एक नगर अनजाना सा।
इक दिन एक अकिंचन आया
चेहरे पर मिश्रित भाव लिए
कितने स्वप्न सुनहरे लाया।।
थी अनिभिज्ञ अरु अनजान डगर
किंचित भर थी पहचान मगर
हिय में भर वचनों की पीड़ा
पलकों में सागर भर आया
इक दिन एक अकिंचन आया।।
कर खाली अरु ग्रीवा कंपित
अधरों पर मधु भरकर संचित
भावों में अकुलाहट भर, पर
अंतस भाव मनहरे लाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।
पंथ खुले पूजा के निस दिन
भाव मिले भावों से उस दिन
निस दिन फूलों ने पथ खोला
जिस दिन संग तुमारा पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।
फूलों ने था पंथ बुहारा
सपनों को भी मिला सहारा
खिलने लगीं नगर की गलियाँ
खुद को तब सम्मोहित पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।
आज नगर ये पहचाना है
नहीं कहीं कुछ अनजाना है
मिले यहाँ सपनों के मोती
कितना कुछ इससे है पाया
इक दिन एक अकिंचन आया।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20जून, 2021
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