गाँव-भूली बिसरी यादें।
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।
वो जो बचपन मेरा था वहीं रह गया
जो था अल्हड़ मेरा वो कहीं बह गया
साथ बस रह गयी याद जो थी सुहानी
भूली बिसरी वो यादें वो कितनी कहानी
यादों के पृष्ठ पलटे जो इक पल यहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।
दूर तालाब तक जाती पगडंडियाँ
राह में खेलती कितनी अठखेलियाँ
पेड़ की छाँव में धूप का मुस्कुराना
और पुरवाई का हौले से गुदगुदाना
बाग में चिड़ियों से बातें करते वहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।
खेतों में रोपती धान की क्यारियाँ
आँखों में सपनों की कितनी तैयारियाँ
साँझ चौपालों पे गीत की रागिनी
बोली ऐसी शहद की घुली चाशनी
गीत में गूँजते मन के गाने जहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।
उम्र के छोर पर जिंदगी की लड़ी
तक रही राह, उम्र हाथ ले कर छड़ी
आज भी होंठ पर लोरियों की लड़ी
राहों के संग-संग जिसकी नजरें मुड़ीं
आज ठोकर लगी राह में जब यहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।
शहरों की रोशनी में कहीं खो गए
तारे खुद रात को ओढ़ कर सो गए
दिन ढला कब यहाँ, रात कब क्या पता
मंजिले कब मुसाफिर हुईं क्या पता
हैं चलीं राह खुद मंजिलें जब यहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।
वक्त के साथ बढ़ती ये तन्हाईयाँ
दूर होने लगी आज परछाइयाँ
जा रहा है शहर-गाँव, खुद छोड़कर
रिश्ते नाते सभी से यहाँ तोड़कर
चार पैसों की चाहत में आये यहाँ
तब जाना के क्या छोड़ आये वहाँ।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08मई, 2023
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