क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।
क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।
बाद मुद्दत के यादों ने दस्तक दिया
दिन पुराने नयन में चमकने लगे
गात आगोश में साँझ की खो गया
बिन पिये ही कदम ये बहकने लगे
हाथ में ले पियाली जरा प्रेम की
क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।
फिर सुधियों के सावन गगन छा रहे
गीत भूले कभी याद फिर आ रहे
श्रावणी भाव पा गीत सजने लगे
बूँद तन पर गिरी राग बजने लगे
गीत की पंखुरी होंठ पर अब लगा
क्या पता चाहतें फिर मचलने लगें।
लिपट रात से साँझ फिर खो न जाये
सिमट अंक में फिर कहीं सो न जाये
आओ के फिर चाँद ने है पुकारा
समझो जरा तुम भी इसका इशारा
चलो इस रात को हम जरा ओढ़ लें
क्या पता चाहतें फिर मचलने लगे।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28मई, 2023
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें