चलो फिर गीत हम गायें।

चलो फिर गीत हम गायें।   

चलो फिर आज हम दोनों
पुराना गीत दोहराएँ
मिलें फिर से अकेले में
वही फिर गीत हम गायें।

है तुमको याद क्या अब भी
मुलाकातों की वो बातें
नहीं भूले अभी तक हमने
गुजारी कैसी वो रातें 
जलाए दीप जो उस रात
वही फिर दीप हम लाएं
मिलें फिर से अकेले में
वही फिर गीत हम गायें।।

वही नदिया की लहरें हों
वही फिर से किनारा हो
मिलें जब फिर से हम दोनों
वही दिलकश नजारा हो
नजारों के इशारों में
चलो फिर डूब हम जाएं
मिलें फिर से अकेले में
वही फिर गीत हम गायें।।

माना दिन ये गुजरा है
मगर ये रात अपनी है
जो बातें सदियों ने भूली
उन्हें लम्हों में कहनी है
मिलें फिर से वहीं हम तुम
औ जग को भूल हम जाएं
मिलें फिर से अकेले में
वही फिर गीत हम गायें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जून, 2021


स्वप्न है जो प्यार तो गीत कैसे गुनगुनाऊँ।

स्वप्न है जो प्यार तो गीत कैसे गुनगुनाऊँ।

बंद है जो द्वार बोलो पास तेरे कैसे आऊँ
स्वप्न तेरा प्यार है तो गीत कैसे गुनगुनाऊँ।।

है यहाँ पर कौन जिसके पलकों में ना स्वप्न आया 
है यहाँ पर कौन वो जिसे प्यार का ना शब्द भाया
कौन सा है पुष्प बोलो कभी टूट कर खिलता यहाँ
जब भी गिरे शाखों से पत्ते फिर वहाँ मिलते कहाँ
टूट कर संभला हूँ कैसे दास्ताँ कैसे सुनाऊँ
बंद है जो द्वार बोलो पास तेरे कैसे आऊँ।।

रात की नाकामियों का दंश सुबहों ने है झेला
सितारों की इस भीड़ में भी चाँद हुआ क्यूँ अकेला
चाँद के एकाकीपन को अब कौन समझेगा यहाँ
जागती उस रात का मरम अब कौन बोलेगा यहाँ
क्या हुआ था उस घड़ी अब कैसे मैं तुमको बताऊँ
बंद हैं जो द्वार बोलो पास तेरे कैसे आऊँ।।

स्वप्न जो ये प्यार है तो गीतों में मैं क्या कहूँगा
साथ तेरा जो ना पाया गीत बोलो क्या रचूँगा
खोल कर अपना हृदय बोलो किसको दिखलाऊँ यहाँ
बात जो बीती हृदय पर अब किसको बतलाऊँ यहाँ
तुम खड़े जिस राह बोलो तुमको मैं कैसे मनाऊँ
बंद हैं जो द्वार बोलो पास तेरे कैसे आऊँ
स्वप्न तेरा प्यार है तो गीत कैसे गुनगुनाऊँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जून, 2021


अधरों पर प्रतिबंध अनेकों।

अधरों पर प्रतिबंध अनेकों। 

अधरों पर प्रतिबंध अनेकों
शब्दों पर पहरे हैं गहरे

किरणों का पथ रोक रहे हैं
काले काले मेघ घनेरे
अँधियारों ने बैठाए हैं
दीपक पर लाखों पहरे
अंतस के सागर में देखो
ऊँची ऊँची उठती लहरें
अधरों पर प्रतिबंध अनेकों
शब्दों पर पहरे हैं गहरे।।

जाने कैसी चलन चली है
आडंबर सब अच्छे लगते
चमक दमक वाला जीवन
पलकों को सच्चे लगते
बैठ सादगी किसी किनारे
भरती है साँसें गहरे
अधरों पर प्रतिबंध अनेकों
शब्दों पर पहरे हैं गहरे।।

प्रश्नों से जा कह दो कोई
महलों के दरबार न जाएं
अपनी राह बुहारें खुद ही
खुद ही अपना पंथ बनाएं
दरबारों की अनदेखी से
वरना घाव मिलेंगे गहरे
अधरों पर प्रतिबंध अनेकों
शब्दों पर पहरे हैं गहरे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जून, 2021




पुलकित पंथ बताओ।

पुलकित पंथ बताओ।   

ऐसा कोई पंथ बताओ जिस पर चल सब पुलकित हो 
इक दूजे का सम्मान बढ़े और सबका अंतस हर्षित हो।।

रहे न कोई भेद किसी में अरु नहीं किसी में अंतर हो
जीवन में संकेत सुफल हो अरु पुण्य भाव का मंतर हो
सबका हिय आनंदित हो अरु सद्भाव हृदय में संचित हो
ऐसा कोई पंथ बताओ जिस पर चल सब पुलकित हो।।

छोटी छोटी आशाओं अरु इच्छाओं को सम्मान मिले
एक दूजे में सुलह बढ़े अरु एक दूजे को मान मिले
देख समर्पण एक दूजे पर अब जन गण मन आनंदित हो
ऐसा कोई पंथ बताओ जिस पर चल सब पुलकित हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जून,2021

चक्रव्यूह में सच।

चक्रव्यूह में सच।  

सच खड़ा है आज कटघरे झूठ ने ऐसे पाँव पसारे
जो कुछ बीती है लम्हों पर कोई कैसे उसे बिसारे।।

चक्रव्यूह ऐसा रच डाला
शापित सारे शब्द हुए
और दिखाया उनको ऐसे
विचलित सारे अर्थ हुए
भावों में भी अंतर आया बिखरे सारे मरम बिचारे
सच खड़ा है आज कटघरे झूठ ने ऐसे पाँव पसारे
जो कुछ बीती है लम्हों पर कोई कैसे उसे बिसारे।।

बहकी बहकी बातें भी जब
झूठ गवाही देती हैं
सिंहासन तक शोर मचाती
नहीं सुनाई देती है
मर्माहत होकर तब लम्हें सोचें किसको आज पुकारें
सच खड़ा है आज कटघरे झूठ ने ऐसे पाँव पसारे
जो कुछ बीती है लम्हों पर कोई कैसे उसे बिसारे।।

आरोपों के ओछेपन से
सच की राह मिटाते हैं
कदम कदम पर झूठ गढ़ रहे
कैसा खेल रचाते हैं
झूठ को अगणित पथ मिलते पर सच का पंथ कौन बुहारे
सच खड़ा है आज कटघरे झूठ ने ऐसे पाँव पसारे
जो कुछ बीती है लम्हों पर कोई कैसे उसे बिसारे।।

अँधियारे की पंचायत में
पर सच कैसे रोकोगे
दीपक की लौ रोक सके ना
सूरज को क्या रोकोगे
पथ के सारे अँधियारे को सूरज ने है आज बुहारे
सत्य उतना ही मुखर हुआ झूठ ने जितना पाँव पसारे
पर लम्हों पर जो कुछ बीती कोई कैसे उसे बिसारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जून, 2021



एक नगर अनजाना सा।

एक नगर अनजाना सा।  

एक नगर अनजाना सा ये
इक दिन एक अकिंचन आया
चेहरे पर मिश्रित भाव लिए
कितने स्वप्न सुनहरे लाया।।

थी अनिभिज्ञ अरु अनजान डगर
किंचित भर थी पहचान मगर
हिय में भर वचनों की पीड़ा
पलकों में सागर भर आया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

कर खाली अरु ग्रीवा कंपित
अधरों पर मधु भरकर संचित
भावों में अकुलाहट भर, पर
अंतस भाव मनहरे लाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

पंथ खुले पूजा के निस दिन
भाव मिले भावों से उस दिन
निस दिन फूलों ने पथ खोला
जिस दिन संग तुमारा पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

फूलों ने था पंथ बुहारा
सपनों को भी मिला सहारा
खिलने लगीं नगर की गलियाँ
खुद को तब सम्मोहित पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

आज नगर ये पहचाना है
नहीं कहीं कुछ अनजाना है
मिले यहाँ सपनों के मोती
कितना कुछ इससे है पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जून, 2021



मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती हैं।

मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती हैं।  

जाने मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती है
मैंने जो भी कही कथाएँ तुम्हें पुरानी लगती हैं।।

तुम संग मेल हुआ था जब, तब तुम भी खोये खोये थे
अंक तुम्हारा भी सूना था कुछ पाए ना खोये थे
नया सहारा मिलते ही वो छाँह पुरानी लगती है
जाने मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती हैं।।

बाधाओं के चक्रव्यूह से तुम कैसे निकले भूल गए
साथ तुम्हारा छोड़ चले सब कैसे सँभले भूल गए
सँभले हो अब तो क्यों वो बात पुरानी लगती है
जाने मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती हैं।।

बार बार पंथ छला गया फिर भी है विश्वास किया
जग से भले दूर हुए हम पर तुमसे ही आस किया
मेरी सारी बात तुम्हें अब नादानी लगती है
जाने मेरी सभी व्यथाएँ तुम्हें कहानी लगती है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जून, 2021

दिल की अभिलाषा।

दिल की अभिलाषा।   

दिल करता है तितली जैसा
मैं भी घूमूँ गगन में आज

मन चंचल है अपना ये अरु
इच्छाओं का भार बहुत है
कदम कदम पर देखो जब भी
चाहत का अंबार बहुत है
आशाओं के नीलांबर में
सपन सलोने बुनूँ मैं आज
दिल करता है तितली जैसा
मैं भी घूमूँ गगन में आज।।

मुक्त गगन में मैं भी विचरूँ
फूल फूल इतराऊँ मैं भी
अपने अल्हड़पन से सबका
मन उपवन बहलाऊँ मैं भी
पावन सबका हृदय करूँ मैं
करूँ सभी को मगन मैं आज
दिल करता है तितली जैसा
मैं भी घूमूँ गगन में आज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जून, 2021

ख्वाहिश।

ख्वाहिश।  

ऐ जिंदगी तुझसे मेरी बस इतनी सी गुजारिश है
बीते हर पल तेरी बाहों में बस यही ख्वाहिश है।।
ना कोई क्लेश रहे मन में और ना शिकवा कोई
खुश रहूँ हर पल तेरी राहों में यही फरमाइश है।।
रहे बस प्रेम मेरे मन में और मेरे गीतों में
रचूं नव गीत सदा जीवन के मेरि यही ख्वाहिश है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जून, 2021

कैसे आऊँ मैं तुम तक।

कैसे आऊँ मैं तुम तक।  

पलकों पर मेरे भार बहुत है कैसे सपन सजाऊँ मैं
मेरे प्रियवर कुछ तुम ही बोलो कैसे तुम तक आऊँ मैं।।

बहुत भीड़ है दरवाजों पर
कितने आस लगाए बैठे
तुझसे मिलने की खातिर ही
खुद को हैं उलझाए बैठे
कदम कदम दरबान बहुत हैं बोलो कैसे समझाऊँ मैं
मेरे प्रियवर कुछ तुम ही बोलो कैसे तुम तक आऊँ मैं।।

कल्पना मात्र से ही तेरे
हर मन पुलकित हो जाता है
साथ मिला है जब जब तेरा
मन भावन हो खिल जाता है
तेरे वैभव के अहसासों को बोलो कैसे पाऊँ मैं
मेरे प्रियवर कुछ तुम ही बोलो कैसे तुम तक आऊँ मैं।।

कितने मौसम बीत गए हैं
तेरी आस सजाए मुझको
कितनी रातें बीत गयी हैं
तेरा दीप जलाए मुझको
कैसे तेरी कृपा मिलेगी अरु कैसे तुझको गाऊँ मैं
मेरे प्रियवर कुछ तुम ही बोलो कैसे तुम तक आऊँ मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19जून, 2021


कुछ तो बोलो किसकी खातिर।

कुछ तो बोलो किसकी खातिर।  

पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

मन के भीतर उठी तरंगें
गीत नया रच जाती हैं
और पिरो शब्दों को कितने
भाव नया रच जाती हैं
इन गीतों में किसे पुकारूँ
गाऊँ मैं किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

पलकों पर कितने ही सावन
आये आकर चले गए
कुछ ने खोले प्रीत द्वार के
कुछ आँसू बन छले गए
बूँद बूँद बन गिरे पलक से
रोकूँ अब किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

मैंने गीतों के पंक्ति पंक्ति में
कितने सपन सजाए हैं
उनमें हिय के भाव भरे जब
तब गीतों में गाये हैं
अब तक गाया बहुत यहाँ मैं
अब गाऊँ किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

भूल न जाऊँ मैं गीतों में
लिखी हुई सारी बातें
भूल न जाऊँ मैं वादों में
कही हुई सारी बातें
तुम जो पथ से दूर हुए तो
रूप सँवारूँ किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जून, 2021


चलो जहाँ अपने मिलते हैं।

चलो जहाँ अपने मिलते हैं।

तारों को सह देख चाँदनी
हौले से मुस्काई बोली
दूर गगन की छाँव चले हम
जहाँ सभी सपने पलते हैं
चलो जहाँ अपने मिलते है।।

एकाकी जीवन ने अब तक
क्या पाया है जो खोएगा
मिले जहाँ सपनों को मंजिल
उसी गोद में चल पलते हैं
चलो जहाँ अपने मिलते हैं।।

कितनी दूर प्रभाकर का रथ
फिर भी वो ऊष्मा देता है
उसके चलने से ही सारे
ऋतुओं के मरम बदलते हैं
चलो जहाँ अपने मिलते हैं।।

ऊँच नीच का भेद न होये
मिलें सभी कोई ना खोये
सबका जीवन सहज बने जँह
जहाँ पुष्प सुंदर खिलते हैं
चलो जहाँ अपने मिलते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       18जून, 2021



राह चलो धीरे धीरे।

राह चलो धीरे धीरे।  

पलकों में अगणित स्वप्न सजा
कदम तले आकाश मिला
उम्मीदों की गठरी थामे
राह चलो धीरे धीरे।।

ऊबड़ खाबड़ रस्ते सारे
बढ़ने से कटते सारे
परे हटा सब अवरोधों को
राह चलो धीरे धीरे।।

बाधा से घबराना कैसा
थक कर रुक जाना कैसा
नया जोश भर नई उमंगें
राह चलो धीरे धीरे।।

दूर शिखर पर सूर्य दिख रहा
तेरा पथ धैर्य लिख रहा
संयम को हथियार बना अब
शिखर चढो धीरे धीरे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जून, 2021

बूँदों का मधुमास।

बूँदों का मधुमास।   

सावन की बूंदें गिरी गगन से
अन्तस् में अधिवास किया
मचला यूँ मन का आँगन ये
ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

हरित हुआ धरती का आँचल
काली मेघ घटायें छाईं
बारिश की बूँदेँ जीवन में
बनकर के सौगातें आयीं
तन मन ऐसे भींगा जैसे
मृदु भावों ने अनुप्रास किया
मचला यूँ मन का आँगन ये
ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

देख धरा का खिलता आँचल
मेघों का भी मन डोला है
दूर क्षितिज पर मिलन देख कर
पपिहे का भी मन डोला है
पपिहे ने भी गीत सुना कर
फिर प्रियतम को है याद किया
मचला यूँ मन का आँगन ये
ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

सावन ऋतु की देख उमंगें
हिय प्रेम राग भर जाता है
दूर देश बैठे पियतम की
यूँ बरबस याद दिलाता है
प्रेम फुहारों से भींगा मन
अब मधुर मिलन की आस किया
मचला यूँ मन का आँगन ये
ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जून,2021




सब बोल सुहाने लगते हैं।

सब बोल सुहाने लगते हैं।  

आज न जाने जग में सबको
हम दीवाने लगते हैं
सब बोल सुहाने लगते हैं।।

जो कुछ भाया किया वही
दिल ने चाहा जिया वही
ज्यादा की उम्मीद न पाली
मिला जहाँ जो लिया वही
कितना कुछ पाया इस जग से
बेगाने अपने लगते हैं
सब बोल सुहाने लगते हैं।।

भूले ना हम कहीं भटककर
रुके नहीं हम कहीं ठिठककर
जब जो भी हमको पंथ मिला 
चले सदा हम सँभल सँभलकर
राहों ने यूँ छाँव दिए हैं
अब धूप सुहाने लगते हैं
सब बोल सुहाने लगते हैं।।

हमने जीवन के हर पल को
खुले हृदय से सम्मान दिया
चाहे जैसा पात्र मिला हो
बस विष में भी मधुपान किया
अब तो पलकों के साये में
हर सपन सुहाने लगते हैं
सब बोल सुहाने लगते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जून, 2021

क्या नहीं अपराध है।

क्या नहीं अपराध है।  

झूठ है अब क्यूँ मुखर 
सत्य है बोलो किधर
अंक में अवसाद के
ढूँढ़ती है इक नजर
अब दर्द ये अगाध है
क्या नहीं अपराध है।।

रात काली हो रही 
बात काली हो रही
चाँदनी भी गुम यहाँ
भोर जैसे खो रही
क्यूँ दर्द ये असाध है
क्या नहीं अपराध है।।

युगों के बीच फँसकर
उमर जाने पिस रही
कर रही मधुपान या
फिर एड़ियाँ घिस रही
मोक्ष क्यूँ आगाध है
क्या नहीं अपराध है।।

कौन पूछे वक्त से
घाव जो गहरे लगे
मौन उसके पंथ में
आज क्यूँ पहरे लगे
क्यूँ दर्द ये दुसाध है
क्या नहीं अपराध है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जून, 2021

राज बहारों ने खोला है।

राज बहारों ने खोला है।  

देख सितारों का आँगन 
मेरा मन भी डोला है
राज़ बहारों ने खोला है।

रात सँवारे दिन का सूरज
अरु पथ में सुंदर पुष्प सजे
पुरवा के शीतल झोंकों ने
कानों में सुंदर शब्द कहे
पवन झँकोरों ने गा गाकर
कानों में मधुरस घोला है
राज़ बहारों ने खोला है।।

पलकों के मोहक नरतन से
हिय के राज झलकते सारे
अधरों के पुष्पित कंपन से
मृदु श्रृंगार छलकते सारे
नेह को सुरभित पंथ मिला
ऋतुओं ने भी मधु घोला है
राज बहारों ने खोला है।।

आशाओं ने पंख पसारा
उम्मीदों ने ली अँगड़ाई
रात सजाई तारों ने जब
मधुर चाँदनी तब छाई
देख सुनहरी रात चाँदनी
भँवरे का भी मन डोला है
राज बहारों ने खोला है

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जून, 2021


दुनिया एक मुसाफिरखाना।

दुनिया एक मुसाफिरखाना।  

खाली हाथ हो आये जग में खाली हाथ ही है जाना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना

पग पग कितने अरमानों ने
जीवन मे डेरा डाला
कुछ आशाएँ चलीं दूर तक
कुछ को पलकों ने पाला।
पले स्वप्न पलकों में जितने उनमें ही है जीवन जाना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना।।

बहती जीवन की सरिता के
नैया तुम पतवार तुमी
सागर से जो उठी तरंगें
उनकी जीवन धार तुमी
सागर से मिलने की खातिर सरिता को है चलते जाना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना।।

एक जनम का जीवन है ये
साथ नहीं कुछ जाएगा
जो कुछ भी बोया है तुमने
उसका ही फल पायेगा
मिला यहाँ जो कब अपना था अब खोया तो फिर क्या रोना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना।।

होड़ मची पाने की ऐसी
कितने जीवन उजड़ गए
मोती के लालच में पड़कर
कितने अपने बिछड़ गए
सबका अंत सुनिश्चित है जब फिर क्या खोना अरु क्या पाना
सभी आदमी सौदागर हैं दुनिया एक मुसाफिरखाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जून, 2021

मुक्तक।

मुक्तक- तुम सुनना  

हवाओं ने फ़िज़ाओं से कहा कुछ आज तुम सुनना
बहारों ने घटाओं से कहा कुछ आज तुम सुनना
मिले जब दिल खिले धरती नजारे गीत गाते हैं
नया सा स्वप्न कोई फिर पलक में आज तुम बुनना।।

बदल जाती है दुनिया जब किसी का साथ मिलता है
निखर जाती है कलियाँ जब किसी का प्यार मिलता है
बड़ा मुश्किल निभा पाना अकेले जग के मेले को
जहाँ मिलता है दिल दिल से वहीं पर युग बदलता है।।

न तेरी बात सुनती हैं ना मेरी बात सुनती हैं
मिले जब दो जवां दिल तो ये आँखें बात करती हैं
औ कहती हैं इशारों में जाने कितनी ही बातें
खुले जब भी गिरें जब भी ये बस फरियाद करती हैं।।

लरजते होंठ हौले से है कितनी बात कह डाले
पलकों ने भी इशारों में सभी दास्तान कह डाले
सुने या न सुने कोई यहाँ इनके इशारों को
जो दिल में बात है इनके इशारों ने है कह डाले।।

घटाओं ने बहारों से किया है प्रीत आलिंगन
मधुर अहसास ने अधरों पर दिया प्रीत का चुंबन
हृदय उल्लास से भरकर मधुर मधुमास गाते हैं
अरु इशारों ने इशारों में किया है मौन स्पंदन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         15जून, 2021



मन का दर्पण।

मन का दर्पण।  

रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे
रहे दूर जो अपनेपन से, मुश्किल है के खिल पाओगे।।

जीवन है इक सफर सुहाना
आज इधर कल उधर ठिकाना
पहचान गए जो तुम खुद को
नहीं जरूरी कोई बहाना
अपने अंतस में झांकोगे, भीतर कितना कुछ पाओगे
रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे।।

दूजे के शब्दों में पड़कर
वक्त अपना बर्बाद करो ना
जग के तानों को सह लेना
चुप रहना आवाज करो ना
रुके रहे यदि लम्हों में तो, सदियों में फिर क्या पाओगे
रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे।।

एक दौर था देखा तुमने
जब तुमसे गुलशन उजियारा
एक दौर अब आया है ये
जब तेरा न कोई सहारा
उसी दौर में पड़े रहे तो, नव जीवन कैसे पाओगे
रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे।।

कभी सुनहरे गीतों से ही
तुमने दिल बहलाया था
शब्दों को बारीक पिरोया
तब जाकर गीत बनाया था
भाव हीन जो हुए शब्द तो, फिर से कैसे रच पाओगे
रोज जो देखोगे दर्पण तब, जाकर खुद से मिल पाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14जून, 2021



कौन खोजता।

कौन खोजता।   

जो रात न होती इस जग में, उजियारे को कौन पूछता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

इतना सहज नहीं रहता फिर
उन उम्मीदों से मिल पाना
धूप न होती जग में यदि तो
मुश्किल फूलों का खिल पाना
ताप न होते जीवन पथ में, छाँवों को फिर कौन पूछता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

सुख ही सुख मिल जाए यदि तो
दुख का फिर अहसास कहाँ हो
इतना सहज रहा ये जग जो
दिल को दिल की आस कहाँ हो
दिल जो दिल से दूर रहा तो, पलकों से अश्रु कौन पोंछता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

ग्रंथ लिखे ना जाते जग में
नैतिकता फिर मिलती कैसे
द्यूत रचा ना जाता यदि तो
भगवद्गीता मिलती कैसे
भगवद्गीता जो ना होती, सत्य पंथ फिर कौन बोलता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

सुख शांती का मोल वहाँ है
आवाजों में शोर जहाँ हो
मधुवन मधुरिम होता तब है
बँधी प्यार की डोर जहाँ हो
जो ना बँधती डोर प्यार की, रिश्तों का मन कौन टोहता
शूल न होते पथिक पंथ में, फूलों का पथ कौन खोजता।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14जून, 2021

उन राहों पर क्या जाना।

उन राहों पर क्या जाना।  

दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो
बीत चुकी जो बातें अब तक फिर से क्यूँ दुहराते हो।।

तुम क्या जानो कैसे मैंने खुद को पुनः संभाला है
कदम कदम पर जख्म पिये तब जाकर खुद को पाला है
अब जो सँभला हूँ तो फिर से मुझको क्यूँ बहकाते हो
दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो।।

कितनी मुश्किल से भूला मैं तुमसे जो भी घाव मिले
बहुत पुकारा था तुमको पर बीच राह तुम छोड़ चले
छोड़ चले जब बीच राह, क्यूँ फिर से मुझे बुलाते हो
दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो।।

दूर बहुत हो गयीं याद जो उनसे फिर अब क्या लेना
तुमसे जो कुछ पाया था अब वापस तुमको क्या देना
जो कुछ तुमसे मिला मुझे अब उनसे दिल बहलाने दो
दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो।।

राहें जो हो गयीं अलग अब उनपर फिर से क्या जाना
बहुत मिले थे घाव वहाँ अब नया घाव फिर क्यूँ पाना
नहीं रहा जब कोई रिश्ता कैसी आस बँधाते हो
दर्द सजा कर थाल में पुनः तुम पास मिरे क्यूँ लाते हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जून, 2021






अनुभव।

अनुभव।   

ढूँढ़ते हो क्यूँ सुखन बस उम्र के ही गाँव में
आओ मिल बैठो घड़ी भर जिंदगी की छाँव में।।

जो वहाँ पर दर्द है तो खुशियों का भी तो राज है
कट रही है जिंदगी उन्हीं बादलों की छाँव में।।

जब से छूटी है जमीं छूटी हैं गलियाँ गाँव की
दर्द गाँवों का बढ़ा है देखा जो छाले पाँव में।।

जिन नन्हें कदमों की धमक से डोलते थे रास्ते
अब ढूँढ़ते हैं इक सफर वो इस नए बदलाव में।।

भूख का मतलब यहाँ पर बतलायेगी वो जिंदगी
जिसने खुद को है तपाया धूप के इस गाँव में।।

उमर का वो मोड़ अब भी है वहीं पहले जहाँ था
जिसने कभी चलना सिखाया आँचलों की छाँव में।।

फिर चलो बैठे वहाँ और खुद से ही बातें करें
राह भी शायद मिले उन्हीं बरगदों की छाँव में।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जून, 2021

मौन आवाजें।

मौन आवाजें।   

मोक्ष की गलियों में जब तक मूक आवाजें रहेंगी
कौन कब किससे यहाँ फिर दिल की सब बातें कहेंगी।।

वो खुद शिखर पर बैठ कर सम्राट बन बैठे यहाँ पर
राह की रुसवाईयाँ अब किस कदर बातें करेंगी।।

रातों के उस दर्द को फिर वो भला समझेंगे कैसे
जिनके चारों ही पहर बस रोशनी बातें करेंगी।।

भूख का अहसास क्यूँकर पूछते हो दरबारों में
सूखी छाती से लिपटी नन्हीं आँखें सब कहेंगी।।

वो पैर भी तब चल पड़े थे जब रास्ते सब मौन थे
पैरों के उस दर्द को अब रास्तों की छापें कहेंगी।।

क्या पूछते हो दर्द उनका बैठ कर महलों में यहाँ
दो घड़ी ठहरो वहाँ पर उनकी रातें सब कहेंगी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12जून, 2021

प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।

प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।   

यदि थक गए इस पंथ में तो
प्रारंभ क्या अरु अंत क्या

है अभी प्रारंभ ये और 
दूर मंजिल है तेरी
औ तेरे इन काँधों पे ही
उम्मीद हैं कितनी बड़ी
जो शिथिल हैं तेरे कदम तो
जीत का फिर ये मंत्र क्या
यदि थक गए इस पंथ में तो
प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।।

मुश्किलों से हारकर कभी
जो पंथ से विचलित हुआ
अरु छोड़ कर मँझधार में
ये नाव जो विस्मृति हुआ
है कर्मपथ से जो भी विचला 
योगी क्या और संत क्या
यदि थक गए इस पंथ में तो
प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।।

इस पंथ में वो पंथी सफल
जो मुस्कुरा करके चले
बंधों में अवरोधों में भी
जो राह खुद अपनी गढ़े
जो गढ़ सके ना स्वयं से पथ
फिर फूल का भी पंथ क्या
यदि थक गए इस पंथ में तो
प्रारंभ क्या अरु अंत क्या।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11जून, 2021


प्रकृति का आलिंगन।

प्रकृति का आलिंगन।   

नील गगन की छांव तले पलकों ने स्वप्न सजाये हैं
रुके रहे या बीत गए जीवन ने सब अपनाये हैं।।

है विस्तृत आकाश यहाँ पर और खुली राहें कितनी
दूर दूर तक फैलायी हैं किरणों ने बाहें अपनी
और पवन के मधुर गीत नव जीवन राग सुनाते हैं
आर पार के दृश्य सभी जन जन को बहलाते हैं
प्रकृति की आभा ने कितने सुंदर बाग सजाए हैं
नील गगन के छाँव तले पलकों ने स्वप्न सजाए हैं।।

किरणों संग खेलती लहरें छुपती हैं इतराती हैं
दूर क्षितिज पर गगन चूम कर अंजुली भर जल लाती हैं
लहरों के आँचल में लुक छिप सागर गीत सुनाता है
ओस फुहारों की शीतलता अंतस तक मदमाता है
मदमाते अंतस ने कितने सुंदर साज सजाए हैं
नील गगन के छाँव तले पलकों ने स्वप्न सजाए हैं।।

कितना सुंदर लगता जग जब खिलता धरती का आँगन
सरस भाव से लिपट रेशमी किरणें करतीं मन पावन
नभ में पंछी मुक्त विचरते पग पग करते अवलोकित
और धरा पर हरित पुष्प खिल करते सब तरु तृण शोभित
खिले पुष्प दूर क्षितिज तक अवनी का रूप सजाए हैं
नील गगन के छाँव तले पलकों ने स्वप्न सजाए हैं।।

मुक्त चित्त हो मुकुलों के मन भावों को करतीं विंबित
अरु सरिता तट पर किरण सुनहरी करतीं जल को स्पंदित
खग मृग वन्य पशु पक्षी सारे गुंजित करते नभ का स्वर
कलरव के मधुर स्वरों से मिट जाते शोकाकुल अंतर
प्रकृति के इस आलिंगन ने स्नेहिल भाव जगाए हैं
नील गगन के छाँव तले पलकों ने स्वप्न सजाए हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10जून, 2021

नव जीवन के काव्य।

नव जीवन के काव्य।  

काव्य रचो नव जीवन के
रचे प्राण वायू बन जाये।।

कलम उठा कर जीवन के 
हर पन्नों को आज खँगालें
आज लिखें नवगीत कोई
राग नया कुछ आज बना लें
राग सजे अधरों पर ऐसे
सुने हृदय काबू कर जाए
काव्य रचो नव जीवन के
रचे प्राण वायू बन जाये।।

लिख दो मन की बातें सारी
खिल जाए हृद की फुलवारी
रहे कहीं न भेद कोई अब
रहे नहीं कोई लाचारी
खिल जाए मन का उपवन यूँ
अविरत तप जीवन तर जाए
काव्य रचो नव जीवन के
रचे प्राण वायू बन जाये।।

लिखो कलम से सार लिखो
इस जीवन का व्यवहार लिखो
ऐसी बातें लिखो मिलन की
नव जीवन का उपहार लिखो
रचो गीत ऐसे उपवन में
तन मन ये पावन हो जाये
काव्य रचो नव जीवन के
रचे प्राण वायू बन जाये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        09जून, 2021
        हैदराबाद

मलहम फिर क्या दे पाएँगे।

मलहम फिर क्या दे पाएँगे।   

जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

व्यर्थ है अश्रु बहाना उनपर
छोड़ गए फिर क्या आएँगे
मुड़ कर भी ना देखा इक पल
साथ सफर में क्या जाएँगे
छोड़ चले जो बीच सफर में
पास तिरे फिर क्या आएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

नींद में तुझे छोड़ गए जो
सब सपनों को तोड़ गए जो
कुछ दूरी तक साथ चले फिर
बीच राह में छोड़ गए जो
जिनको तेरा साथ न भाया
गीत मिलन के क्या गाएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

जा पलकों के अश्रु से कह दो 
व्यर्थ ना करें अपना जीवन
अवसादों में घिरकर अब वो
झुलसाए ना अपना मधुवन
जिन हाथों ने बाग उजाड़े
पुष्प खिलाने क्यूँ आएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

कितनी बार उठे हैं गिरकर
तब बचपन में चलना आया
कदम कदम पर सीख मिली जब
तब जाकर सच कहना आया
मीठा झूठ जिने भाता हो
वो कड़वा सच क्या पी पाएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

घने अँधेरों ने बोलो कभि
क्या सूरज का पथ रोका है
ऊँचे ऊँचे बंधों ने भी
कब नदिया का पथ रोका है
बन नदिया तू राह चला चल
बंधक सारे गिर जाएँगे
जिन हाथों ने घाव दिए हैं
मलहम फिर क्या दे पाएँगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जून, 2021


रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।

रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।

कितने ही पल बीत गए हैं
तुमसे अब तक मिल ना पाया
भाव हृदय के रीत गए सब
लेकिन कुछ भी कह ना पाया
भावों का अभिप्राय नहीं जब
कहूँ यहाँ मैं किसकी खातिर
अपनेपन का भाव नहीं जब
रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।।

कलुष भावना के प्रतिफल से
रीत रहा है जीवन घट ये
और थपेड़ों से लहरों के
क्षीण हो रहा सरिता तट ये
तटबंधों का मोह नहीं जब
बँधूं यहाँ मैं किसकी खातिर
अपनेपन का भाव नहीं जब
रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।।

मैं प्यासा हूँ संबंधों को
इस जग में कुछ पहचान मिले
भले नहीं कुछ मिले किसी को
पर रिश्तों को सम्मान मिले
रिश्तों के मोती फीके जब
गुहुँ उन्हें मैं किसकी खातिर
अपनेपन का भाव नहीं जब
रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।।

बिना स्नेह के मधुवन में 
कभी पुष्प नहीं खिला करते
बिना प्रेम के जीवन में भी
कभी गीत नहीं सजा करते 
गीत लिखे जब अर्थहीन हों
फिर उन्हें लिखूँ किसकी खातिर
अपनेपन का भाव नहीं जब
रुकूँ यहाँ मैं किसकी खातिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        07जून, 2021
        हैदराबाद



नवा जमाना कइसा।

नवा जमाना कइसा।  

घरे दुआरे अइया बइठइं बाबा करे खरिहानी
नउके लरिके सूट चढ़ाई के खूब करें मनमानी।।
चूल्हा फूँकत उमर गइल निकलल आँखिन के पानी
नई बहुरिया गैस पे भी अब करत हौ आनाकानी।।
खेत गयल खलिहान गयल अउ छूटल सब बाग बगइचा
छूट गयल पगहा गोरु के ई नवा जमाना कइसा।।
खेते डांडे जात न केहू गोड़ में लागे चेंहटा
ऊसर बनत जात अब खेतवा दोष लगावें केहका।।
घरे में जब जब झगड़ा भयल बा बँटल खेत खलिहान
बइठ दुआरे अइया बाबा झंखइ पकरि पकरि के कान।।
जइ लरिका तइ चूल्हा होइगा अब बुढवन जाई कहाँ
थरिया के भाँटा बनि माई बाबू लुढकइ इहाँ उहाँ।।
गाँव गाँव के इहे कहानी दोष लगावइ केहका
ई नवा जमाना कइसन आइल बिगड़त हैं सब लरिका।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जून, 2021



रिश्तों का भँवर।

रिश्तों का भँवर।  

शाम के धुँधलके में कुछ निशाँ छिप गए
कभी हुए मुखर कहीं और कुछ चुप हुए।।

याद की गहराइयों में कुछ चुभे शूल से
अरु रास्तों में बिछे बन के कुछ फूल से
जो भी मिले राह में सीख कुछ दे गए
कभी हुए मुखर कहीं और कुछ चुप हुए।।

मटमैले रिश्तों ने कहानी कई गढ़ी
दर्द के प्रभाव से ही कुछ लिखी कुछ पढ़ी
जो पढ़े किताबों में शब्द सब मिट गए
कभी हुए मुखर कहीं और कुछ चुप हुए।।

वक्त से छूट कर भी कितने अलग हुए
रिश्तों के भँवर में हि कितने उलझ गए
कुछ चले दूर तलक और दूर कुछ हुए
कभी हुए मुखर कहीं और कुछ चुप हुए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जून, 2021



फर्ज की राहें।

फर्ज की राहें। 

गा रहे तुम गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

खेतों में खलिहानों में
बागों में चौबारों में
रात के अंधकारों में
या सूर्य के अंगारों में
तप गए हैं जिसके चरण
तुमने उसको देखा है
गा रहे हो गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

गाँव के पगडंडियों से
शहर की राहें खुली हैं
स्वप्न देखा एक ने जब
साँस दूजे को मिली है
एक की गुमनामियों में
दूजा पलते देखा है
गा रहे हो गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

दूर सीमा पर खड़े हो
मधुरस गीत गा रहे जो
स्वयं को आहूत कर के
देश भाव जगा रहे जो
छुपी उस भावनाओं का
क्या मर्म तुमने देखा है
गा रहे हो गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

मिलेंगी राहें यहाँ जब
नव पथ का निर्माण होगा
जब चलेंगे साथ में जब
स्वप्न सब साकार होगा
उस स्वप्न के साकार का
क्या फर्ज तुमने देखा है
गा रहे हो गीत जिसके
क्या दर्द उसका देखा है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जून, 2021



कहाँ ठिकाना।

कहाँ ठिकाना। 

मंजिलें और रास्ते भी हैं 
पर तुझे कहाँ है जाना
कहो मुसाफिर कहाँ ठिकाना।।

तुम चलो राहें चलेंगीं
तुम रुको राहें रुकेंगी
तेरे संग संग रास्ते भी
लिख रहे नूतन फसाना।
कहो मुसाफिर कहाँ ठिकाना।।

सूर्य, चंदा औ सितारे
चल रहे सफर में सारे
पूछते हैं आज तुझसे
कहो कहाँ तुझको जाना
कहो मुसाफिर कहाँ ठिकाना।।

भूल तुम कैसे गए वो
पंथ था तुमने चुना जो
कर स्वयं को दृढ़ प्रतिज्ञ तू
गढ़ अपना ताना बाना
कहो मुसाफिर कहाँ ठिकाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जून, 2021



कविता में मन।

कविता में मन।  

तू मेरी कविता का धन है
तुझ पर मेरी कलम समर्पित
हर पन्नों पर बिंब तेरा है
तुझ पर मेरा सब कुछ अर्पित।

शब्द शब्द में भाव भरे हैं
औ पंक्ति पंक्ति जीवन मेरा
पृष्ठ पृष्ठ तू बढ़ी यहाँ पर
पुस्तक पर है प्रभाव तेरा।
तुझसे मैंने लिखना सीखा
तुझ पर मेरा भाव समर्पित
तू मेरी कविता का धन है
तुझ पर मेरी कलम समर्पित।।

कहीं रुकी जो राहें मेरी
तुमने ही राह दिखाया है
भटका जब भी कहीं मार्ग से
तुमने ही राह सुझाया है।
तुझसे मैंने जीना सीखा
तुझ पर मेरा जीवन अर्पित
तू मेरी कविता का धन है
तुझ पर मेरी कलम समर्पित।।

मुझको बस वरदान यही दो
जन भावों को लिखता जाऊँ
गीत लिखूँ मैं जन गण मन के
नवगीत नया रचता जाऊँ।
ऐसा कोई गीत लिखूँ मैं
जिससे जग हो सारा गुंजित
तू मेरी कविता का धन है
तुझ पर मेरी कलम समर्पित।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जून, 2021

स्वप्न सुंदर दे गए।

स्वप्न सुंदर दे गए।   

दो घड़ी तुम पास आकर स्वप्न सुंदर दे गये
शांत सागर की लहर में व्यग्र हलचल दे गए।।

गुदगुदा कर भावनाएँ बात अपनी कह दिया
पाश में भरकर मुझे मदहोश ऐसे कर दिया
पुष्प अधरों पर खिले औ नयन में अठखेलियाँ
प्रीत के अहसास से तुमने हृदय को भर दिया।
प्रीत का मधुमास दे श्रृंगार सुंदर दे गए
दो घड़ी तुम पास आकर स्वप्न सुंदर दे गए।।

थम गया था वक्त उस क्षण जब मिले दो प्राण प्रिय
मुक्त बंधन सब हुए थे जब खुले श्रृंगार प्रिय
मन की ड्योढ़ी पे लाखों दीप उस क्षण जल उठे
जब मिले थे दो हृदय ले मुक्त इक अहसास प्रिय।
उस मिलन के क्षण में मधुर गान सुंदर दे गए
दो घड़ी तुम पास आकर स्वप्न सुंदर दे गए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      05जून, 2021

संकट दूर करो रघुवर।

संकट दूर करो रघुवर।  

प्रभु राम सुनो विनती हमरी
सब संकट दूर करो रघुवर
हम बालक हैं नादान अभी
हमको भयमुक्त करो रघुवर।।

प्रभु दीन हीन का तुम बल हो
प्रभु मेरा भी उद्धार करो
प्रभु ज्ञान ध्यान की ज्योति जला
प्रभु अंतस का संताप हरो।
प्रभु मुक्त करो अँधियारों से
जग दमके बनकर के दिनकर
प्रभु राम सुनो विनती हमरी
सब संकट दूर करो रघुवर।।

रोग व्याधि से पीड़ित है जग
चहुँदिस हाहाकार मचा है
जग की सब पीर हरो प्रभुवर
तुमपर ही विश्वास टिका है।
अब सूझ रहा ना कोई पथ
कुछ राह दिखा जाओ प्रभुवर
प्रभु राम सुनो विनती हमरी
सब संकट दूर करो रघुवर।।

भले बुरे हम जैसे भी हैं
हम सब तेरे ही बालक हैं
चरणों मे अपने स्वीकारो
प्रभु दाता तुम हम याचक हैं।
दान भक्ति का हमको देकर
अंतस के पाप हरो प्रभुवर
प्रभु राम सुनो विनती हमरी
सब संकट दूर करो रघुवर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05जून, 2021

चिड़िया रानी।

चिड़िया रानी।  

सुबह सवेरे डाल डाल पर
फुदक फुदक कर आती चिड़िया
सूरज उगने के संग संग ही
मीठा राग सुनाती चिड़िया।।

आँगन आँगन गाना गाती
वन उपवन चहकाती चिड़िया
अँधियारा अब दूर हुआ है
संदेशा पहुँचाती चिड़िया।।

त्यज आलस्य नींद से जागो
मेहनत से कभी ना भागो
मेहनत का पर्याय नहीं है
सबको ये समझाती चिड़िया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05जून, 2021

उम्मीद का सूरज।

उम्मीद का सूरज।  

घने अँधेरों ने बोलो कब
सूरज का पथ रोका है।।

आसानी से कब मिलता है
सागर में मोती बोलो
भरी यहाँ कब सहज भाव से
सपनों की झोली बोलो।
साहस के आगे बोलो कब
कहाँ किसी ने टोका है
घने अँधेरों ने बोलो कब
सूरज का पथ रोका है।।

माना लहरों का शोर बहुत है
औ सागर में हलचल है
तूफानों के बीच निकलना
माँझी का ही कौशल है।
लहरों के घने थपेड़ों ने
माँझी को कब रोका है
घने अँधेरों ने बोलो कब 
सूरज का पथ रोका है।।

हार जीत जीवन के पहलू
इनसे सबका नाता है
वही उठा है पथ में गिरकर
जिसको चलना आता है।
जिसने भी संघर्ष किया है
वक्त उसी का होता है
घने अँधेरों ने बोलो कब
सूरज का पथ रोका है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2021

मुझको गाने दो।

मुझको गाने दो।   

बूँदें बन बरसे हैं बादल
मत रोको मुझको गाने दो।।

बरस बरस यूँ बीत गए हैं
तुमसे नेह लगाए मुझको
भरे हृदय थे रीत गए हैं
सपनों ही में पाए तुमको।
आज मिले हो जो मुझको तुम
फिर से वो स्वप्न सजाने दो
बूँदें बन बरसे हैं बादल
मत रोको मुझको गाने दो।।

बीते कितने दिन जीवन के
इस ड्योढ़ी को तकते तकते
कितनी बार रुके अधरों पर
शब्द यहाँ कुछ कहते कहते।
ये पल फिर आये ना आये
सब आज मुझे कह जाने दो
बूँदें बन बरसे हैं बादल
मत रोको मुझको गाने दो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2021



करवट।



करवट।  

हैं बड़ी नादान रातें ये सितारे भी समझते हैं
मगर आगोश में आयें नजारे भी तरसते हैं।।

किसी का साथ जब होता है मौसम भी हसीं लगता
बिछड़ कर आसमानों से कहाँ बादल बरसते हैं?

गुजर जाते हैं ये लम्हे भी यादों के झरोखों से
अकेले  हो गये जब भी बड़ी मुश्किल गुजरते हैं।

कहें किससे ये बातें औ सुनाएँ दास्ताँ किसको
अकेली  रात जब भी है तो बस करवट बदलते हैं।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून, 2021

स्वयं से है संघर्ष अपना।

स्वयं से है संघर्ष अपना।  

चल रहा हूँ भीड़ में मैं
होड़ पर खुद से मची है
मंजिलों की दौड़ है औ
द्वंद अंतस में खिंची है।।
विजित रहूँ या अविजित मैं
परिणाम को नहीं तकना
चल पड़ा हूँ राह में मैं
स्वयं से है संघर्ष अपना।।

मैं वही हूँ जो वहाँ था
अब यहाँ हूँ कल कहाँ था
वक्त का है खेल सारा
मुक्त कोई कब यहाँ था।
बंधनों के बीच रहकर
स्वयं को है मुक्त रखना
चल पड़ा हूँ राह में मैं
स्वयं से है संघर्ष अपना।।

मिल गया इस पंथ में जो
स्वीकार उसको कर लिया
यज्ञ की आहूती बनकर
स्वयं से ही मिल लिया
मोक्ष के इस हवन में फिर
सुनूँ किसी की क्यूँ गर्जना
चल पड़ा हूँ राह में मैं
स्वयं से है संघर्ष अपना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून, 2021





व्यथा।

व्यथा।   

जब रात के आगोश में
भोर कोई पल रहा था
सो रहा था जग जहाँ पर
मौन कोई चल रहा था।।

नींद पलकों पर रुकी थी
स्वप्न ड्योढ़ी पर खड़े थे
भावनाओं के समर में
शब्द पर पहरे बड़े थे।
रात की तन्हाइयों में
दीप चुप चुप जल रहा था।
सो रहा था जग जहाँ पर
मौन कोई चल रहा था।।

रात की अपनी व्यथा है
औ दिवस की है कहानी
बीच में पिसती रही है
जाने कितनी जिंदगानी।
है सदी का घाव जिसको
वक्त पल पल सिल रहा था
सो रहा था जग जहाँ पर
मौन कोई चल रहा था।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जून, 2021

संबंध।

संबंध।   

शब्दों का पर्याय जहाँ हो
संबंध वहीं पर खिलते हैं।।

दूर तलक जाती राहों पर
लाखों पग डग भरते हैं
कुछ चलते हैं साथ साथ 
कुछ बीच राह बिछड़ते हैं।
साथ चले जो पग राहों में
अभिप्राय उन्हीं के बनते हैं।
शब्दों का पर्याय जहाँ हो
संबंध वहीं पर खिलते हैं।।

सबके मन के भावों को
पिरो बना मोती की माला
एक पंक्ति में भगवद्गीता
दूजे में यज्ञों की ज्वाला।
यज्ञ जहाँ पर होते हैं
उपहार वहीं पर मिलते हैं
शब्दों का पर्याय जहाँ हो
संबंध वहीं पर खिलते हैं।।

कर्तव्यों की ड्योढ़ी पर ही
अधिकार फला फूला करते
जहाँ सुमति है परिवारों में
पुण्य प्रभाव मिला करते।
अधिकारों को सम्मान वहीं
कर्तव्य सभी मिल करते हैं
शब्दों का पर्याय जहाँ हो
संबंध वही पर खिलते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जून, 2021






तुम हमारे हो ना पाए।

तुम हमारे हो ना पाए।   

नयन में भर नीर कितने
एक दिन तुमने कहा था
है बहुत अफसोस तुमको
गीत संग संग गा ना पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

था वो नदिया का किनारा
हो गया बोझल सहारा
अधरों में कंपन बहुत था
मुक्त लेकिन मिल न पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

था हृदय में शोर कितना
पर जगत था मौन सारा
सुन रही थी साँझ चुप हो
बात लेकिन कह न पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

शेष थे जो शब्द झलके
अश्रु बन पलकों से छलके
स्वयं से था तब मैं हारा
वो गीत फिर से गा न पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

अब तुम कहीं औ मैं कहीं
पर रास्ते अब भी वहीं
चल रहीं राहें अभी तक
लेकिन हम तुम चल न पाए
तुम हमारे हो ना पाए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01जून, 2021

उम्मीदों की लाली

उम्मीदों की लाली।  

मुक्त गगन में खोज रहा हूँ
इक उम्मीदों की लाली
उदास दिवस रहेगा कब तक
क्यूँ रात रहेगी काली।।

देख रहा सूरज को मैं भी
हर रोज गगन में तपते
रातों को भी देखा हमने
बस सूरज को ही तकते।
रातों के सूनेपन की भी
करती किरणें रखवाली
मुक्त गगन में खोज रहा हूँ
इक उम्मीदों की लाली।।

शब्द शब्द अधरों से छनकर
गीत सुनहरे बन जाते
भावों का परिधान पहनकर
रूप मनहरे बन जाते।
मनहर गीतों ने महकाई
है मन उपवन की डाली
मुक्त गगन में खोज रहा हूँ
इक उम्मीदों की लाली।।

ढूँढ़ रहा भावों में जीवन
भटक रहा मारा मारा
घनी अँधेरी इन रातों में
किरणें ही बनीं सहारा।
रातों के इस सूनेपन ने
किरणों से आशा पाली
मुक्त गगन में खोज रहा हूँ
इक उम्मीदों की लाली।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       31मई, 2021

अधरों का पुष्प।

अधरों का पुष्प।   

तुम जब भि साथ रहते हो मुझे कोई गम नहीं होता
मिला जो कुछ भी मुझे तुमसे कभी भी कम नहीं होता
कहे कुछ भी कोई लेकिन यही समझा है मैंने की
मोहब्बत करने के लिए कोई मौसम नहीं होता।।

तुम्हारा साथ मुझे पल पल यही अहसास देता है
सुरक्षा का समर्पण का हरपल मुझे आभास देता है
तुम्हारे साथ हि अब हमने लिखी अपनी कहानी है
तुम्हें देखूँ मैं जब जब भी मुझे विश्वास होता है।।

तुम्हारी चाह का दीपक हमेशा दिल में जलता है
तुम्हारे जिक्र से हरपल सुकून दिल को मिलता है
खिलते होंगे हजारों पुष्प भले ऋतुओं की मर्जी से
मगर अधरों का ये पुष्प तेरे अधरों से खिलता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31मई, 2021

उम्र का सफर।

उम्र का सफर। 

हाय मुझे ऐसे मत देखो
ये दिन तुम पर भी है आना
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

उम्र से अपनी होड़ मची है
कदम कदम पर डोर जुड़ी है
चला जा रहा हूँ राहों पर
मुड़ा जहाँ पर छोर मुड़ी है।
मेरे बालों की चाँदी में
छुपा जहाँ का मुक्त खजाना
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

माथे पर ये खिंची लकीरें
और चेहरों की रेखाएँ
पल पल कहती एक कहानी
अनुभव की गाती गाथाएं।
माथे की सिलवट से ही
मैंने जग को है पहचाना
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

माना मेरे दाँत गिर रहे
और कमर में दर्द उठ रहा
अब पैरों में भी कंपन है
और आंखों से कम दिख रहा।
तन की सुंदरता से ज्यादा
मन को मैंने है पहचान
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

रात दिवस का खेल सभी है
एक उगा तो एक ढली है
माना अलग अलग राहें हैं
इक दूजे से सभी मिली हैं।
मिली जुली इन्हीं राहों पर
जीवन का है ताना बाना
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मई, 2021

दीवाना।

दीवाना। 

ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा
कहा कुछ भी नहीं लेकिन ये कब अफसाना बन बैठा।।

तुम्हीं आते हो नजर मुझको के इन कलियों नजारों में
तुम्हारी खुशबू है फैली इन फिजाओं में बहारों में
जो यहाँ तुम हो शमा इक तो मैं भी परवाना बन बैठा
ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा।।

तुम्हारी चाहतों का दीपक जलाकर दिल में बैठा हूँ
तुम्हारे स्वप्नों से मैं स्वप्न मिलाकर अपने बैठा हूँ
ये मेरा दिल भी जाने कब भरोसा तुमपे कर बैठा
ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा।।

तुम्हीं से हो शुरू तुम तक ये कहानी मेरी जाती है
मेरी हर साँस की सरगम बस तुम्हारे गीत गाती है
तुम्हीं हो इस साँस की वीणा तुम्हें धड़कन बना बैठा
ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा।।

कहूँ अब और क्या तुमसे के फकत इतनी ही कहानी है
कि अब तुमसे ही मेरे जीवन की दरिया में रवानी है
जो तुम सागर की लहर हो तो किनारा मैं भी बन बैठा
ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29मई, 2021

वक्त कब ठहरा है।

वक्त कब ठहरा है।   

गीत सुनाते चलो बटोही
वक्त रुका कब, जो ठहरेगा
रहा अधूरा गीत कोई तो
नया गीत कैसे पनपेगा।।

काली घटा घिरी गगन में
रिमझिम तेज फुहारें आईं
अगले ही पल बादल में
किरणों की सौगातें आईं।
रुके नहीं काले बादल जब
तूफान यहाँ कब ठहरेगा
गीत सुनाते चलो बटोही
वक्त रुका कब जो ठहरेगा।।

सही वक्त को शस्त्र बनाओ
गीत रचो नव गीत बनाओ
सुखन किरण मिले कहीं जब
आशाओं के दीप जलाओ।
माना सुख के पल छोटे थे
तो दुख भी कितने दिन ठहरेगा
गीत सुनाते चलो बटोही
वक्त रुका कब जो ठहरेगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मई, 2021






पहचान।

पहचान।  

किसने कब चाहा है जग में
के पहचान पुरानी हो
सबकी अपनी बातें हों औ
सबकी एक कहानी हो।।

जीवन का पथ चाहे मुश्किल
या कितनी ही बाधा हो
चलें निरंतर विश्वासों से
पूर्ण सभी अभिलाषा हो
जिस जिस पथ पर कदम पड़े हों
सब पर अमिट निशानी हो
किसने कब चाहा है जग में
के पहचान पुरानी हो।।

बीते पल की सारी बातें
छोड़ पुरानी आघातें
बनकर दीप जले राहों में
रोशन हों अँधियारी रातें
छँटे अँधेरा उम्मीदों से
सस्मित सभी कहानी हो
किसने कब चाहा है जग में
के पहचान पुरानी हो।।

यहाँ समर में सभी डटे हैं
जीवन का अहसास लिए
सभी अड़े हैं तूफानों में
मुट्ठी में आकाश लिए
सबकी अपने कर्तव्यों की
गुंजित सदा कहानी हो
किसने कब चाहा है जग में
के पहचान पुरानी हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मई, 2021


संगिनी।

संगिनी।   

रीत निभाने चली संगिनी
भावों का विन्यास लिए
उर में अपने मधुर स्वप्न ले
खुशियों का आकाश लिए।।

छोटे छोटे पल की सारी
यादों को अनुशासित कर
अपने हृद के मृदु भावों को
दूजे में विस्थापित कर
मन में भरकर सपन सुहाने
पलकों में मधुमास लिए
रीत निभाने चली संगिनी
भावों का विन्यास लिए।।

सखियाँ छूटी गलियाँ छूटी
अल्हड़पन की बतियाँ छूटी
खेल खिलौने हुए पुराने
बीती सारी बतियाँ छूटी
नूतन शब्दों की आहट ले
प्रीत रीत का अनुप्रास लिए
रीत निभाने चली संगिनी
भावों का विन्यास लिए।।

जीवन के हर इक पथ पर 
एक दूजे संग चलना है
फूल मिले या काँटे पथ में
हँसकर आगे बढ़ना है
एक हाथ कर्तव्य निभाते
दूजा मधु आकाश लिए
रीत निभाने चली संगिनी
भावों का विन्यास लिए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मई, 2021


व्याकुल मन।

व्याकुल मन।  

ऐ मेरे मन मुझे बता दो तुझमें छिपा जो राज
क्यूँ व्याकुल हो रहा चित्त और मौन पड़ा क्यूँ साज।।

कितनी गहरी दुनिया तेरी
थाह कहाँ से मैं पाऊँ
कैसे समझूँ दर्द तेरा मैं
और तुझे क्या समझाऊँ।।
तुम ही बोलो मौन हुआ क्यूँ पपीहे का वो राग
क्यूँ व्याकुल हो रहा चित्त और मौन पड़ा क्यूँ साज।।

कई बार टकराया तुझसे
पर राज समझ ना आया
कितने ही पल तुझे पुकारा
पर पास तुझे ना पाया।।
कैसा दर्द मिला है तुझको ये मुझे बता दो आज
क्यूँ व्याकुल हो रहा चित्त और मौन पड़ा क्यूँ साज।।

नैनों के कोरों पर कितनी
तरल तरंगें विचलित हैं
भावों को कहने को कितनी
मौन लकीरें मुखरित हैं।।
आज मुखर हो मुझसे कह दो तुझमें छिपा जो राज
क्यूँ व्याकुल हो रहा चित्त और मौन पड़ा क्यूँ साज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मई, 2021
       



प्रणय भाव।

प्रणय भाव।  

मेरे सूने अंतर्मन पर सुधि बनकर छा जाता 
ऐसा कोई होता जो प्रणय भाव समझा जाता।।

पलकों में अपने भर करके नवल नेह का काजल
आँचल में अपने भरकर के आशाओं के बादल
स्मृतियों के सूनेपन को हौले से सहला जाता
ऐसा कोई होता जो प्रणय भाव समझा जाता।।

कभी सजाता सपन सलोने कभी आस की ज्योती
कभी मधुर मधुमास जगाता कभी प्रेम के मोती
नैनों की चितवन से फिर नूतन राह दिखा जाता
ऐसा कोई होता जो प्रणय भाव समझा जाता।।

मूक वेदना को स्वर देता श्वाशों में मृदु कंपन
अधरों पर मुस्कान जगाता दे हौले से चुंबन
मधुर स्वरों में गीत सजा अंतस को बहला जाता
ऐसा कोई होता जो प्रणय भाव समझा जाता। 

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24मई, 2021


एक दर्द।

एक दर्द। 

दर्द आँखों में छुपा जो दिखाऊँ कैसे
बात जो दिल में चुभी है बताऊँ कैसे।।

तुम भी हो हम हैं औ जमाने का चलन भी
घाव पर जिससे मिला है निभाऊँ कैसे।।

तुम तो कहते थे के ना रूठोगे कभी
अब जो रूठे हो तुम तो मनाऊँ कैसे।।

गीत कितने ही लिखे हैं तुम्हारी खातिर
बिन तेरे कह दो तुम्हीं कि गाऊँ कैसे।।

कैसे कह दूँ के अब मुझे कुछ याद नहीं
पल जो गुजरे तिरे संग मैं भुलाऊँ कैसे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23मई, 2021

प्रभु की आराधना।

प्रभु की आराधना।  

छोड़ दी मँझदार में ये नाव अब तेरे सहारे
है ये तेरे हाथ में कैसे मुझको तू उबारे
तू ही मेरी आस है औ तू मेरा विश्वास है
अब डुबो दे तू मुझे या पार मुझको तू उतारे।।

इस जिंदगी के युद्ध में हरपल तू मेरे साथ है
जो तू कह दे दिन हैं मेरे तू कहे तो रात है
तेरे दया के दीप से जगमगा रही है जिंदगी
मुझको क्या चिंता के मेरे सर पे तेरा हाथ है।।

आप ही हो अर्चना और आप ही आराधना हो
आप ही चिंतन हो मेरा औ आप ही साधना हो
आपसे ही हैं जुड़ी हर श्वासें जीवन की मेरे
जब उठे हाथ मेरे प्रभु बस आपकी अरचना हो।।

छोड़ दी मँझदार में ये नाव अब तेरे सहारे
है ये तेरे हाथ में कैसे मुझको तू उबारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19मई, 2021

अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।

अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

गा लिए तुमने सभी क्या गीत थे जी भी सुरीले
शब्दों के तूणीर में क्या बस बचे तेरे शोले
है ये कैसी वेदना और कैसा ये उन्माद है
आरती के क्षण ने देखे युग विरह के क्यूँ हठीले।
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

हैं आज फिर बरसे नयन से शब्द की क्यूँ वेदना
और विस्मृत हो गयी क्या वो मुक्तिकामी चेतना
प्रेम के इस मौन क्षण में व्योम हैं कैसे हठीले
खो गए अवसाद में क्या रूप जो तेरे सजीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

ज्वार के क्षण में भी तुमने बस प्रेम आलिंगन दिए
औ नेह का वटवृक्ष बनकर छाँव आवंटन किये
खो गए क्यूँ नेह के सब ओस सारे जो रसीले
और विस्मृत हो गए क्यूँ कंठ के वो स्वर सुरीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

जिस अहसास के स्पर्श से मधुमास था जागा कभी
जिस हृदय के अंक में मृदु श्रृंगार था जागा कभी
और जिसके अनुराग का संसार नतमस्तक रहा
उस हृदय के अंश में क्यूँ आज आये अश्रु गीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

बाँट कर आकाश सारा जो स्वयं किंचित में रहे
पंथ के हर शूल को भी जो स्वयं पुलकित हो सहे
वेदना का भार सभी मौन जिसने हो के झेला
उसके अंतस में जगे क्यूँ दर्द के ये मौन शोले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2021

व्यथा रात की।

व्यथा रात की।   

जो व्यथा थी रात की कब भोर ने समझा यहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।

बाँचती अपनी व्यथा कब रात जाने सो गयी
भोर की आगोश में घिर स्वयं को ही खो गयी।
खो गए संकल्प सारे जो किये उसने कभी
रात के अवशेष में ही आस नूतन फिर जगी।

छिप गये ख्वाब कितने मौन इन परछाइयों में
खो गए संवाद क्या वक्त की गहराइयों में
मौन के उस घाव को फिर कौन समझेगा यहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।।

दर्द मिला जो रात को सब दिवस का ही दंश है
और टूटी आस जो निज गलतियों का अंश है
छोड़ कर अफसोस सारे आस का दीपक जला
औ तिमिर के ज्वार में भी ज्ञान का दीपक जला।

है समय की बात ये सब बीतता जीवन यहाँ
और उसके तेज से कुछ छूटता है कब यहाँ
पर घुटी जो मौन में अब चीख है जाने कहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2021

कैसे समझाओगे।

कैसे समझाओगे।   

जीवन रचने वाले बोलो 
कैसे अब समझाओगे
भटक चुकी राहों को बोलो
क्या नूतन राह दिखाओगे।।

युगों युगों में लगकर तुमने
सुंदर जीवन निर्माण किया
औ कितनी ही आशाओं से
फिर उसमें नूतन प्राण दिया।
खग, मृग, और पशु पक्षी सारे
सब नव जीवन की आशा हैं
इक दूजे से सभी जुड़े हैं
जुड़ी सभी की अभिलाषा है।
अभिलाषा के मूल तत्व को
फिर फिर क्या बतलाओगे
नूतन जीवन रचने वाले
कैसे अब समझाओगे।।

गगन बनाई धरा बनाये
दरिया औ सागर मिलवाये
झील ताल और पर्वत कितने
झरने मीठे गीत सुनाए।
दिवस बनाई रात बनाये
ऋतुओं का मधुमास खिलाये
जन जन का जीवन पुलकित कर
उपवन का वनवास मिटाए।
घाव मिल रहे जो उपवन को
बोलो कैसे दिखलाओगे
नूतन जीवन रचने वाले
कैसे अब समझाओगे।।

पाप और पुण्य बनाकर के
जीवन को इक रूप दिया है
कभी दिए हैं छाँव कहीं पर
और कहीं पर धूप दिया है।
पर निज इच्छा की खातिर 
गहन अंध में डूब रहे जो
प्रकृति के सभी उपहारों को
रह रह करके लूट रहे जो।
लूट रहे इन उपहारों को
फिर बोलो कौन बचाएगा
जो आवरण में छुप गये तुम
फिर दीपक कौन जलाएगा।।
गहन अंध में डूबे मन को
तुम ही राह दिखाओगे
जीवन रचने वाले बोलो
कैसे अब समझाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17मई, 2021




अवरोधों का राही।

अवरोधों का राही।  

मुश्किल हैं राहों में माना 
पर तुझको तो चलना होगा।।

मन की भाषा पढ़ने को
मन से मन को आज मिला लो
गुजर रही इस बेला में
पुष्प नया फिर आज खिला लो।
हो मनुज तो मनुजता का
भाव हृदय में आज जगा लो
गीत रागनी छेड़े जब जब
अपनी भी आवाज मिला लो।

त्याग, समर्पण, प्रेम, भाव
संवाद हृदय में पलना होगा
मुश्किल हैं राहों में माना
पर तुझको तो चलना होगा।।

ये जिंदगी एक गीत है
औ रागिनी है प्यार की
साथ तेरे कट रही जो
है रुत वही बहार की
राग में जो बीतती है
उस जिंदगी का अर्थ है
औ रात वो जो घट चुकी
अब शोक उसका व्यर्थ है।

हैं भाव हृदय में जो तेरे
आज उसे कहना होगा
मुश्किल हैं राहों में माना
पर तुझको तो चलना होगा।।

सहज भाव है अभिव्यक्ती है
जीवन ही तेरी शक्ती है
होंगे अगणित मार्ग सभी के
उद्द्यम ही तेरी भक्ती है।
दूर शिखर तक जाना तुझको
तरुणाई अभि बाकी है
दुर्गम राहों को गढ़ने में
तू ही तेरा साथी है।

अपना साथी बनकर तुझको
अवरोधों से लड़ना होगा
मुश्किल है माना राहों में
पर तुझको तो चलना होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2021




जंग अभी भी बाकी है।

जंग अभी भी बाकी है।  

थक कर बैठ नहीं तुम जाना
जंग अभी भी बाकी है
अभी तो केवल चित्र बने हैं
रंग अभी भी बाकी है।

छोटी छोटी उम्मीदों का
है भार तुम्हारे काँधों पर
कितनी ही आशाओं का
अनुमान तुम्हारे काँधों पर।

अगणित पलकों में सपने हैं
इंतजार अभी भी बाकी है।
थक कर बैठ नहीं तुम जाना
जंग अभी भी बाकी है।।

तुमने जो उद्देश्य चुने हैं
दुष्कर हैं अत्यंत माना
दृढ़ इच्छाशक्ती ने तेरे
अवरोधों को कब पहचाना।

मार्ग के सभी अवरोधों का
आलिंगन अब भी बाकी है।
थक कर बैठ नहीं तुम जाना
जंग अभी भी बाकी है।।

बने बिगड़ते इस जीवन में
तेरा भी तो हिस्सा है
होगी सबकी लाख कहानी
तेरा भी कुछ किस्सा है।

अपने हिस्से के किस्से की
पहचान बनाना बाकी है।
थक कर बैठ नहीं तुम जाना
जंग अभी भी बाकी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2021


तीन बाल कविताएँ।

तीन बाल कविताएँ

बिल्ली बोली म्यायूँ म्यायूँ
कौआ बोले काँव काँव
हाथी बोला सूंढ़ उठाकर
चलो घूमने गाँव गाँव।।1।।

बंदर मामा चले घूमने
ले झोला शॉपिंग मॉल में
देख मिठाई जी ललचाया
बैठ गए वहीं हॉल में।।

एक मिठाई उठा लिए जब
मालिक ने पैसा माँगा
मुँह चिढ़ा कर बंदर मामा
फिर झोला लेकर भागा।।2।।

लोमड़ मौसी चली घूमने
आज शहर की ओर
सूट बूट औ चश्मा पहने
लगीं खूब मचाने शोर।।

सुनकर शोर आयी पुलिस
डंडा लेकर हाथ में
और पकड़कर पुलिस ले गयी
उनको अपने साथ में।।

उठक बैठक उन्हें कराई
और फिर वसूली फीस
बेचारी कुछ कह ना पाईं
चुपचाप निपोरी खीस।।3।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2021


नूतन जीवन।

नूतन जीवन।  

साँसों पर कैसा पहरा है
संताप यहाँ क्यूँ गहरा है
क्यूँ जंजीरें है पैरों में
ये सन्नाटा क्यूँ पसरा है।

उम्मीदों के आकाशों पर
ये आशंका क्यूँ भारी है
क्यूँ सहमे सहमे लोग पड़े
है कैसी ये लाचारी है।

सन्नाटे अब चीख रहे हैं
आवाजें अब मौन पड़ी हैं
मंजिल मंजिल राह चली जो
अवरोधों में रुकी पड़ी है।

रुकी कहानी मध्यांतर में
उसको फिर से कहना होगा
अवसादों से बाहर आकर
नूतन जीवन रचना होगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2021


मौन मुसाफिर मेले में।

मौन मुसाफिर मेले में।  

इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।

इन राहों में भीड़ बहुत है
कहने को तो नीड़ बहुत है
बहुत दूर तक सफर घनेरे
मंजिल तक कितने हैं फेरे।
इन फेरों के चक्रव्यूह में
संग संग सबके मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

इच्छाओं का भार लिए सब
मंजिल मंजिल भटक रहे हैं
कुछ को छाँव मिली राहों में
कुछ तापों में चिटक रहे हैं।
धूप छाँव के खेल में घिरा
छोटी अभिलाषा मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

होंगे सबके लाखों सपने
है अपना बस अरमान यही
रहती दुनिया के गीतों में
हो छोटा सा ही नाम सही।
आशाओं के इस मेले में
इक दीप जलाए मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2021

नूतन इतिहास रचना है।

नूतन इतिहास रचना है।  

नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा
नहीं जानने की चाहत है
साथ हमारे कौन पलेगा।

अनजानी उन राहों में भी
कुछ तो सत्य छिपा होगा
राह भले दुर्गम हो कितनी
मौन कोई चला तो होगा।
दुर्गम देख राह जो बदली
फिर बोलो के कौन चलेगा।
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

अगणित प्रश्नों के नश्तर से
रुख अपना मोड़ नहीं सकता
नाकामी से डरकर के मैं
ये रस्ता छोड़ नहीं सकता।।
छोड़ दिया जो राहों को फिर
तुम ही बोलो कौन चलेगा
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

माना राहें ये मुश्किल हैं
पर इनपर तो चलना होगा
लोग चले हों पदचिन्हों पर
पदचिन्ह नया रचना होगा
इतिहासों को दोहराएँ तो
इतिहास नया कौन रचेगा
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14मई, 2021

दिल का दर्द।

दिल का दर्द।  

जग के तानों से आहत हो
पलकों से सागर बहता है
जब चोट हृदय पर लगती है
औ दंश हजारों सहता है
जब मन के भीतर शब्दों का
इक सागर मंथन करता है
तब दर्द उमड़ कर जगता है
दिल खुद से बातें करता है।।

अपने जब नाते तोड़ चलें
औ बीच राह जब छोड़ चलें
जब उम्मीदें बेमानी हों
जब बीती सभी कहानी हों
जब नींद आँख को छोड़ चले
सपने भी पलकें छोड़ चलें
मन गीत नया फिर रचता है
दिल खुद से बातें करता है।।

विरह वेदना के सागर में
अंतस का दीपक रोता है
जब चोट कहीं भी लगती है
और दर्द हृदय में होता है
जब शब्दों की फुलवारी से
कोइ मौन शब्द बिछड़ता है
तब पीड़ा सहने की खातिर
दिल खुद से बातें करता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13मई, 2021


तराना प्रेम का।

तराना प्रेम का।  

प्यार में दो कदम तुम चलो तो सही
बात दिल की कभी तुम कहो तो सही।
है ये वादा मेरा हर घड़ी साथ हूँ
कभी यूँ ही जरा तुम मिलो तो सही।।

प्रीत की रीत कितनी सुहानी यहाँ
लोकगीतों में सुनी कहानी यहाँ
हीर राँझा कहो सोहनी महिवाल
याद सबके लवों पर जुबानी यहाँ।।

चलो हम तुम गढ़ें इक नया प्रेम ग्रंथ
चलो हम तुम रचें इक नया प्रीत पंथ
जिसपे चल कर जहाँ ये सुहाना लगे
और गूंजे दिलों में नया प्रीत मंत्र।।

तुम चलो हम चलें फिर उसी राह पर
गीत नूतन लिखें हम उसी राह पर
हर लवों पर हमारे फसाने रहें
सदियों तलक गूँजते  तराने रहें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        13मई, 2021

पिता।

पिता।  

जिंदगी की धूप में चुपचाप कोई चल रहा है
देकर के हमको छाँव ताप में खुद जल रहा है।
चट्टान सा है सख्त पर भीतर से वो मोम है
पुण्यता का है प्रतीक और मंदिरों का ॐ है।
अनुभवों का ज्ञान है और प्रेम है विश्वास है
नन्हीं नन्हीं उँगलियों के आस का आकाश है।
रास्तों की धूप में वटवृक्ष की शीतल छाँव है
तूफानों को चीर दे उम्मीद की वो नाव है।
हालात कैसे भी रहे उफ नहीं करते यहाँ
पैर के छालों को हरदम फूल वो समझे यहाँ।
बैठ कर काँधों पे जिनके देखा है हमने जहाँ
स्वेद बूंदों से भी जिनके मृदुलता बरसे यहाँ।
मंजिलों को नापने को ताउम्र जो चलते रहे
औ जिनके काँधों पर मासूम स्वप्न पलते रहे।
जिनके पलकों की नमी देव भी न देख पाए
औ जिनके हौसलों को मुश्किलें न रोक पाए।
जिसने सिखलाया हमें के क्या बुरा है क्या भला
अनुभवों के छाँव तले वक्त जिनके हरदम पला।
जिसने सबको है सिखाया पंथ प्रतिपल जीत का
पाठ प्रतिपल है पढ़ाया मनुष्यता से प्रीत का।
जिसने सिखलाया है सदा मूल मंत्र बस कर्म का
जिसने दिखलाया है हमें राह प्रतिपल धर्म का।
उपनिषद हैं वेद हैं गीता का पूरा सार हैं
कहने को बस पंक्ति है पर शब्दों का संसार है।
संतान के सुख के लिए जो हर दर्द भूल जाते हैं
वो पिता ही हैं जो जिम्मेदारियाँ निभाते हैं।
जिसकी इक मुस्कान से ही खिल उठे सारे चमन
पिता के निश्छल प्रेम को शत शत है अपना नमन।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         12मई, 2021




अजनबी रात अपनी हो गयी।

अजनबी रात अपनी हो गयी।  

अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है
ख्वाब में थी बात की जो
बात अपनी हो गयी है।।

तुम जो आये जिंदगी में
ख्वाब में उड़ने लगे हम
साथ तेरे गीत कितने
प्रीत के बुनने लगे हम।
कल तलक जो दूर हमसे
साज अपने हो गए हैं।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

दो नैनों ने कह डाली
मन की वो सारी बातें
तुम बिन कैसे दिवस ढले
कैसे काटी हैं रातें।
कल तलक जो बेगानी थी
रात अपनी हो गयी है।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

चाहता है दिल हमारा
ये रात यूँ सजती रहे
चाँदनी का ये सफर अब
यूँ साथ ही चलती रहे।
दिल में अभी तक जो छुपे
राज अपने हो गए हैं।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10मई, 2021

राहों की धूल।

राहों की धूल।   

कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं
कभी न कहना उन बातों को
जिनका कोई मूल नहीं।।

सुन कर जन की विरह वेदना
मूक शब्द रह जाएं जब
और देख कर जन की पीड़ा
मौन नयन रह जाएं जब 
ऐसे व्यवहारों का जग में
रहता कोई मोल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

जग के सारे संतापों में
जिनको अवसर दिखता है
और जहाँ के अवसादों में
मौका अकसर दिखता है
उन लोगों से बचना जिनके
हृद में चुभती शूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

समय चक्र का खेल है सारा
कौन यहाँ कब रुकता है
आज चढ़े जो आकाशों पर
उनका सिर भी झुकता है
झुका शीश जो कभी कहीं तो
उसको समझो भूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

जीवन की गोधूली बेला 
कितना अनुभव देती है
पथ के सारे किंतु परन्तु को
वो संभव कर देती है
धूल नहीं माथे का चंदन
समझो इसको भूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मई, 2021

इक सरल अनुवाद

इक सरल अनुवाद।   

ढूँढता हूँ पंक्तियों में मोक्ष का संवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

यूँ लिखी सबने बहुत है जिंदगी की गीतिका
राह भी सबने दिखाई संग सबके प्रीत का
सत्य हैं सबके अलग पर मार्ग सबके एक हैं
चल रहे जिस पर सभी वो पंथ है पर जीत का।

ढूँढता हूँ पंथ में उस प्रीत का अनुनाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

सबकी अपनी है व्यथा सबके अपने रास्ते
कोई लिखता औरों पर कोई खुद के वास्ते
और कितनी बात कह दी छंद के आकार में
गीतों गज़लों में कही और कही व्यवहार में।

ढूँढता हूँ पंक्तियों में वो सकल संवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

मौन मैं भी लिख रहा हूँ पंक्ति में अपनी व्यथा
सत्य मानो तुम इसे या फिर इसे मानो कथा
रोज लिखता हूँ यहाँ मैं जिंदगी की एक गजल
और देखा खुद को जब पलकों को पाया सजल।

ढूँढता हूँ पलकों में गीतों का अभिवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 मई, 2021

नूतन प्रतिमान।

नूतन प्रतिमान।   

नवयुग का साक्षी बनने को
मौन अकेले आज चलाचल
स्थापित प्रतिमानों से आगे
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

मानवता की व्यापक दृष्टी
भावों में तू छलकाए जा 
संकीर्ण भाव परे त्यागकर
सबको हँसकर अपनाए जा।।

कालखंड का उद्देश्य यही
तू नूतन पथ गढ़े चलाचल
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

जन जन की पीड़ा को अपने
शब्दों में संयोजित करना
स्मृतियों के पुण्य लकीरों को
भावों में सुनियोजित करना।

हर हृद के भावों को पढ़कर
पुण्यश्लोक सम्मान गढ़े चल।
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

नित प्रति जीवन संघर्षों की
विराट कहानी लिखता है
जैसी दृष्टी डालो जग पर
वैसा ही जग दिखता है।

तोड़ यहाँ के किंतु परंतु सब
तू नूतन अनुमान गढ़े चल।
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07मई, 2021







चूल्हे में उल्लास।

चूल्हे में उल्लास।  

मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ 
घर की चकरी बंद पड़ी है
कैसा है वनवास यहाँ।।

पल पल कानों में जैसे
पदचाप सुनाई देती है
दूर दूर तक राहों में
बस आस दिखाई देती है।

आशाओं का झुरमुट है पर
सपनों का अवकाश यहाँ
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

भूखी प्यासी सड़क चली है
बंद गली थी आज खुली है
नन्हें नन्हें पैरों में भी
उम्मीदों की ओस घुली है।

पर पलकों के छाँव तले अब
आँसू को विश्राम कहाँ।
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

साँसों को आराम कहाँ अब
रह रह कर आती जाती हैं
इधर उधर फिरती रहती है
आराम कहाँ वो पाती है।

कितने घाव छुपा सीने में
राह चली अब मौन यहाँ।
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

इसका अंत कहीं तो होगा
मुक्त कंठ कभी तो होगा
कहीं मिलेगा ठौर ठिकाना
कोई तंत्र कहीं तो होगा।

जहाँ मिलेंगी खुशियाँ सारी
उम्मीदें औ उल्लास जहाँ
वहीं हँसेगी फिर से चिमनी
चूल्हे में उल्लास वहाँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2021





छोटी सी अरज।

छोटी सी अरज।  

आकाशों पर रहने वाले
चरण धूलि हम धरती के
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

युग जाने कितने बीत गए
हम भरे कहाँ जो रीत गए
युग युग का बस दरद यही है
हम लड़े यहाँ तुम जीत गए।।

तुम राजनीति के शीर्षपुंज
हम अदना दीपक धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के 
हम रहने वाले बस्ती के।।

बरसों से हमने वादों पर
पल पल विश्वास जताया है
तुम साथ चले या छोड़ दिये
हमने तो साथ निभाया है।।

तुम वादों के व्यापारी हो
हम अदना याचक धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

यूँ लोकतंत्र के मंदिर में
संवाद बहुत ही गहरे हैं
पर बरसों से लगता ऐसा
होठों पर कितने पहरे हैं।

व्योम पटल पर मुक्त प्रवाहक
हम मौन नियंत्रित धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

कभी हमारे साथ चलोगे
तब दरद हमारा समझोगे
मुक्त हृदय से कभी मिलोगे
तब मरम हमारा समझोगे।

विपुलता के शीर्ष बिंदु तुम
औ अकिंचन हम हैं धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2021



स्मृतियाँ।

स्मृतियाँ।  

धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।

मन का साथी ढूंढ रहा है
पहले वाला दीवानापन
और घटायें चाह रही हैं
फिर वैसा ही अपनापन।
लेकिन वही धुँधलका पसरा
जैसा पसरा बादल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।

बीते पल की कितनी बातें
रह रह मन पर छाती हैं
विरह, करुण, दारुण भावों से
अंतरमन को तड़पाती हैं।
अंतरमन की पीड़ाएँ अब
उकर चली हैं बादल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।

यादों ने भी पंख समेटे
पलकों की अँगनाई में
राह थकी अब चलते चलते
साँझ ढले परछाईं में।
गूँज रहे हैं मौन शब्द पर
स्मृतियों के मूक पटल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अप्रैल, 2021



कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं।

कैसे तुम्हें मनाऊँ में।  

जाने कैसी है हलचल
व्यग्र हो रहा मैं पलपल
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं ।।

भाव हृदय में रह रहकर
हलचल नई मचाते हैं
रचता हूँ कुछ और यहाँ
और गीत रच जाते हैं
इन रूठे शब्दों को बोलो
कैसे आज बुलाऊँ मैँ।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ मैँ।।

अनजाना भय व्याप्त हुआ
किसने जाने किसे छुआ
संवादों पर ताले हैं
उर के फूटे छाले हैं
बाँध सबर का टूट रहा
जीवन जैसे रूठ रहा
टूट रहे सपनों को फिर
कैसे कहो सजाऊँ मैं।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं।।

कदम कदम पर क्रंदन है
मौन हृदय का नंदन है
कितने सपने खोएंगे
पलकें कबतक रोयेंगे
चीखूँ या अरदास करूँ
कैसे और प्रयास करूँ
कैसे दरद दिखाऊँ मैं
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ में।।

जो विलंब है आने में
तो इतना उपकार करो
जहाँ जहाँ तम गहरा है
वहाँ वहाँ उजियार करो
ऐसा दो वरदान मुझे
गीत नया कुछ रच जाऊँ
अँधियारे में दीप जला
मधुर रागिनी गाऊँ मैं।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अप्रैल, 2021

गीत खुशी के गाता हूँ।

गीत खुशी के गाता हूँ।  

सहमी सहमी आज पवन है
सहमी सभी दीशाएँ हैं
लेकिन इन सहमी राहों पर
मैं तो आता जाता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

आज रुका कल चल जाएगा
झुका कहीं फिर उठ जाएगा
थक कर बैठ नहीं सकता हूँ
मैं प्रतिपल चलता जाता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

बहती आँखों के आँसू का
अब मोल बहुत ही गहरा है
लेकिन हर पल इन आँसू पर
पलकों का मेरे पहरा है
पलकों के साये में प्रतिपल
मैं सारे भाव छुपाता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

कह दो तम से अँधियारों से
इन राहों के अंगारों से
आँधी से औ तूफानों से
कह दो सारे अवसादों से
अब नहीं कहीं घबराता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

जीवन की राहों में अब तो
अवसादों की बात पुरानी
मैंने इन गीतों में लिख दी
जीवन की इक नई कहानी
उम्मीदों की इस गाथा को
मैं पल पल अब दुहराता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       28अप्रैल, 2021




उजियारा तो होना है।

उजियारा तो होना है।  

माना रात अँधेरी है पर उजियारा तो होना है
उम्मीदें जब हमराही फिर काहे का रोना है।।

सपने तेरी आँखों में फिर से देखो खिल जाएंगे
पलकों से जो गिरे कभी तो कहो किधर फिर जाएंगे
बिछड़े आज पलक से तेरी लेकिन कल फिर आएंगे
जीवन का दस्तूर यही है कभी पाना कभी खोना है
माना रात अँधेरी है पर उजियारा तो होना है।।

जीवन मोती की माला है प्रतिपल एक तपस्या है
मानो तो ये अवसर है औ मानो तो एक समस्या है
जीवन की राहों में हमको हर सुख दुख अपनाना है
पल पल अश्रु बहाने से कब मिला यहाँ जो खोना है
माना रात अँधेरी है पर उजियारा तो होना है।।

पनघट की चिकनी राहों पर फिसले कितनी बार गिरे
कभी भरी सपनों की गागर और कभी अरमान गिरे
लेकिन अरमानों की खातिर गिरना और सँभलना है
जो मिला नहीं उसकी खातिर आज नहीं फिर रोना है
माना रात अँधेरी है पर उजियारा तो होना है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अप्रैल, 2021




नई भोर बड़ी मतवाली है।

नई भोर बड़ी मतवाली है।  

रुक जाना नही घबरा कर तू शुरुआत अजब निराली है
बादल के पीछे जो छुपी नई भोर बड़ी मतवाली है।

कदम कदम अँधियारे कितने
तुझको राहों में टोकेंगे
औ जाने कितनी ही मुश्किल
तुझको बढ़ने से रोकेंगे।
लेकिन तुम झुक जाना ना चाहे रात भले ही काली हो
बादल के पीछे जो छुपी नई भोर बड़ी मतवाली है।।

साथ कोई आये न आये
राहों के तू साथ चला चल
नहीं किसी से कभी शिकायत
हँस कर तू सब ओर मिलाकर।
दूर क्षितिज के पार हँस रही उम्मीदों की लाली है
बादल के पीछे जो छुपी नई भोर बड़ी मतवाली है।।

माना तूफानों ने इस पल
तेरा रस्ता रोक दिया है
अनजानी पीड़ा ने तुझको
बढ़ने से अब रोक दिया है।
रात अमावस के आगे ही नव सपनों की दिवाली है
बादल के पीछे जो छुपी है नई भोर बड़ी मतवाली है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अप्रैल, 2021

आस का दीपक।

आस का दीपक।  

रात भर आस का दीप जलता रहा
रात गहरी मगर चाँद चलता रहा।।

द्वार पर नैन मेरे तुम्हें खोजते
रात पलकों में बीती तुम्हें सोचते
चाँदनी भी बदन ये जलाती रही
रात करवट में बीती तुम्हें सोचते
तुम न आये मगर वक्त चलता रहा
रात भर आस का दीप जलता रहा।।

रात भर मौन तुम गुनगुनाते रहे
हम भी यादों में तुमको बुलाते रहे
साँझ सा धुँधलका याद तेरी बनी
हम शाम से एक दीपक जलाते रहे।
साथ में लौ के मन ये मचलता रहा
रात भर आस का दीप जलता रहा।।

तुम कहीं रुक गए हम कहीं थम गए
रिश्तों की गर्मियाँ बर्फ से जम गए
साँस अपनी मगर मौन चलती रही
ना तुम कह सके कुछ न हम कह सके
काँपते होठों पर गीत चलता रहा
रात भर आस का दीप जलता रहा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25अप्रैल, 2021

भरत मिलाप।

भरत मिलाप।  

सुन के अवध वासी अपने प्रभु के आगमन की
नगर के द्वार सभी दीप बाती से सजा रहे
आँखों में चमक लेकर गीतों में खनक लेकर
मिल जुल पुर वासी सभी बधाई गीत गा रहे।

जिसे देखो व्यस्त है औ सारा नगर मस्त है
जन जन के होठों पे अब बस एक ही नाम है
बरसों से सूनी पड़ी थी अवध की नगरी ये
प्रभु के अवन से देखो बनी आज ये धाम है।

खग, मृग, जीव जंतु सभी आज मंत्र-मुग्ध देखो
गली-गली, नगर नगर मंगल गीत गा रहे हैं
सभी के होठों पर बस एक ही है गीत सजा 
जन जन के प्रिय श्री रघुवर आज घर आ रहे हैं।

नगर के द्वार पर भरत आज व्याकुल घूम रहे
रह रह मन के सब अपने भावों को दबा रहे 
मिलन में विलंब हुआ तो क्या मैं बताऊँगा
माता कौशल्या को कैसे मुँह दिखलाऊँगा।

यही दशा प्रभु जी के मन में भी है बनी हुई
विलंब हुई तनिक तो भरत को नहीं पाऊँगा
कितने कष्ट झेले हैं भरत ने वहाँ अकेले
कुछ हुआ उसे तो फिर माफ नहीं कर पाऊँगा।

अवध की सीमा पे पहुँचा जैसे वायुयान वो
सारा नगर खुशी हो के झूम झूम नाच उठा
बरसों से सोये हुए नगर के थे भाग जगे 
जैसे अँधियारे को चीर कर सूरज खिल उठा।

देख कर वेश भूषा भरत जड़ जैसे बन गए
सूर्य गगन चाँद तारे धरती पवन रुक गए
वक्त ने ये खेल निठुर कैसा खेला है यहाँ
झुकता था जग जिनसे आज वो खुद ही झुक गए।


कभी देखें दूजे को कभी देखें अपने को
झर झर नैनों से देखो बस अश्रुधार बह रहे।
होठ चुपचाप हैं दोनों ही भाइयों के मगर
अँखियों ही अँखियों से अपने दुख सभी कह रहे।

मेरी त्रुटी थी क्या जो मुझे ऐसे छोड़ दिया
जरा भी ना सोचा कैसे जिंदगी बिताऊँगा
एक कदम मैं कभी अबतक चला न प्रभु के बिना
बिन आपके कैसे कोई कर्तव्य निभाऊँगा।

आपकी खड़ाऊँ यही मेरी प्राण वायु बनी
इसके सहारे  मैंने सुख दुख सभी काटे हैं
कैसे बताऊँ प्रभु आपके बिना यहाँ मैंने
दिन रात अपने आँखों हि आँखों में काटे हैं।

क्या हुई थी भूल मुझसे जो मुझे ये सजा दी
अपनी सेवा से मुझे आपने वंचित कर दिया
पिछले जनम की कोई ऐसी भूल थी मेरी
जिसकी सजा में प्रभु आपने मुझको त्याग दिया।

सुन कर भरत के शब्द प्रभु भाव विह्वल हो गए
उठा के चरणों से अपने फिर उर से लगा लिया
कैसे कहूँ तुम बिन कैसे बिता है ये पल पल
लगता था जैसे मैंने खुद को ही सजा दिया।

बिन भाई पूछो नहीं जीवन ये कैसे जिया
शरीर तो साथ रहा पर प्राण तेरे पास था
लखन जो आँखे मेरी शत्रुघ्न भुजाएँ मेरी
पर प्राण मेरे भाई तुम्हारे ही पास था।

मौन बात कर रहे सामने से दोनों भाई
देख देख देवता भी सारे विह्वल हो गए
देख कर प्रेम ऐसा दोनों भाइयों के बीच
अवनी, अंबर, चाँद-तारे पल भर को थम गए।

बरसों का खालीपन आज देखो भरने चला
यही सोच सोच के अवधवासी आज खिल रहे
वियोग से मिला कष्ट अब आज मिटने चला है
चारों ही दिशाएँ जैसे आज यहाँ मिल रहे।

सारे जन हर्षित है औ भाव भाव पुलकित है
बरसों के बाद देखो अवध के भाग खिल रहे
काले बादल जो भी छाए थे इस नगरी पे
धीरे धीरे आज वो बादल काले खुल रहे।

खड़े खड़े दोनों भाई देखते दूसरे को
लगता कि जैसे दोनों दो बदन एक प्राण हैं
चाहे साँस चल रही है दोनों की भले अलग 
लेकिन दोनों भाई इक दूसरे की जान हैं।

दोनों भाइयों के मन इक अंतर्द्वंद चल रहा
एक दूसरे से कैसे बात अपनी वो कहें
कहने को कितनी ही बातें सारी उनकी हैं
सोच यही मन में कि बात कैसे और कब कहें।

देख मनोदशा भरत की प्रभु बाँह फैला दिए
पैरों पे झुके भरत तो सीने से लगा लिए
बरसों का दुख सारा इक पल में ही खतम हुआ
सदियों का तप सारा जा के अब सफल हुआ।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अप्रैल, 2021

विकलाँगता- अभिशाप नहीं।

विकलाँगता- अभिशाप नहीं।  

दौड़ नहीं सकता सब जैसा
लेकिन दूर मुझे भी जाना है
जैसा सब जन ने पाया है
मुझको भी मंजिल पाना है।

कमजोरी अभिशाप नहीं है
इसको वरदान बना लूँगा
अपने हिम्मत औ ताकत से
अपने अरमान सजा लूँगा।
लिख सकता इतिहास नया मैं
ये दुनिया को दिखलाना है।
दौड़ नहीं सकता सब जैसा
लेकिन दूर मुझे भी जाना है।।

अहसानों का पात्र न समझो
मुझको किंचित मात्र न समझो
इस शारीरिक कमजोरी को
तुम कोई अभिशाप न समझो।
बिना सहारे बैसाखी के
अब मंजिल मुझको पाना है
दौड़ नहीं सकता सब जैसा
लेकिन दूर मुझे भी जाना है।।

माना मैं कुछ कमजोरी है
मजबूत हौसला है मेरा
गढ़ने को आकाश यहाँ है
अब यही फैसला है मेरा।
कमजोर नहीं मैं दुनिया मे
ये दुनिया को बतलाना है।
दौड़ नहीं सकता सब जैसा
लेकिन दूर मुझे भी जाना है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अप्रैल, 2021


प्रेम गीत।

प्रेम गीत।  

हँसते फूल चुने हैं मैंने
तुम उनको लेने आ जाना
अपनी मोहक मुस्कानों से
अंतरतम तक तुम छा जाना।

कोमलता का चरम बिंदु तुम
सहज प्रेम का परम सिंधु तुम
तुम हो जीवन की उज्ज्वलता
मधु भावों का केंद्र बिंदु तुम।
मेरे अंतस के भावों में
तुम अपने भाव मिला जाना
हँसते फूल चुने हैं मैंने
तुम उनको लेने आ जाना।।

मृदु पंकज पलकों पर तेरे
उज्ज्वल सूरज का प्रकाश है
और मधुर अवयव में तेरे
मृदुल भावों का आकाश है।
मेरे मृदु भावों में अपना
तुम मृदु मधुमास मिला जाना।
हँसते फूल चुने हैं मैंने
तुम उनको लेने आ जाना।।

अंग अंग तेरे दिव्य निखिल
नवजीवन की तुझमें क्षमता
सकल प्रभावित पुण्य पुंज तुम
तृण तृण तुझमें है प्रियता।
मेरे अंतस के प्रियतम से
प्रिय अपना प्रेम मिला जाना
हँसते फूल चुने हैं मैंने
तुम उनको लेने आ जाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अप्रैल, 2021




प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...