट कर जाता है।

एक माँगो
तो हजार देता है
वो पिता है, साहब
पल में चाँद-तारे 
उतार देता है।

लेखनी में इतनी स्याही नहीं
के लिख सकूँ पिता क्या है
बस इतना ही जान पाया
इस तपती धूप में
पिता एक सुनहरी छाया है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2023

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