कैसे कह दूँ मन को अब भी चाह नहीं है।

कैसे कह दूँ मन को अब भी चाह नहीं है।  

दूर हुए थे जिन गलियों से उन गलियों ने पुनः पुकारा
कैसे कह दूँ उन राहों को अब भी मन की चाह नहीं है।।

कहने को कितनी ही बातें
पलकों में अलसाई रातें
अधरों की मृदु पाँखुरियों पे
मृदुल हास्य की वो सौगातें
रक्त कपोलों के डिम्पल में दिल कल डूबा अब भी हारा
कैसे कह दूँ उन सपनों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

दूर क्षितिज पर मन का मिलना
कदम मिलाकर पग-पग चलना
कहना सुनना कितनी बातें
फिर कहने को और मचलना
दूर गगन की छाँव तले जब सांध्य-निशा का पंथ बुहारा
कैसे कह दूँ पुनर्मिलन की अब भी मन को चाह नहीं है।।

वीथी पे कुछ याद पुरानी
भूली बिसरी एक कहानी
कुछ साँसों में बसे अभी तक
और बहे कुछ बन कर पानी
कहीं दूर अंतर्मन पिघला यादों ने है पुनः पुकारा
कैसे कह दूँ उन यादों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

वहीं दूर पर भोर सुहानी
खुशियों का अंबार लिए है
रातों की सिलवट की खातिर
पुष्पच्छादित हार लिए है
उसी भाव के अपनेपन ने मधु गीतों को दिया सहारा
कैसे कह दूँ उन गीतों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2023

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