मुक्तक- सलीका, प्रतिकीर्ति

मुक्तक- सलीका, प्रतिकीर्ति

कहूँ कैसे के दर्द-ए-गम यहाँ कैसे भुलाया है
कभी गीतों में गजलों में कभी छंदों में गाया है।
बहुत एहसान उन जख्मों का जिनमें जिंदगी रोई
सलीका जिन्दगी जीने का तब जाकर के आया है।।

बहुत मुश्किल नहीं है कि मैं लहरों से उलझ जाऊँ
लिखूँ मैं भाव खुद के और खुद में ही सुलझ जाऊँ।
है प्रतिकीर्ति, जो गढ़ता हूँ मन के भाव पृष्ठों पे
इशारा हो मचल जाऊँ इशारा हो सँभल जाऊँ।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         24 मार्च, 2023

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