तुम मन के द्वारे आये हो।

तुम मन के द्वारे आये हो।  

सुप्त हो चलीं जब-जब स्मृतियाँ ये मन भटका अँधियारों में
तब यादों का लिए पिटारा तुम मन के द्वारे आये हो।

किन सपनों ने मुझे डुबोया किन सपनों ने दिया सहारा
किसमें जीता किसमें हारा मुझको कुछ मालूम नहीं था
पल दो पल का साथ मिला था या जनमों का संग हमारा
कितना समय हमारा रहता मुझको कुछ मालूम नहीं था
गरल सिक्त की पीड़ाओं में मन जब मूर्छित हुआ जा रहा
तब अमृत का लिए पिटारा तुम मन के द्वारे आये हो।।

जब सर्पीले स्वप्न पलक के कोरों में कुछ चुभे जा रहे
आशाओं के पंख झुलसकर कहीं बदन में छुपे जा रहे
लगे दोष माथे पर सारे मन को जिसका भान नहीं था
पुष्प बिछा काँटों पर सोना ऐसा भी अनुमान नहीं था
विरह वेदना शापित नख से मन जब छलनी हुआ जा रहा
तब मधुगंधों का कोष लिये तुम मन के द्वारे आये हो।।

कितने देहरी कितने चौखट और कितनी हैं सीमाएं
हर जीवन की अपनी रेखा है सबकी अपनी परिभाषाएं
लक्ष्मण रेखा जब-जब खींची सब रिश्ते नाते रूठ गये
समय ने ऐसे लाँघी देहरी बंधन बाँधे छूट गए
एकाकी का घाव लिए जब सांध्य क्षितिज में छुपा जा रहा
तब अनुबंधों की संधि लिए तुम मन के द्वारे आये हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23फरवरी, 2023

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