आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।
बीते कितने ही बसंत और कितनी आस है
अतृप्त मन के भाव की और बाकी प्यास है
पल-पल घट रही दूरियाँ उम्र के अनुपात की
और धूमिल हो रही है तेज प्रतिपल गात की
किंतु मन की भावनाएं गीत नूतन गढ़ रही
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।
बढ़ रहा दायित्व जब से मौन मन का गान है
उम्र के अनुरोध है ये मत कहो अभिमान है
चल रहे हैं पंथ सारे पर शिथिल चाल माना
अनुभवों की रेख पर है जिंदगी का ताना-बाना
मौन हल्की सी हँसी अब झुर्रियों को ढँक रही
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।
लिख दिए ग्रन्थ कितने और कितने लिख रहे
चाहतों के पृष्ठ में जा गीत कितने छिप रहे
दूर कितना भी सवेरा दीप लेकिन जल रहा
मौन एकाकी हृदय के अंक को पर खल रहा
आहटें हल्की समय की रेत बनकर झर रहीं
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11अप्रैल, 2023
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