तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।
आस पास जितने घेरे थे सबमें कुछ तो बहस छिड़ी थी
घूर रहीं थीं कितनी नजरें कितनी नजरें झुकी पड़ी थीं
कुछ में था अफसोस उमड़ता कुछ में थोड़ा सा अपनापन
कुछ नजरों में आस भरी थी कुछ नजरों में था सूनापन
कितनी बार द्वार पर देखा हमने सबसे नजर बचाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।
हमने कितने व्योम उड़ाए सपनों के निज आसमान में
मन ने भी थे राह सुझाये मन को मिलन के अनुमान के
अभिलाषित भी हुआ हृदय ये झुरमुट से जब चाँद खिला था
तारों ने भी राह सजाई जुगनू को सम्मान मिला था
मन ने कितनी बार पुकारा मन को मन ही मन अकुलाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।
जितनी बार जलाये हमने दीपक मन के अँधियारों में
उतनी बार हुई है खंडित बाती मन के गलियारों में
फिर भी हमने मन को अपने बार-बार जितना समझाया
मन को सब कुछ रहा विदित पर चाहा लेकिन समझ न पाया
बिखरे मन को जोड़ रहा था तेरी आहट से बहलाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।
मुझे पता है तुम आओगी सांध्य ढले जब थक जाओगी
माथे पर कुछ खड़ी लकीरें लिए दूर तक क्या जाओगी
शायद मैं फिर रहूँ ना रहूँ गीत हमारे पर गाओगी
पलकों से बस नीर बहेंगे चाह के भी न सो पाओगी
कितनी बार जताना चाहा मन ने गीतों में गा गाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
19फरवरी, 2023
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