खिड़की वाली सीट।
वो झंडी का इशारा
यूँ लगा जैसे मुझे
मेरे बचपन ने पुकारा।
वो रेल का सुहाना सफर
और उसकी सुहानी यादें
कभी खत्म न होने वाली
वो प्यारी-प्यारी बातें।
खिड़की वाली सीट की चाहत
धूप में जैसे छाँव सी राहत
वो पेड़ों का दूर से पास आना
फिर तेजी से पीछे छूट जाना
उस एक पल में मन
कुछ खोता कुछ पाता है
न जाने क्या-क्या याद आता है।
वो खिड़की से आती हुई
उम्मीदों के झोंके
गुजरी यादों में ले जाती है
ठहरे हुए पेड़, चलता हुआ सूरज
जीवन का भेद समझाती हैं।
वो पटरियों पर दौड़ती जिंदगी
जिसका कोई छोर नहीं दिखता
खिड़की से तलाशती दो आँखें
सच ही तो है रेल की जिंदगी
आगे बढ़ती है जब
कोई शोर नहीं दिखता।
हर बार हल्की सी मुस्कान
होठों पे लिए हम आते हैं
और कितने ही सपनों को
हम सपनों से मिलवाते हैं
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
01अप्रैल, 2023
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