शब्द कितने ही झरे थे आँख से उस दिन वहाँ पर
और कानों ने सुने थे बात कितनी ही वहाँ पर
कोई मजबूरी तो होगी शब्द अधरों पर रुके
और सपने बूँद बनकर के कोर पे आकर रुके
बूँद जो उस दिन रुके वहाँ बहना भी जरूरी था
सुनना यदि जरूरी था, तो कहना भी जरूरी था।
अब भार कितनी बात का ये मन यहाँ ढोता कहो
अब और कितनी चोट दिल से मन यहाँ कहता सहो
कोई हद होती जहाँ पर दर्द को विश्राम मिलता
और बिखरे उन पलों को कुछ वहाँ आराम मिलता
नासूर कहीं बन न जाये बहना भी जरूरी था
सुनना यदि जरूरी था, तो कहना भी जरूरी था।
वही मैं था वही तुम थे वही थी राहतें दिल की
अधूरी थी गुजारिश वो अधूरी चाहतें दिल की
कभी भटके कभी पहुँचे कभी थी मंजिलें झूठी
कभी थी आहटें झूठी कभी थी राहतें झूठी
हुई मंजिल मुसाफिर जब भटकना भी जरूरी था
सुनना यदि जरूरी था, तो कहना भी जरूरी था।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06मई, 2023
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