कुछ तो बोलो किसकी खातिर।

कुछ तो बोलो किसकी खातिर।  

पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

मन के भीतर उठी तरंगें
गीत नया रच जाती हैं
और पिरो शब्दों को कितने
भाव नया रच जाती हैं
इन गीतों में किसे पुकारूँ
गाऊँ मैं किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

पलकों पर कितने ही सावन
आये आकर चले गए
कुछ ने खोले प्रीत द्वार के
कुछ आँसू बन छले गए
बूँद बूँद बन गिरे पलक से
रोकूँ अब किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

मैंने गीतों के पंक्ति पंक्ति में
कितने सपन सजाए हैं
उनमें हिय के भाव भरे जब
तब गीतों में गाये हैं
अब तक गाया बहुत यहाँ मैं
अब गाऊँ किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

भूल न जाऊँ मैं गीतों में
लिखी हुई सारी बातें
भूल न जाऊँ मैं वादों में
कही हुई सारी बातें
तुम जो पथ से दूर हुए तो
रूप सँवारूँ किसकी खातिर
पंथ बुहारूँ राह निहारूँ
कुछ तो बोलो किसकी खातिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जून, 2021


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