हनुमान चालीसा- देहु भक्ति का दान।

हनुमान चालीसा- देहु भक्ति का दान।  

मन में सुमिरन कीजिये, सदा नाम हनुमान।
स्वास्थ्य सुख समृद्धि बढ़े, बनते बिगड़े काम।।

जय जय जय हनुमान पुकारें।
कष्ट मिटे जीवन उद्धारे।।1।।

जिनके मन में बसे प्रभु राम,
उनके कष्ट हरें ये तमाम।।2।।

तन सिंदूरी लाल लँगोटी।
इनकी कृपा सबहि पर होती।।3।।

कलयुग के प्रभु एक अधारा।
जीवन के सब संकट टारा।।4।।

अंग वज्र है काँध जनेऊ।
सबपर कृपा न कछु संदेहू।।5।।

हाथ गदा है भाव कृपालू।
प्रभु से बड़ा न कोय दयालू।।6।।

शंकर सुवन केशरी नंदन।
कोटि कोटि है प्रभु अभिनंदन।।7।।

वेद पुराण उपनिषद ज्ञाता।
तुम्हरी शिक्षा जग विख्याता।।8।।

मंगलवार धरा पर आए।
सबका मंगल करते जाए।।9।।

भिन्न-भिन्न धरि रूप दिखाए।
दुर्गम काज सब सुगम बनाए।।10।।

सियाराम के तुम रखवारे।
हम भी आये प्रभु के द्वारे।।11।।

हमको अपनी भक्ति दीजिए।
इतनी कृपा हमपर कीजिए।।12।।

अतुलित बल है बुद्धि विशाला।
सकल जगत के प्रभु रखवाला।।13।।

संकट मोचन अंतर्यामी।
हम सबके प्रभु तुम हो स्वामी।।14।।

भक्त पियारे राम दुलारे।
सबके मन के काज सँवारे।।15।।

जो भी द्वार तिहारे आता।
बिन माँगे वो सब फल पाता।।16।।

सच्चे मन से जो भी आवे।
मनचाहा वो सब फल पावे।।17।।

तुम्हरी कृपा जिन पर होई।
बड़हि विवेक ज्ञान सुख होई।।18।।

जिनपर होए सत्य सनेहू।
पूरन काज न कछु संदेहू।।19।।

हम याचक हैं प्रभु तुम दाता।
तुम ही हो प्रभु भाग्य विधाता।।20।।

हम अग्यानी बालक तेरे।
दूर करो प्रभु सकल अँधेरे।।21।।

ज्ञान ध्यान का दीप जलाओ।
जग के सब अँधियार मिटाओ।।22।।

तुम्हरे भजन जे मन गाँवहि।
मनचाहा जीवन फल पाँवहि।।23।।

तुम हो जग के कष्ट निवारक।
प्रभु तुम दुख दरिद्र के नाशक।।24।।

रघुपति के सब कष्ट निवारे।
मैं भी आया द्वार तिहारे।।25।।

मुझ पर भी अब दृष्टि करो प्रभु।
मेरे भी सब कष्ट हरो प्रभु।।26।।

तुम हो सत्य जगत ये झूठा।
तुमसा और नहीं है दूजा।।27।।

तुमको भजे ज्ञान वो पावे।
जीवन में सुख समृद्धि आवे।।28।।

तुम्हरी शरण जे भी आवे।
रोग व्याधि से मुक्ती पावे।।29।।

जिन पर अपनी किरपा दीन्हा।
उनकर सबहिं कष्ट हर लीन्हा।।30।।

जे भी राम नाम को गावे।
तुमसे प्रतिपल किरपा पावे।।31।।

तुम ही हो प्रभु के रखवाले।
सकल कष्ट को हरने वाले।।32।।

हम अनपढ़ नादान बड़े हैं।
द्वार तिहारे आन खड़े हैं।।33।।

हमको भी प्रभु बुद्धि दीजिए।
अवगुण सभी प्रभु हर लीजिए।।34।।

यहिं जीवन को तुम ही तारो।
भवसागर से पार उतारो।।35।।

भटक रहा मन कौन सहारा।
तुम ही प्रभु बस एक अधारा।।36।।

सूझ रहा नहिं अब पथ कोई।
तुम्हरे सिवा नहिं है कोई।।37।।

तुम्हरे सिवा और न जानूँ।
तुमको ही मैं सबकुछ मानूँ।।38।।

करहुँ कृपा हमपर भी दाता।
तुम्हरे चरण नवाहुँ माथा।।39।।

तुम्हरी कृपा जिन पर होई।
सकल काज सम्पूरण होई।।40।।

घट-घट में प्रभु व्याप्त हो, तुम ही एक महान।
हमरी ये विनती सुनो, देहु भक्ति का दान।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16फरवरी, 2023




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