मन का जीवन।
आज कसौटी पर कितने ही
कटु शब्द ह्रदय चुभ जाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।
कर सज्ज हृदय के मौन सार
कर परिचय मूल्यों के अपार।
भावों में अनुशाषित जीवन
हर्षित, पुलकित, कुसमित उपवन।।
वर्षित प्रेम भाव रस संचित
हम उद्द्यम करते जाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।
थोड़ा खोना थोड़ा पाना
थोड़ा है थोड़े की जरूरत।
संचित कर सपनों की गागर
पृष्ठ उकेरी कितनी मूरत।।
कितने संचित स्वप्न हृदय के
पग-पग नव आस जगाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।
सुख-दुख जीवन के दो पहलू
एक आता एक जाता है।
हार-जीत की पकड़ से कहो
अब कौन भला बच पाता है।।
आस साँस के द्वार खड़ी जब
खुद से खुद को फुसलाते है।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07अप्रैल, 2023
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