धरती की पीड़ा।

धरती की पीड़ा।   

देख पीड़ा इस सदी की
संपूर्ण धरती रो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

जो धरा का रूप दिखता
क्या है यही अनुरूप इसका
आज निखरा है यहाँ जो
कुछ तो कहो है धूप किसका।।

रोशनी भी ताप से अब
ज्यूँ पाप अपने धो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

संकटों में है घिरा क्यूँ
अवनी और अंबर यहाँ पर
स्वार्थ का सागर उमड़ता 
है दिख रहा पग-पग यहाँ पर।।

स्वार्थ लोलुप श्राप से अब
क्या दीप्ति अपनी खो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

युद्ध का संकट कहीं पर
अरु कहीं पे हाहाकार है
स्वार्थ को आश्रय मिला है
कहो कैसा ये व्यवहार है।।

लग रहा जैसे धरा ये
बस जिन्दगी को ढो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

सोचता हूँ अब यहाँ पर
ये धरणी अब तक न गली क्यूँ
जिस व्यथा में जल रही है
ये धरणी अब तक न जली क्यूँ।।

अपराध क्या उसका यहाँ
जब मनुजता ही सो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

इस व्यथा से हो न विचलित
है तब यही परिणाम निश्चित
स्वार्थ में जड़ बन चुके जब
फिर कब रहा जीवन सुनिश्चित।।

आज सिक्कों की खनक में
सब भावनायें खो रही हैं
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2022


उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।

उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।  

वक्त की रेत पर धुँधलके कुछ निशाँ
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

कुछ कहे कुछ सुने कुछ लिखे कुछ पढ़े
भाव के गांव में गल्प कितने गढ़े
कुछ मिले कुछ खिले कुछ ढले भाव में
कुछ क्षितिज पर राह देखते हैं खड़े।।

आस की आस में यूँ सजी बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

लिये चलते रहे भावनायें मधुर
चाह गढ़ती रही कामनायें मधुर
कुछ मिले राह में चाह कुछ की रही
भाव हिय ने गढ़े हैं सदा ही मधुर।।

कामनायें मधुर चाहती बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

क्या कहा अनकहा कौन किसको कहे
सोचती जिन्दगी कौन कैसे सहे
कहते हैं रास्ते ये सियासी कथन
जब डँसे जिन्दगी दूर कैसे रहें।।

धड़कनों में तड़पती रही बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अप्रैल, 2022

मानव मन।

मानव मन।  

निज भावों के महिसागर में
मानव मन नित झूल रहा है
जीवन ये बहती धारा है
लगता पल-पल भूल रहा है।।

आज यहाँ कल कहाँ ठिकाना
क्या खोया था जो फिर पाना
कौन रुका है इस जगती में
इक दिन सबको ही है जाना।।

जब सबका परिणाम सुनिश्चित
क्यूँ किंतु-परन्तु में झूल रहा है
निज भावों के महिसागर में
मानव मन नित झूल रहा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अप्रैल, 2022

नव-संवत्सर।

नव-संवत्सर।   

नव संवत्सर दिवस पुनिता
पूजहीं धरम मिलहिं अशीषा
भाँति-भाँति है ज्ञान प्रसारा
चहुँ दिस होहिं धरम विस्तारा।।

सब हिय पनपहिं प्रेम पुनिता
हर हिय बसहिं राम अरु सीता
लिखहिं पढ़हिं सब होयहिं ज्ञानी
सत्य सनातन जुग-जुग विज्ञानी।।

चहुँ दिस हर्ष उलास मन गाई
प्रेम प्रसार होहिं जग माहीं
कष्ट मिटे हो सज्जन शीला
मन मोहहि सब देह सुशीला।।

राम कथा सुनि मन हरषाये
रोग दोष सब दूर भगाये
काम क्रोध मद मोह मिटे जब
पुण्य प्रवाहित जग में हो तब।।

जीवन सुखद सुफल बन जाये
हरषि-हरषि मन पुनि-पुनि गाये
शुद्ध हृदय मन-चित ले गावहिं
राम कृपा आजीवन पावहिं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02अप्रैल, 2022

गान अमर सब हो जायेंगे।

गान अमर सब हो जायेंगे।   

मेरे गीतों के भावों में
जो तुम अपना भाव मिला दो
सच कहता हूँ यहाँ लिखे जो
गान अमर सब हो जायेंगे।।

यहाँ वहाँ से शब्द जोड़कर
पंक्ति-पंक्ति में भाव मिलाये
छंद-छंद अरु चरण-चरण में
अब तक खुद को हूँ भरमाये
जो तुम मेरे इन शब्दों को
अधरों का मधुपान करा दो
सच कहता हूँ यहाँ लिखे जो
गान अमर सब हो जायेंगे।।

इस जीवन के सभी पलों में
मैंने खुद को समझाया है
इस जगती से मिला मुझे जो
सबको हँसकर अपनाया है
माना तुच्छ भेंट है मेरी
थोड़ा सुख का भान करा दो
सच कहता हूँ यहाँ लिखे जो
गान अमर सब हो जायेंगे।।

अति आस नहीं अभिलाष नहीं
अरु सभी सराहे चाह नहीं
ममता के कुछ भाव मिले, बस
इस जगती से है आस यही
मुझको अपने होने का तुम
बस मधुरिम अहसास करा दो
सच कहता हूँ यहाँ लिखे जो
गान अमर सब हो जायेंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         01अप्रैल, 2022





प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है, समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

बाट जोहते युग-युग बीता
मन का घट रहा-रह रीता
रही प्रतीक्षा कठिन मगर ये
मन कब हारा, बस जीता।।

जगती में फिर हार-जीत की
छोड़ व्यथा आ खुलकर मिल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

यही समय है जिसकी प्रतिपल
करते थे हम प्रत्याशा
मधुर निशा के इस इक पल में
जीवन की सब अभिलाषा।।

सोच रहे क्या इस बेला में
हाथ धरे संग-संग चल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिय वादों की रात यही है
देखो शशि साथ जग रहा
पुण्य प्रभावी हों सदियों के
हमको आशीष दे रहा।।

वादों का आलिंगन कर लें
होने दो जो होगा कल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31मार्च, 2022

पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के, मन वीणा के तार कसो।।

पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के, मन वीणा के तार कसो।।

मन गुंजित हो उठा गगन में
मृदु भावों ने मोह लिया
अब परवाह यहाँ क्या करना
सही किया या गलत किया।।

पुष्पित हो मन मृदुल पलों में
हिय में ऐसे आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

क्या खोऊँ क्या पाऊँ जग में
मुझको कुछ परवाह नहीं
जग केवल मेरे गीत सुने
रत्ती भर भी चाह नहीं।।

तुमसे पर सब राग सजे हैं
साँसों में यूँ आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

जगती का पथ कठिन, अकेला
मौन पंथ कब तक चलता
कब तक पलता संकेतों पे
कब तक मन खुद को छलता।।

आलिंगन भर लो भावों को
पलकों में फिर आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2022

पीर पुरानी।


 पीर पुरानी।  

शब्द रुके आकर अधरों पर
आयी याद कहानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

जन्म-जन्म की बातें लेकर
कोर नैन के भींगे
उमड़-उमड़ भावों का सागर
रह-रह कर के रीते।।

नयन कोर तक आ आकर के
अश्रु की रुकी रवानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

मैंने जीवन भर गीतों में
कितने भाव सजाया
किंतु पलट कर पृष्ठ जो देखा
क्या खोया क्या पाया।।

मिलन पलों में लिखे गीत जो
बिछड़ी याद सुहानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

शब्दकोश में सिमटा जीवन
पर शब्दों में दूरी
कुछ समझा कुछ समझ न पाया
कैसी है मजबूरी।।

भावाकुल मन बहक-बहक कर
गाये प्रीत पुरानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29मार्च, 2022


चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

ले मिलन की आस मन में है राह भी खुद चल पड़ी
दूर देखा जब क्षितिज पर मृदु कामनाएं थी खड़ीं
कल्पना करने लगे नव पंथ खुशियों के बुहारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चन्द्र किरणों ने गगन से तप्त उर में प्रीत भर दी
तारों की परछाईयों अंक में नव रीत भर दी
व्योम से छनकर गिरे फिर गात पर स्नेहिल फुहारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

अवरोध का फिर प्रश्न क्या मधुमास की जब रात हो
क्या अँधेरा क्या उजाला जब गुनगुनाती रात हो
भाव मन में क्यूँ रुके फिर गात बोलो क्या विचारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चाँदनी निखरी हृदय में व्योम का अहसास पाया
गात का उपवन खिला अरु प्रीत ने श्रृंगार पाया
कह रहीं पलकें झपक कर प्रीत अधरों पर खिला रे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25मार्च, 2022

कब तक आँसू से पग धोयें।

कब तक आँसू से पग धोयें।   

मन की सारी आशायें अब
रह-रह कर के विकल हो रहीं
उमड़-घुमड़ कर भाव सभी अब
पलकों में आ विकल हो रहीं
सूने मन का बोझ हृदय ये
कहो कहाँ तक ये अब ढोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

समझ नहीं पाया जीवन को
क्यूँ जीवन ने किया किनारा
जिससे भाव समझना था सब
नहीं रहा जब वही सहारा
समझाते मन को कैसे फिर
दुविधाओं में खोये-खोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

दुर्बलता का भाव लिये फिर
कहो कहाँ तक मन ये चलता
अवसादों की बंद गली में
कहो कहाँ तक मन ये पलता
अवसादों को लिये हृदय में
आस भला ये कब तक रोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

जो पग चलता नहीं वहाँ से
था मुश्किल जीवन खिल पाना
आभासी इस दुनिया में फिर
था मुश्किल खुद से मिल पाना
आभासी जीवन का बोझा
कहो कहाँ तक मन अब ढोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मार्च, 2022

कविता क्या है।

कविता क्या है।  

जब हृदय मचलकर शब्द चुने
और लिखे समझना कविता है
जब भाव पिघलकर शब्द बुने
छंद सजे समझना कविता है।।

जब मिलन पलों में पलकों से
बहे खुशी समझना कविता है
विरह गीत नैनों से छलके
नीर बहे समझना कविता है।।

बिन कहे बात दिल तक पहुँचे
मोह जगे समझना कविता है
अधरों से मृदु मधुरस छलके
पुष्प झरे समझना कविता है।।

पतझड़ के मौसम में भी जब
मन बहके समझना कविता है
मरुथल में मन झंकृत हो जब
साज सजे समझना कविता है।।

खुद से खुद की प्रीत जगे, मन
नाच उठे समझना कविता है
बरबस ही हिय झूम उठे जब
पग थिरके समझना कविता है।।

जब भाव सँभलना मुश्किल हो
एहसास समझना कविता है
मधुमास जगे जीवन में अरु
अंक भरे समझना कविता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मार्च, 2022

यादों के गीत।

यादों के गीत।  

मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो
बीत रहा कैसा ये जीवन
कैसे इसे बताऊँ बोलो।।

नदिया तरसे सागर तरसे
जाने कैसी रुत आयी है
तरस रहे हैं सभी किनारे
जाने कैसी रुसवाई है
तन-मन के सब भाव उमड़ते
कैसे इसे जताऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

प्यासी यादें पनघट पर हैं
राह जोहती आ जाओ तुम
सदियों से प्यासी साँसों की
बुझती आस जगा जाओ तुम
बीत रहे दिन कैसे-कैसे
किसको घाव दिखाऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

भूल गये क्या बातें सारी
या मेरी परवाह नहीं है
भूल गये सपनों की रातें
या कोई परवाह नहीं है
बरस-बरस दिन बीत गये जो
कैसे उसे बुलाऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मार्च, 2022

होली।

होली।   

रंग बिरंगे भाव सजायी
आज दिवानों की टोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

कहीं गूँजते गीत सुरीले
कहीं मृदुलता छाई है
कहीं मचलते भाव सुनहरे
कहीं चपलता छाई है
सजधज कर के नाचे मौसम
फैली सूरज की रोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

कहीं बना है कान्हा कोई
कहीं राधिका रानी है
रास-रंग के इस मौसम में
नूतन राग सुनानी है
झूम-झूम कर नाच रहे सब
खुशियों ने बाहें खोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

आज अपरिचित रहे न कोई
सबको तुम अपना कर लो
भूले भटके, दूर बसे जो
सबको पलकों में भर लो
खुली पलक में स्वप्न सजे हों
बनी रहे ये रंगोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मार्च, 2022

अंतस की आशायें।

अंतस की आशायें।  

स्मृतियों के द्वार खड़ी थीं कुछ उम्मीदें पहचानी सी
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं ।।

कितने भाव मचल बैठे इक पत्र तुम्हारा जब आया 
कितने स्वप्न सजे पलकों पर कितने भाव सजा लाया
चारों तरफ छँटी उदासी छंद मचल कर नाच उठे
तेरे अधरों पर मैंने जब अपने गीतों को पाया।।

चारों तरफ रागिनी गूँजी भोर सुहानी मधुर हुई
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

इक तेरे संबोधन से नहीं अपरिचित रहा स्वयं से
उलझे थे अब लगे सुलझने प्रश्न सभी इस जीवन के
समृतियों ने राह सजाई पुष्प खिलाये मरुथल में
लगा महकने जीवन सारा अहसासों में मधुवन के।।

मधुमासों के आभासों से सब आशायें निखर गयीं
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

मन ने जब लिखना चाहा केवल नाम तुम्हारा लिखा
दर्पण में जब भी देखा मुझको रूप तुम्हारा दिखा
हर शब्दों में छवि तुम्हारी गीतों में तेरी बातें
अंतस के श्वेत पट्ट पर मुझको रंग तुम्हारा दिखा।।

मन के वातायन से यादें अरमानों में निखर गयीं
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 मार्च, 2022

क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।

क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।  

क्यूँ कर जिंदगी इस मोड़ से उस मोड़ तक जाती नहीं
क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।।

कहने को तो दिवारों के कान होते हैं सुना है
जाने दर्द की आवाज फिर उस पार क्यूँ जाती नहीं।।

कहो बादलों ने कब छुपाई रोशनी जो आ रही
क्यूँ फिर इस मकाँ से उस मकाँ तक रोशनी जाती नहीं।।

ये पैर भी थकने लगे जब मंजिलें गुमनाम हों
फिर रास्तों की क्या खता जो दूर तक जाती नहीं।।

इक अदावत ने न जाने कितने घर-बेघर किये हैं
पर न जाने दोष उस पर क्यूँ मढ़ी जाती नहीं है।।

कितने दीपक बुझ गये हैं इस गरीबी से यहाँ पर
कहो मुफलिसी फिर कटघरे में क्यूँ कभी जाती नहीं।।

मुड़ के देखे वक्त अब फुरसत कहाँ इतनी सफर में
शायद उम्र से लंबी सड़क है, आवाज अब जाती नहीं।।

अब खुदा भी पत्थर सा हुआ जाता है शायद "अजय"
लगता है कि अरदास कोई अब उस तक जाती नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19मार्च, 2022

होली के रंग।

होली के रंग।  

होली के रंगों में हुई है धरा सराबोर
रूप खिला प्रकृति का है खुशहाली चहुँओर।।

टेसू के रंगों ने है दिया धरा को रूप
मीठी लागे छाँव भी मीठी लागे धूप।।

रंग-बिरंगे लोग हैं रंगी हैं परिधान 
जब दिल सबके मिल गये फिर कैसे व्यवधान।।
***************

रंगों के भाव लिए गीतों में
तेरे गलियारे में आया हूँ
कुछ अपनापन कुछ दीवानापन
पल-पल भाव सुनहरे लाया हूँ।।

कुछ भाव समर्पित तुम भी कर दो
कुछ भाव समर्पित मैं भी कर दूँ
प्रिय सपनों का आलिंगन कर के
आशाओं को अनुरंजन कर लूँ।।

अधरों पर मुस्कान मधुर हो
हर दिल मे अरमान मधुर हो
कोई नहीं अछूता हो अब
हर दिल की पहचान मधुर हो।।
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जिस होली में रंग न हो अंजाम भला फिर क्या होगा
चाल चलन और ढंग न हो अंजाम भला फिर क्या होगा।।

नित संसद में देख कर नेताओं की हुड़दंग
रोये जनता फूट-फूट जैसे मिला हो दंड।।

यूपी खोये गोवा खोये खोये उत्तराखंड
योगी जी का देखा जलवा उड़ा है सबका रंग।।

इक-इक रोये माथ पकड़ कर अरु दूजा नोचे बाल
इक बाबा के फेर में देखो कैसा हो गया हाल।।

सायकिल की पैडल टूटी हाथी हुआ बेहाल
पंजा झाँके अगल-बगल बाबा ने किया कमाल।।

जोड़-तोड़ हरदम किया नहीं जमीं पर पैर
चाय वाले के सामने नहीं बची अब खैर।।

साल-साल भर बैठ कर के खूब लगाये नारा
गयी किसानी राजनीति में, नहीं मिला सहारा।।

जनता को बहलाये के जो हो गए मालामाल
समय की चकरी देखिए वही नोचे अपने बाल।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17मार्च, 2022

कहाँ छुपे हो कान्हा।

कहाँ छुपे हो कान्हा।  

रुके हुए कदमों ने फिर से
इक आवाज लगाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

मन मेरा तुम पर ही ठहरा
तुमसे मिला सहारा है
इस अनजानी सी दुनिया में
तुम बिन कौन हमारा है।।

तुमसे सब रिश्ते नाते हैं
तुमसे ही रुसवाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

इस जीवन के हर इक पल को
मैंने अन्तरहीन किया
रागों-अनुरागों को सारे
तेरे ही आधीन किया।।

बिखर न जाये जीवन कान्हा
कैसी अगन लगाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मार्च, 2022


क्या पथ रोकेंगे।

क्या पथ रोकेंगे।  

जीवन मे अगणित बाधायें
बढ़ते का क्या पग रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।

किस-किस के तू आगे रोता
झुकता क्यूँ, नतमस्तक होता
समय एक कब रहा किसी का
बीती का क्यूँ बोझा ढोता।।

वीथी पर अगणित विपदायें
अनुमानों को कब रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।


जीवन का क्या धर्म बताऊँ
तुम बोलो क्या मर्म बताऊँ
किस भाँती जीवन बहलाया
क्या-क्या बोलो कर्म बताऊँ।।

कर्म प्रबंधित जिसका भी है
व्यवधान उसे क्या रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मार्च, 2022

है कठिन अब मेल साथी।

है कठिन अब मेल साथी।  

शब्द का आशय बदल कर
मौन संशय में बदल कर
प्रश्न का आश्रय बदल कर
अब न कर तू खेल साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

घन सघन है धूम्र बनकर
कह रहे हैं अश्रु गिरकर
चुभ गये पल वो पलक में
अश्रु के बने रेख साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

दामिनी तड़की वहाँ तब
काँपती धरती वहाँ तब
मेघ भटके तर बतर से
थे प्रलय संकेत साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

आह थी उठती लहर में
घाव था हर इक पहर में
चल पड़े तम के सफर में
रो रही है रात साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मार्च, 2022

सांध्य के घाव गहरे।

सांध्य के घाव गहरे।  

शब्द के संचार सूने भाव के व्यवहार सूने
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने। 

दूर जा कर छुप गयी वो रोशनी जो थी सजीली
आ रही थी रुक गयी अब रागिनी जो थी सुरीली
छा गयी देखो गगन में फिर धुंध की कुछ बदलियाँ
थम गयी सहसा गगन में रात बन कर के हठीली।।

यूँ रुक गयी सागर लहर ज्यूँ तटों के पंथ भूले
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।।

नैनों के कोरों पे सहसा मौन सी हलचल हुई
अश्रु पलकों पे यूँ ठहरे ज्यूँ भाव की दस्तक हुई
भावनाओं ने पलों में कह अधर के पाटलों से
गिर पड़े सब अश्रु नयन से यूँ चोट कुछ पल-पल हुई।।

छिप गयी संध्या क्षितिज में रात के ओढ़े बिछौने
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13मार्च, 2022

किरदार- स्वयं के आइने में।

किरदार-स्वयं के आइने में।   

दूर सागर के क्षितिज पर इक लहर है चूमती
सौम्यता, मृदु भाव हिय में मस्त होकर झूमती।।

चल पड़ा उस ओर खिंचकर मस्त मधुमय गीत गाता
पार अँधेरों के जो देखा एक दीपक झिलमिलाता
कह रही हैं दस दिशायें पिय आज मधु का पान कर लो
त्यागो सारे किन्तु अपने पिय आज खुद का ध्यान कर लो।।

हो कुपथ या फिर सुपथ हो, है कौन चल पाया अकेला
मौन रहकर भाव हिय के, है कौन कह पाया अकेला
गीत भी तब तक अधूरा जब तक के उसमें साज न हो
रागिनी भी है अधूरी जब तक के उसमें राग न हो।।

होता बहुत मुश्किल बताना घाव किससे है मिला तब
रिसते हुये कुछ जख्म देखे आइने में स्वयं के जब
क्या लिखे कविता किसी पर अरु किस विधा पर गीत लिखें
उँगलियाँ उठती रही हों स्वयं के ही किरदार पर जब।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12मार्च, 2022

संघर्षों का मान।

संघर्षों का मान।  

बस नारों अरु वादों से सम्मान कहाँ मिल पाया है
पग-पग संघर्ष किया जिसने मान उसी ने पाया है।।

संघर्षों ने इस जीवन की लिख डाली है नई कहानी
शाम उसी की शीतल है जिसने तपाई अपनी जवानी
केवल नारों उद्गारों से अधिकार नहीं मिल जाता है
कर्तव्यों की देहरी चलकर ही जीवन सुख पाता है।।

इतिहास मुखर है भारत का पग-पग कितना संघर्ष किया
अमरत की प्याली छोड़ी है घूँट-घूँट है गरल पिया
नीलकंठ जो बना उसी ने जीवन में पुष्प खिलाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

जाने कितने ही बलिदानों को इतिहासों ने भुला दिया
वो जाने क्या कुटिल व्यवस्था थी जिसने ऐसा काम किया
स्वार्थ शिखर पर बैठे सारे ऐसे सत्ता मद में झूल गये
जो भी, पथ सींचे स्वेद बूँद से उनका ही कद भूल गये।।

मत भूलो, जिनके बलिदानों ने वर्तमान पथ खिलाया है
काँटों का आलिंगन कर के, पुष्पों से पंथ सजाया है
बलिदानों के गीत लिखे जो पंथ-पंथ जिन्हें गाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

इक दो जीत-हार से जग में संघर्ष यहाँ कब बदला है
सिंहासन तक आ जाने से संपर्क कहो कब बदला है
जो भूल गये अपना अतीत तो मान नहीं टिक पायेगा
इतिहास हुआ जो धूमिल तो अस्तित्व सभी मिट जायेगा।।

संकल्पों के यग्य कुंड में कुछ आहुती सुनिश्चित कर लो
कर्तव्यों की ड्योढ़ी से पहले अपना प्रण निश्चित कर लो
कर्तव्य मार्ग पर चला वही, संकल्प वही जी पाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11मार्च, 2022


मन के सूनेपन को भाये ऐसा गीत चलो रच जायें।।

मन के सूनेपन को भाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

मन के सूनेपन को भाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

व्यर्थ नहीं हो जाये जीवन
मन का आँगन तन का उपवन
जगना रातों को घुट घुट कर
लिखना पलकों का सूनापन
पलकों के सूना मिट जाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

सुनना जग की बातों को क्यूँ
जिनका कुछ आधार नहीं है
चलना उन राहों पर क्यूँकर
जिनसे कुछ व्यवहार नहीं है
नयी राह जो स्वयं बनाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

दूर क्षितिज पर अपनी मंजिल
साथ-साथ चलना जब हमको
दूजे से नादान रहें क्यूँ
पग-पग मिलना है जब हमको
उपालंभ जग के त्यज जायें
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मार्च, 2022

दो बूँद प्रीत की छलकाओ।

दो बूँद प्रीत की छलकाओ।  

बहुत कह चुका अपनी बातें
तुम भी तो कुछ बात सुनाओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

उल्लासित लहरें सागर की
इक बूँद तरंगित धारा हूँ
आसमान में अनगिन तारे
माना मामूली तारा हूँ।।

तारों के भी रूप सुनहरे
ये चंदा को भी बतलाओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

बीत रहा पल पल ये जीवन
कहीं क्रंदन कहीं है गायन
कहीं बंद जीवन कोठर में
कहीं खुला मन का वातायन।।

सुख-दुख, क्रंदन अरु गायन का
जीवन में उद्देश्य बताओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मार्च, 2022


नारी।

नारी।   

कितनी रचनाओं से शोभित
भावों उद्गारों में मोहित
नारी तुम जग की आशा हो
नभ-तल की पुण्य जिज्ञासा हो।।

प्रतिपल अमृत का दान किया
अमरत्व सुयश प्रतिदान किया
तुमने जीवन के पग पग में
निज आशा का बलिदान दिया।।

तुम देवों की अमृत वाणी
तुम गंगा का निरमल पानी
तुम भाव प्रवण अनुशासन हो
तुम नैतिकता का शासन हो।।

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में
पग-पग पर चलता युद्ध रहा
कितनी ही घड़ियाँ ऐसी थीं
अंतस में नित्य विरुद्ध रहा।।

जीवन के भोजपत्र पर किन्तु
बस मृदु गीतों का गान लिखा
वेदों की सभी ऋचाओं ने
भी नारी का सम्मान लिखा।।

आँचल में आँसू के बदले
निज भाव मुखर रखना होगा
तुमको जीवन के संधिपत्र पर
अब प्रखर भाव लिखना होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मार्च, 2022

चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।

चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।  

रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

सिलवटें थीं कुछ हमारे बीच में उस रोज कैसी
चाह कर जिसको नहीं हम दूर कर पाए अभी तक
तारिकाओं ने गगन में उस रोज लिखा गीत एक
चाह कर उस गीत को अधरों पर न ला पाये अभी तक।।

पास रह कर दूरियों के कैसे थे बादल घनेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

अधजगी सी रात अपनी लिख रही थी इक कहानी
नींद पलकों पर रुकी थी ढूँढती अपनी निशानी
थी कही वो रात जग कर शब्द अंतस को छुये जो
टूटते तारों ने लिखी थी अनकही इक कहानी।।

जग रहे थे स्वप्न सारे पलकों पे कैसे अँधेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

और तुमको क्या लिखूँ मैं वेदना अपने हृदय की
न लिख सकूँगा पंक्तियों में दर्द के वो भाव सारे
रात भी अब सो चली है चाँदनी मद्धम हुई अब
चुभ रही हैं रश्मियाँ भी मौन है सारे सितारे।।

चाह कर भी लिख न पायीं पंक्तियाँ भी घाव मेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07मार्च, 2022




संवेदनाएँ।

🌹🌹🌹🌹गीत 🌹🌹🌹🌹

                 संवेदनाएँ।  

छोड़ कर के जा रहे हो मुझको यहाँ इस हाल में
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

दर्द के हर इक पलों में बस तुम्हारा साथ पाया
भीड़ हो या फिर अकेले इक तुम्हारा हाथ आया
छोड़ पर मुझको गए तुम काल के इस गाल में 
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

श्वास में अब भी महकता प्रीत का रस जो पिया था
आज भी अधरों पै ठहरा गीत जो तुमने दिया था
है बहुत मुश्किल कि गाऊँ  गीत मैं इस हाल में
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

गीत से अपने यहाँ ना कर सका कोई इशारा
दे सका ना मैं तुम्हें अहसास का कोई सहारा
वेदना के इन पलों ने कर दिया बेहाल मैं 
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        05मार्च, 2022

नीर मेरे मन को छलता है।

मेरे मन को नीर छलता है।  

जिसको तुमने गीत समझकर गाया गाकर मन बहलाया
गीत नहीं बस, भाव हृदय का पग-पग संग-संग चलता है
बूँद-बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

अनुवादों में घुली जा रही कितनी अमिट कहानी बोलो
अहसासों में मिली जा रही सपनों की रजधानी बोलो
सपनों की रजधानी में कुछ डंक हृदय को खलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

जीवन के प्रतिपल में हमने फैलायीं हैं अपनी बाहें
प्रतिपल सबसे न्याय किया है सम्पद हो या हो विपदाएँ
जाने फिर भी कसक हृदय में पल पल क्यूँ कर पलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

निज पलकों ने कब चाहा है अश्रु गिरें अकारथ बह जायें
अधरों ने कब चाहा बोलो शब्द कंठ में दब रह जायें
पैबंद लगे भावों में बोलो रिश्ता कब तक चलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

कहीं दिलासा कोई होता, निज भाव हृदय के कह पाता
कोई रखता शीश अंक में मेरे भावों को सहलाता
लम्हों के कुछ शब्दों से, शायद घाव हृदय के भर जायें
सदियों से बस यही भाव मन की गलियों में पलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मार्च, 2022

लेखन से व्यवहार करूँगा।

लेखन से व्यवहार करूँगा।  

इस जीवन के महासमर में ऐसे धैर्य धरूँगा मैं
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

और नहीं कुछ पास हमारे
जिसका मैं गुणगान करूँ
अँजुरी में कुछ शब्द पड़े हैं
जिन पर बस अभिमान करूँ
इन शब्दों की ढाल बना गीतों में व्यवहार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

धन-दौलत का जोर नहीं है
स्याही ही बस ताकत है
होगी धन की चाहत सबको
अपनी बस ये चाहत है
शब्दों अरु स्याही में घुल जीवन का उद्धार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

कलम नहीं ये शस्त्र हमारा
इसने केवल न्याय किया
जीवन के सब अध्यायों को
इसने ही अभिप्राय दिया
शब्दों में सिहरन भर कर भाव सभी स्वीकार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2022


युद्ध की विभीषिका।

युद्ध की विभीषिका।  

कैसे कैसे दृश्य दिख रहे देखो यहाँ तबाही के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

एक छोर पर इक दुनिया है
दूजी बैठी अलग छोर पर
धमकी देती एक खड़ी है
दूजी भी ताकत के जोर पर
दोनों के संवादों ने कहो कैसी आग लगाई है
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

अपने शर्तों पर हर कोई
दूजे को आदेश दे रहा
ऐसा लगता है वो मानो
दुनिया को संदेश दे रहा
सुनो, संदेशों में दोनों के शब्द भरे रुसवाई के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

मानवता की बातें सारी
बेमानी सी हुई जा रहीं
स्वार्थ शिखर पर बैठी दुनिया
पल पल जैसे गिरी जा रही
लगता जैसे होड़ लगी है ताकत के आजमाइश के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

नहीं कोई क्या बहुव्यापी
जिसको इस विष का भान नहीं
कलयुग के देवों को सच का
क्या सचमुच कुछ अनुमान नहीं
ऐसे ही कुछ और चला तो दृश्य दिखेंगे तबाही के
सदियाँ बिलखेंगी रह रह कर लम्हों में तन्हाई के।।

कैसे कैसे दृश्य दिख रहे देखो यहाँ तबाही के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2022

एक बूँद- निजता के पल का दर्द।

एक बूँद-निजता के पल का दर्द।

अंक में इक बूँद गिर कर भाव कैसे दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

क्या कहें अब शब्द खुलकर और क्या आवाज दें
खोई खोई जिंदगी को अब कहो क्या साज दें
तुम कहो थी चीज क्या हमको दगा जो दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

रात की गुमनामियों में साँझ का पल खो गया
बादलों के बीच जैसे चाँद जाकर खो गया
गा सके न गीत कोई एक कसक सी रह गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

कुछ घाव हैं दिल पर लगे चाहा पर न कह सका
अरु घाव के उस दर्द को चाहा बहुत, न सह सका
दर्द की वो टीस मन पर बोझ कितने दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

फिर रहा हूँ, अकेले मैं यहाँ तन्हाइयों में
खोजता हूँ स्वयं को स्वयं की परछाइयों में
था न जाने कौन सा पल आह दब कर रह गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01मार्च, 2022

वक्त की रेत पर निशाँ।

वक्त की रेत पर निशाँ।  

वक्त की रेत पर कुछ नये हैं निशाँ
कुछ है बात तेरे मेरे दरमियाँ
छोड़ कर मैं चलूँ तुम कहो किस तरह
नजर आ रहीं कैसी कहो बदलियाँ।।

आ जाओ यहाँ अब भी अहसास है
दूर हैं हम भले दिल मगर पास है
दूर से ही सही एक आवाज दो
सूने जीवन में फिर नया साज दो।।

फिर रचें गीत हम तुम नये, रीत का
भाव जिसमें हो भरा वही प्रीत का
फिर मिले हम वहीं, थीं जहाँ रश्मियाँ
वक्त की रेत पर कुछ नये हों निशाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी, 2022

आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

दिनकर का तेज नभ में जब तक ये रहेगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

माना घनेरे धुंध में बादल यहाँ घिरा
आस के आकाश से, पर विश्वास कब गिरा
जो  तने हैं दर्प में सूखे पेड़ की तरह
सब आँधियों के वेग से हैं टूट कर गिरा।।

अकड़े हैं यहाँ जो भी खबरदार करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

जो भी यहाँ पे राष्ट्र का अपमान करेगा
ना-पाक इरादों की जो भी बात करेगा
गायेगा जो कभी दुश्मनों के गीत यहाँ
अभिव्यक्ति के नामों पर उत्पात करेगा।।

ऐसे निठल्ले लोग को आगाह करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

घर-घर में राष्ट्रवाद गीतों में गूँजेगा 
भारत की माटी को हर कोई पूजेगा
जिसको भी ऐतराज हो चेतावनी यही
है वक्त सँभल जाओ, पांचजन्य बोलेगा।।

भारत प्रेमियों का सदा सम्मान करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

गूँजेगा गीत बस यहाँ भारत के नाम का
सदियों तक ऊँचा रहेगा मस्तक मान का
जब भी चलेंगी बातें कहीं स्वाभिमान की
चरचा वहाँ होगा बस भारत के नाम का।।

भारत के मान का सदा सम्मान करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27फरवरी, 2022

पलकों से ही कह देना।

पलकों से ही कह देना।  

मुझको अपने दर्द का तुम बस इक टुकड़ा ही दे देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

जग के बहुतेरे फेरे कहाँ चलेंगे कहाँ रुकेंगे
खुद को भी मालूम नहीं लहरों के पग कहाँ रुकेंगे
लहरों ने जो पंथ चुना अविरल बहते जाना उसपर
ये अविरल पथ जीवन में अनुमानों के गीत रचेंगे।।

गीतों में जो भाव बुने मुस्काना अरु कह देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

उम्मीदों ने गीत लिखे हैं तारों की परछाईं में
चली चाँदनी आस ओढ़कर सपनों की अँगनाई में
मन को अपने आज मना लो ऋतुओं में रम जाओ तुम
खोल हृदय के द्वार बहो उन्मुक्त यहाँ पुरवाई में।।

मधुमासों के गीत सभी तुम अहसासों में कह देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

मुझको अपना भाव बना लो या मुझमें घुल जाओ तुम
मुझको मिलने दो खुद से या मुझमें ही मिल जाओ तुम
दूर रहें फिर गीत नहीं, जो अधरों पर हैं सजे यहाँ
शब्द बनूँ मैं जो गीतों का भाव यहाँ बन जाओ तुम।।

अपने गीतों के भावों में मुझको तुम रख लेना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24फरवरी, 2022

घर में धर्म कहाँ से होगा।

घर में धर्म कहाँ से होगा।  

जब जब धर्म प्रभावित होगा
सोचो सत्कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

आवाजों के केंद्रबिंदु में
क्यूँ आवाज दबी रह जाती
ऐसा क्यूँ लगता है जग में
आह कंठ में दब रह जाती
नहीं मुखर होंगी जब आहें
फिर मुक्त कंठ कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

चहुँ ओर चीखती आवाजें 
कब तक मौन धरे बैठें सब
चीर खींचता दुःशाशन है
क्यूँ कर मौन धरे बैठे सब
जब तक न चीर सुरक्षित होगा
सोचो शर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अगणित शत्रु नजर गड़ाये
देख रहे हैं सुख शांती पर
अवसादों में स्वयं गड़े हैं
फैलाते मन में भ्रांती पर
जब कटुता का सागर विशाल
मन कहो नर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अब जितने शत्रु सीमा पर हैं
उससे ज्यादा भीतर बैठे
राष्ट्र भावना छलने खातिर
कदम कदम पर देखो ऐंठे
दीमक का साम्राज्य बढ़ा तो
सच्चा कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अँधियारे में एक बिन्दु सी
दीपक रेख बना बैठी है
कैसे कह दूँ इस जीवन में
आशायें घबरा बैठी हैं
आशायें जब मुक्त नहीं हों
फिर सत्कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22फरवरी, 2022

चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

जो था निश्चय यहाँ सब अधूरा रहा
आस का हर सफर भी न पूरा हुआ
धूप की अलगनी पर टँगे रह गये
दिन ने चाहा मगर कब पूरा हुआ।।

धूप सिमटी यहाँ बादलों में कहीं
कि चाह कर धुँधलका वो हटा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

नैन में स्वप्न आये मगर रुक गये
दो कदम चल न पाये मगर थक गये
जोहते ही रहे साँझ तक द्वार पर
रात की ओढ़नी ओढ़ कब खो गये।।

नैन पे स्वप्न आकर गिरे इस तरह
चाहा पर, नींद उसको बचा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

राह भर रोशनी खोजते ही रहे
जब मिली रोशनी राह ही थक गये
राह में फासलों से बिखर सी गयी
क्यूँ थकी राह, हम सोचते ही रहे।।

राह की करवटों में घिरे इस तरह
माथे की सिलवटों को हटा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22फरवरी, 2022

मन की वीणा।

मन की वीणा।   

संध्या के निज सूने पल में एकाकी हो चले हृदय जब
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

भावों के सागर में जब जब
लहरों का तूफान मचा हो
नैनों के कोरों पर जब जब
जीवन का अरमान रुका हो
नहीं किनारा भावों को जब लहरों से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

नदिया की धाराओं पर जब
कश्ती ये मचले अकुलाकर
ताने दे जब तीर नदी का
शब्द चुभे कानों में आकर
लहरों के फिर साथ बहो तुम नदिया से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

अनायास जब लगे मचलने
भाव नजर की परछाईं में
विधना भी जब लगे बदलने
सहसा मन की अँगनाई में
अनुमानों से दूर निकलकर भावों से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर ले।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19फरवरी, 2022

कुछ अभिव्यक्ति अभी बाकी है।

कुछ अभिव्यक्ति अभी बाकी है।  

पग पग जीवन अरमानों के तिल तिल कर के भेंट चढ़ रहा
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

मन के प्रतिबिम्बों में कितने
भाव छुपाये बैठे सारे
प्रतिपल छाँव बदलते लेकिन
उम्मीदों के पथ कब हारे
प्रतिबिम्बों में घुलता जीवन छाँवों का संदेश दे रहा
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

आस समेटे अनुमानों के
अंतर्मन की अँगनाई में
पग पग डग डग दूर चल रहे
पीछे पीछे परछाईं के
मिली सांत्वना अनुमानों से पलकों में संकेत दे रहा
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

जब भी दीपक जला आस का
अकुलाहट सी नयन कोर पर
आशायें तब पंख पसारीं
संभाव्यों के मृदुल छोर पर
अभिलाषाएँ अभिसारित हैं उम्मीदें संकेत दे रहीं
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

मिलने को तो मिल जाता है
आहों को आराम एक दिन
पलकों के ताखों पर ठहरे
सपनों को विश्राम एक दिन
रुके भाव बन शब्द अधर पर गीतों का संकेत दे रहे
फिर भी जाने क्यूँ लगता है अभिव्यक्ति अभी भी बाकी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18फरवरी, 2022

तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।

तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।  

मन में उमड़ रहे भावों को आशाओं के भोजपत्र पर
जितने गीत लिखे हैं मैंने तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।।

मैंने अपनी पलकों पर
कुछ स्वप्न सजाये हैं अब भी
मैंने अपने अधरों पर
कुछ गीत सजाये हैं अब भी
उन गीतों की धाराओं में तुम कहो अगर बहा लूँ मैं
जितने गीत लिखे हैं मैंने तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।।

गूँज रहे हैं शब्द तुम्हारे
कानों में मधु घोल रहे 
ऐसा लगता भाव मचल कर
मन का आँचल खोल रहे
अपने मन के मृदु आँचल में तुम कहो अगर समा लूँ मैं
जितने गीत लिखे हैं मैंने तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।।

भावों की धरती पर कब तक
गीत अकेले गाऊँगा
तुम जो साथ नहीं होंगे तो
कैसे खुद को पाऊँगा
अपने मन के साथ तुम्हारा मन कहो अगर मिला लूँ मैं
जितने गीत लिखे हैं मैंने तुम कहो अगर सुना दूँ मैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      16फरवरी,2022




पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।

पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।  

भाग्य रेखाओं ने दृश्य ऐसे गढ़े
पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।।

साँस की डोरियाँ सुर सजाती रहीं
प्रीत का भाव ले गुनगुनाती रहीं
स्वप्न बुनती रहीं पुतलियाँ रात भर
नींद की पालकी वो सजाती रहीं।।

नींद पर रात भर हमको आयी नहीं
कहना चाहा मगर कुछ भी कह न सके
भाग्य रेखाओं ने दृश्य ऐसे गढ़े
पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।।

इक नए गीत की आस में सब सहे
काँटों से जो मिले दर्द सहते रहे
हर नई आहटें भाव बुनती मगर
जो लिखी पँक्तियाँ नीर में सब बहे।।

नीर ऐसे बहे कि रोक पाये नहीं
नीर का दर्द चाह कर भी कह ना सके
भाग्य रेखाओं ने दृश्य ऐसे गढ़े
पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।।

तुम कहो अब नया गीत कैसे रचूँ
जो छुये भावों को वो कैसे कहूँ
थी सहज कब यहाँ जिंदगी बिन तेरे
बात मन की बोलो मैं कैसे कहूँ।।

थी सहज कब यहाँ भावों की पालकी
कुछ ना कहते बना देखते बस रहे
भाग्य रेखाओं ने दृश्य ऐसे गढ़े
पास रह कर भी हम तुम कहीं ना रहे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12फरवरी, 2022

भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।

भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।  

पृष्ठ पर बादलों के लिखी गीतिका
पौन झोंके न जाने उड़ा ले चले
कुछ कहे कुछ सुने कुछ मिले इस तरह
भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।।

साँझ के साथ में इक मुलाकात थी
दूर तारों की मानो बारात थी
रश्मियाँ धुँधलके से मिली इस तरह
यूँ सदियों से बिछड़ी कहीं रात थी।।

धुँधलके ने लिखी जो कथानक वहाँ
रश्मियाँ वो कहानी कहाँ ले चले
कुछ कहे कुछ सुने कुछ मिले इस तरह
भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।।

लड़खड़ाते कदम जो बढ़े रात में
साँस ने साँस से कुछ कहा रात में
रात भर रश्मियाँ गीत लिखती रहीं
भोर ने भी रचा पीत के पात में।।

साँस ने साँस से जो कहा रात भर
गात बस गीत वो गुनगुनाते चले
कुछ कहे कुछ सुने कुछ मिले इस तरह
भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।।

जो समय ने रचे गीत विस्तृत हुए
पलकों के स्वप्न सभी परिस्तृत हुए
तृप्ति गीत अधरों ने लिखा इस तरह
गात के भाव सारे सुसज्जित हुए।।

खुशबुएँ प्रीत से यूँ नहाई वहाँ
भाव की रागिनी हम सजाते चले
कुछ कहे कुछ सुने कुछ मिले इस तरह
भाव मन के न जाने कहाँ उड़ चले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11फरवरी, 2022

मैं जलियाँवाला बाग हूँ।

मैं जलियाँवाला बाग हूँ।  

इतिहासी पन्नों में मुखरित
भावों का अविरल राग हूँ
मैं जलियाँवाला बाग हूँ।।

आजादी के मतवालों का
जीवन मैंने देखा है
रिपु के पैरों से कुचला
मैंने उपवन देखा है
नन्हें नन्हें शिशुओं के 
पलकों से रिसता पराग हूँ
मैं जलियाँवाला बाग हूँ।।

राष्ट्रप्रेम का ध्वज वाहक मैं
आजादी की मृदु चाहत मैं 
नैनों में जो स्वप्न पले थे
उन सपनों का वाहक मैं
रक्तिम भावों से घट घट का
मतवाला अनुराग हूँ
मैं जलियाँवाला बाग हूँ।।

कण कण रक्तिम भाव सुगंधित
पुष्पाच्छादित प्रभाव सुगंधित
आजादी के महातीर्थ मैं
प्रेम समर्पण भाव समर्पित
आजादी के महासमर में
बलिदानियों का त्याग हूँ
मैं जलियाँवाला बाग हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2022

बुने जाल में अंतर्मन।

बुने जाल में अंतर्मन।   

मन की आशायें पग पग पर कितने रूप सजाती हैं
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

भावों के आँगन में मन ने
सपनों के कुछ पुष्प खिलाये
आशाओं की कलियाँ चुनकर
पग पग मन ने पंथ सजाये।।

भावों की फुलवारी पग पग काँटों पर बिछ जाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

आवाजों के मेले बोलो 
अब कैसे कहूँ अकेला हूँ
झाँझ मँजीरे नाद कहीं पर
अरु कहीं मौन से खेला हूँ।।

आवाजों के मेलों में ये मौन मचल रह जाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

जग से जो कुछ पाया हमने
कब उससे ज्यादा दिया यहाँ
इच्छायें जब भारी मन पर
पग पग पर केवल जाल बुना।।

बुने जाल में अंतर्मन ये कहो निकल कब पाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09फरवरी, 2022






खुशियों की गागर।

खुशियों की गागर।   

प्राची से आ रही सवारी
दिनकर भी मुस्काया है
पंछी ने आवाज लगायी
सूरज सर चढ़ आया है
चलें निकलकर पनघट तक हम
अब कैसी ये दूरी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

शाखों पर नव पुष्प खिले हैं
कलियाँ भी मुस्काई हैं
पुरवा के झोंके भी हमतक
नव संदेशा लायी हैं
सुनो गा रही सभी दिशायें
गाते कँगना चूड़ी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

भोर तटों पर मिले रात दिन
जीवन नव राग सुनाये
पंछी के कलरव में सुन लो
जीवन संगीत समाये
खुशियों से भर लें अब गागर
बस थोड़ी सी दूरी है
राहें अपनी एक यहाँ जब
फिर कैसी मजबूरी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2022



बूँद गिर कर कह गये।

बूँद गिर कर कह गये।   

नीर पलकों से मचलकर बूँद बनकर झर गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

छुप गया सूरज क्षितिज पर मौन है सब रश्मियाँ
बस थके हारे कदम के रह गये थोड़े निशाँ
चल पड़े फिर मौन पथ पर दूर कितना पर गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

यादों के पृष्ठों में था पुष्प मुरझाया हुआ
सूखी थी पत्तियाँ अरु भाव कुम्हलाया हुआ
थे मुखर पर भाव अब भी जो बिखर कर रह गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

कलियों से सुरभित रहा मृदु अश्रु जीवन का यहाँ
स्मृतियों में अब तक अमिट हैं गीतों की सब पंक्तियाँ
कुछ शब्द आहों से सजे कुछ आह में मिट गये
कह न पाये जो अधर ये बूँद गिर कर कह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08फरवरी, 2022




पृष्ठों की धरा।

पृष्ठों की धरा।  

भाव जिनको गीत बनकर गूँजना था इस जहाँ में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

इस हृदय की भावनाओं ने था रचा नवगीत इक
और उम्र ने भी आगोश में भर कर रचा था गीत इक
उम्र ने लिखे जो गीत सारे मौसमों में ढल गये
रोकता फिर कैसे बोलो जब दूर सब निकल गये।।

भाव जिनको प्रीत बनकर गूँजना था इस जहाँ में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

द्वार तक आयीं निरंतर रश्मियाँ जाने कहाँ हैं
स्वप्न सजने थे पलक पर छूट कर जाने कहाँ हैं
अक्षरों के खेल से यहाँ जो दृश्य मुखरित थे कभी
जाने किस आकाश में वो गुम हुए जाकर सभी।।

वो स्वप्न जिनको था निखरना इस खुले आकाश में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

जिसने सदियों को समेटा लम्हों में संचित किया
जिसने पथ के कंटकों को पुष्पों से सिंचित किया
जिसने अँधियारे में बिखेरी आस की उजली किरण
जिसने खुद काँटे चुने अरु बाँटे जग को बस सुमन।।

जिनको बनकर सूर्य चमकना था खुले आकाश में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07फरवरी, 2022



मन की सारी कह लेता।

मन की सारी कह लेता।   

कुछ पल रात ठहर जाती जो
मन की सारी कह लेता
सुन लेता जी भरकर तुमको
और दर्द सभी सह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

अंतिम प्रहर रात का देखो
रह रह कर के पिघल रहा
तारों से आच्छादित नभ में
मन का चंदा मचल रहा
दूर कहीं टूटे तारे की
मन की पीड़ा सुन लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

सोते क्या जब रात जाग कर
श्वेत धुँए से भर डाली
लेकिन पलकें बंद रात भर
की सपनों की रखवाली
करती रहीं प्रतीक्षा वो तो
बस थोड़ा तो रह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

निशि भर भाव पलक पर बैठीं
आशायें यूँ मँडराती
थकी उदासी धीरे धीरे
काश हृदय को छू पाती
छू पाती जो हृदय कभी तो
आहों में भी रह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

बुझी राख की यादें लेकर
रात सिमटने को आतुर
आकाशों को देख रहीं अब
बोझिल पलकें हो व्याकुल
व्याकुलता के भाव सभी ये
काश हृदय ये सह लेता
कुछ पल रात ठहर जाती तो
मन की सारी कह लेता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06फरवरी, 2022



पिय बसंत ऋतु बड़ी सुहानी।

पिय बसंत ऋतु बड़ी सुहानी।  

पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन
मुस्कुरा रही डाली डाली कह रही कुछ ये पवन।।

तार गूँजे हैं हँसी के खिल गया संसार सारा
पंछियों के मृदु स्वरों से गूँजता आकाश सारा
हो गईं हैं मदमस्त देखो आज सारी वादियाँ
लगता धरती पर है उतरा झूम कर स्वर्ग सारा।।

लिख गये नवगीत पथ पथ खिल रहे सभी अंतर्मन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

नेह पलकों से झरे अधरों पे नवल मुस्कान है
देखो प्रकृति के अंक ने पाई नई पहचान है
उच्च शिखरों से चमकता ये सूर्य भी कुछ कह रहा
पंछियों के कलरवों में सब गूँजते गुणगान हैं।।

हुई धरा पुलकित बहुत केसर सम रंगे वन सघन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

ठहरे हैं जो शब्द अधरों पर उन्हें अब बोल दो
मन के भावों को ना रोको वक्त है ये खोल दो
कह दो मन की बात सारी अब मौन ऐसे न रहो
जो किसी से न कही हो वो बात खुलकर के कहो।।

चलो हम गायें गीत ऐसा पुण्य हो जाये मिलन
पिय बसंत ऋतु ये बड़ी सुहानी खिल गये धरती गगन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04फरवरी, 2022

पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।

पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।

जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं
ये पलक जब भी हुई है इन वीथियों पे सजल
इक गीतिका होंठों तक आई आकर जम गयी।।

पृष्ठ पर जो भी लिखे वो गीत जाने गुम हुए
शब्द भावों से चुने न जाने कहाँ वो गुम हुए
जो लिखे थे गीत हमने छंद के सत्कार के
पँक्तियाँ खोई सभी अरु भाव जाने गुम हुए।।

चाहा कितना कि रचूँ बस प्रीत का नव पंथ मैं
न चल सके मेरे कदम ये राहें थम सी गयी
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।


भोर को शैशव समझ मेल उससे कर सके ना
जब हुआ थोड़ा उजाला तेज भी सह सके ना
अब क्षितिज पर देख कर जाती हुई उजली किरण
रोकता कैसा कि मन जब व्यक्त भी कर सके ना।।

कह सके न भाव खुल के जाने कैसी द्वंद थी
लिख सके ना गीत कोई लेखनी थम सी गयी
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।

रात ने देकर सहारा भोर को आवाज दी
चाँद किरणों ने मचल कर इक नई शुरुआत दी
तारों ने भी झिलमिलाकर हौले से कुछ कहा
अब कहो कि किस्मतों ने हमको भी ये रात दी।।

रात मन की कह सकी ना या रश्मियाँ मंद थीं
भाव बन नीर पलकों के किनारे तर कर गयीं
जब भी लिखने को चले हम जिंदगी की इक गजल
पँक्तियाँ एक मोड़ तक आईं आकर थम गयीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04फरवरी, 2022


भाव की अलोड़नाएँ।

भाव की अलोड़नाएँ।  

स्वप्न हैं ठहरे नयन में तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

लाज ने रोका अधर पर भाव जो छाये कभी
कहते कहते रुक गये शब्द कुम्हलाये सभी
दृष्टि पड़ते ही नयन के भाव सब झंकृत हुये
और भूले गीत सारे याद फिर आये सभी।।

शब्द जो ठहरे अधर पर तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

लिख रहे हैं गीत हम तो आस के अनुबंध के
शब्दों का लेकर सहारा बिना किसी प्रतिबंध के
कल कही जो बात तुमने यहाँ बांधे हुए है
अन्यथा मैं लिख न पाता गीत मृदु संबन्ध के।।

आस के अनुबंध को जो तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

एक ही जीवन मिला है तुम कहो तो वार दूँ
एक तुम्हारा साथ हो मैं सभी कुछ हार दूँ
क्या करूँगा वो जगत जिसमें तेरा साथ न हो
कामना बस है यही ये जिंदगी उपहार दूँ।।

उम्र का संबन्ध है जो तुम कहो तो बोल दूँ
भाव की आलोड़नाओं को कहो तो खोल दूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03फरवरी, 2022

ज्ञान का दीपक।

ज्ञान का दीपक।  

चलो फिर आज गीतों में समर्पण गान हम भर लें
चुन कर शब्द जीवन से मधुर गुणगान हम कर लें
जला डालें सभी अवगुण रोकें राह खुशियों की
लिखें फिर गीत जीवन के नव आह्वान हम कर लें।।

सभी दुरवृत्तियों को त्याग कर मन शुद्ध कर डालें
मिटा डालें सभी दुर्गुण अरु मन को बुद्ध कर डालें
भटक जाये न ये जीवन कहीं अनगिन व्यथाओं में
जला कर ज्ञान का दीपक अँधेरे रुद्ध कर डालें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28जनवरी, 2022

आलिंगन में हमने जीवन भर लिये।

आलिंगन में हमने जीवन भर लिए।  

भावों की फुलवारी से चुन प्रेम की कुछ पाँखुरी
हमने आलिंगन में अपने आज जीवन भर लिया।।

कह दिये जो शब्द तुमने भाव मन का खिल गया
क्या कहूँ तुमसे यहाँ पर क्या क्या मुझको मिल गया
चुन लिये हैं प्रीत के पल भर लिये हैं आँजुरी
मुझको जीवन के भँवर में जैसे किनारा मिल गया।।

पास आती हर लहर से भर के मन की गागरी
हमने आलिंगन में अपने आज जीवन भर लिया।।

कह दिया कुछ आज मन की और मन की सुन लिया
राहों में जो पुष्प बिखरे हमने उनको चुन लिया
रच लिये नव गीत हमने छू के तेरी आँगुरी
मन के विचलन को यहाँ जैसे सहारा मिल गया।।

मिल गया मन आज ऐसे खत्म मन की आतुरी
हमने आलिंगन में अपने आज जीवन भर लिया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जनवरी, 2022

यादों की बातें।

यादों की बातें।  

मन के सारे भाव मचल कर पन्नों में यूँ सिमट गये
गा ना पाये गीत यहाँ जो यादों में सब लिपट गये।।

बहुत सरल है इस जग में आरोपों की झड़ी लगाना
बहुत सरल है जग में औरों के ऊपर प्रश्न उठाना
सच है मन की बात कठिन जो औरों के मन को भाये
और सुनाना गीतों में मन के भावों को समझाना।।

समझा ना पाये भाव यहाँ जो गीतों में सिमट गये
गा ना पाये गीत यहाँ जो यादों में सब लिपट गये।।

कितनी आहें कितने आँसू कितनी रची कहानी है
कितनी बातें दबी रह गयीं कितनी और सुनानी है
लिखे कलम शब्द सँजोकर उतने भाव मुखर हो बैठे
शब्द नहीं जो लिखे कलम ने गीतों में कह जानी है।।

आँखों के आँसू पलकों में आये आकर सिमट गये
गा ना पाये गीत यहाँ जो यादों में सब लिपट गये।।

डूबा है आकाश कहीं तो किरणें भी तो मंद हुईं
तम के भ्रम में दूर क्षितिज पर किरणों की गति कुंद हुई
जलते दीपक आज निशा से आंखमिचौली खेल रहे
आशाओं के इंद्रधनुष क्यूँ रंगों में बेमेल रहे।।

इंद्रधनुष के रंग यहाँ सब आकाशों में सिमट गये
गा ना पाये गीत यहाँ जो यादों में सब लिपट गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जनवरी, 2022

संभावनाएँ।

संभावनाएँ।  

भोर की पहली किरण 
जब चूमती हैं गात को
मुक्त होती हैं दिशायें
फैलती हैं ज्योत्सनायें।।

वेद मंत्रों की ऋचाएँ
कानों में मृदु गीत घोलें
पंछियों की आहटें मृदु
कान में संगीत घोलें
गूँजते हैं दश दिशायें
दे रही संभावनाएँ।।

प्राची से दिनकर निकलकर
पुण्य पंथों को सजाता
दे के नव एहसास फिर
शून्य से सबको जगाता
भर रहा जीवन में प्रतिपल
मृदु आस की संवेदनाएँ।।

जागो है भारत तुम्हें है
नव गीत का निर्माण करना
गूँजे जिससे विश्व सारा
संगीत का निर्माण करना
त्यागो आलस्य हैं खड़ी
सामने मृदु कामनायें।।

सत्य का संज्ञान कर के
लक्ष्य का संधान कर लो
आस का आकाश ले कर
पुण्य का अनुमान कर लो
संशयों से दूर देखो
रच रहीं संभावनाएँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       26जनवरी, 2022

सिहरन मन की।

सिहरन मन की।  

चंदन गात तुम्हारा रूपसी यादों में मुस्काता है
हौले से इक सिहरन मन के मृदु भावों को छू जाता है।।

प्राची से छनकर किरणें जब मन का चुंबन लेती हैं
भावों के उपवन में कितने सपने में वो बुन लेती हैं
सपनों के आलिंगन में जब-जब ऊषा ने अँगड़ाई ली 
हौले से मुस्काती प्राची भाव सुनहरे रच देती है।।

रूप सुनहरा जब जब तेरा मन उपवन में लहराता है
हौले से इक सिहरन मन के मृदु भावों को छू जाता है।।

पदचापों की मधुर रागिनी जब भरती गीतों का आँगन
तब-तब मन के उपवन में सजती है पुण्य सुरों की सरगम
कंगन की खन-खन सुन कर तब खिल जाती हैं मन की कलियाँ
नये सुरों में गीत सजा मन सुनना चाहे मृदु संबोधन।।

अधरों का मृदु कंपन जब-जब नवगीत मनहरा गाता है
हौले से इक सिहरन मन के मृदु भावों को छू जाता है।।

शब्दों का संयोजन ऐसा गीतों की हो मधुर पालकी
अधरों का संबोधन ऐसा बातें किरणें स्वतः मानती
रच जाते हैं नव गीत कई मृदु भावों के मुस्काने से
खिल जाता हैं मधुवन सारा गीतों में तेरे गाने से।।

तेरे पलकों के नरतन से दृश्य मनोरम हो जाता है
हौले से इक सिहरन मन के मृदु भावों को छू जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25जनवरी, 2022

जमाना गुनगुनायेगा।

जमाना गुनगुनायेगा।  

हाल ए दिल जानने तिरा यहाँ अब कौन आयेगा
हवाओं ने नजर फेरी संदेशा कौन लायेगा।।

ये माना नींद तुझको तो कभी आई नहीं लेकिन
बता पलकों में तिरी नींदों को फिर कौन लायेगा।।

तिरे गीतों ने पलकों को दिखाये हैं कई सपने
संग में तू नहीं होगा उन्हें फिर कौन गायेगा।।

मिले जो जख्म दुनिया से नहीं मुश्किल भुलाना है
मगर दिल की लगी को फिर कोई कैसे भुलायेगा।।

है बाकी रोशनी अब भी कहीं मन के अँधेरों में
तुम्हारा साथ पाया जो दिया फिर टिमटिमायेगा।।

चलो कुछ गीत हम रच दें ज़माने की रवायत के
सदियों बाद भी जिनको ये जमाना गुनगुनायेगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जनवरी, 2022

ऐसा कोई मिला नहीं।

ऐसा कोई मिला नहीं।   

यादों के तहखाने में धूल धूसरित छवि तुम्हारी
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।

अंतस में वो गीत अभी तक ठहरे हैं कुछ यादें बनकर
जिनको तुमने कभी लिखा था शब्दों की कलियाँ चुन चुन कर
रच डाले थे गीत कई मृदु मौसम के परिधानों के
गीत मगर सब दबे रह गये ऋतुओं के व्यवधानों में
अधरों तक आकर सब ठहरे गाते भी तो कैसे गाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।

साँझ ढले मन सिंधु तीर पर छिपता सूरज देख रहा
भूली बिसरी यादों में मन लुका छिपी है खेल रहा
नभ के गलियारे में अब तक ठहरे वो चंदा तारे
सपनों को आलिंगन भर चले कभी जो साथ हमारे
छूटा नभ का साथ कभी तो टूटे तारे गिर जाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।

यादों के मानसरोवर में गीत अभी तक गूंज रहे
तेरे अधरों ने मुस्काकर कानों में जो कभी कहे
उन गीतों की सरगम से ही जीवन क्या हमने जाना
प्राण बाँसुरी की सरगम है अधरों तक जाकर जाना
लेकिन स्वर जब मिला नहीं हम गाते भी तो कैसे गाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।

जीवन के इस महासिन्धु में कितने गीत सजाए थे
रुँधे भले थे कंठ मगर संग संग मिल कर गाये थे
जर्जर धूल धूसरित छवि देवालय में कहीं दबी है
माना जग से दूर हुए लेकिन मुझमें यहीं कहीं है
मन के सूने देवालय में तुम बिन क्या दीप जलाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जनवरी, 2022

गीत कैसे मान लूँ।

गीत कैसे मान लूँ।   

कुछ शब्द भरकर गीत में इतरा न मन तू इस तरह
होंठ पर जब तक सजे ना गीत कैसे मान लूँ।।

मन एक प्यासा समंदर राह नदिया की तके है
दूर उद्गम हो भले पर राह बोलो कब थके है
जब चल दिये आवेग में ये रास्ते खुल जायेंगे
और जो मन में उठे वो प्रश्न सभी मिट जायेंगे
प्रश्न के उत्तर सभी क्या स्वीकार होंगे इस तरह
जो बात मन की ना कहे तो गीत कैसे मान लूँ।।

दर्द का ना बोध हो ऐसा कोई प्राणी नहीं है
सुख ही सुख का ढेर हो ऐसी अमरवाणी नहीं है
न हो सजग इस पंथ में तो पाँव ये छिल जायेंगे
हौसलों पर यदि हो पकड़ तो रास्ते मिल जायेंगे
चोट खाकर टूट जायें इस राह में जो इस तरह
उसके क्रंदन को कहो यहाँ गीत कैसे मान लूँ।।

व्यर्थ होंगे शब्द सारे गीतों का न बोल होगा
अधरों पर जो न सजे तो गीत का क्या मोल होगा
जग को जो कुछ दे सके ना व्यर्थ जीवन जायेंगे
ये शब्द कोरे ही रहेंगे गीत न बन पायेंगे
जब तक सजे ना होंठ पर तो प्रीत कैसे मान लूँ
और मन को जो छुये न उसे गीत कैसे मान लूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जनवरी, 2022

लोकतंत्र फिर खिल खिल जाये।

लोकतंत्र फिर खिल खिल जाये।  

अनगिन मौन कहानी मन की
बाट जोहती संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।

मंचों से कितनी ही बातें
उम्मीदों के दीप जलाती
मन के संकेतों को पढ़ती
संकोचों में पर खो जाती
मिलने को तो मिल जाती पर
बाट जोहती संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।

निकला आज मचल कर सूरज
अँधियारे को दूर भगाने
लिखने को इक नया सवेरा
उम्मीदों के गीत सुनाने
गीत मधुर अधरों पर ठहरे
बाट जोहते संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।

बीच सदन में खड़ी द्रौपदी
याचक बनकर किसे बुलाये
किसे अंतर्मन की पीर कहे
किसको अपना घाव दिखाये
मन में कितना घाव लिये वो
करे प्रतीक्षा आदेशों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।

सत्ता के गलियारों में ना
लोकतंत्र दब कर रह जाये
खुलकर मन की बात कहो अब
लोकतंत्र फिर से खिल जाये
मिट जाये अँधियारे सारे
खिले रश्मियाँ अनुदेशों की
मिल जाये सम्मान सभी को
लोकतंत्र फिर खिल खिल जाये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जनवरी, 2022

गीत मेरे अधरों पर सबके सजेंगे।

गीत मेरे अधरों पर सबके सजेंगे।   

आज माना गीत मेरे हैं ढूँढते अपने निशाँ
इक दिन ये गीत मेरे अधरों पर सबके सजेंगे।।

साँझ ने माना सभी को रात की सूरत दिखाई
बादलों की ओट से भी चाँद ने दी है दुहाई
कुछ चुने हैं पुष्प हमने रात की तनहाइयों में
पुष्प का परिधान लेकर आस की बगिया सजायी
है सब समय का फेर अब अफसोस ना इसका करो
दीप जो हमने जलाया सुबह लाकर ही बुझेंगे।।

बेबसी मेरे हृदय की जब नहीं समझे यहाँ पर
तुम ही कहो क्यूँ बेबसी को गीत मैं गाता फिरूँ
अब इस कदर अफसोस न करना मेरे हालात पर 
है नहीं संभव यहाँ कि सबको मैं बतलाता फिरूँ
बेबसी जो थी अधर की उपहास ना उसका करो
दीप जो हमने जलाया सुबह लाकर ही बुझेंगे।।

आँधियों में आज फिर से दीप सपनों का जलाया
आँसुओं का तेल भरकर आस को बाती बनाया
है यही बस कामना के गीत मेरे भी सजेंगे
आज गाता हूँ अकेले कल इसे सारे कहेंगे
आँधियों में तेज माना अफसोस ना इसका करो
दीप जो हमने जलाया सुबह लाकर ही बुझेंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19जनवरी, 2022

पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।

पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।   

जो उदासी पास आये दूर तुम उसको करो
पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।।

अश्रु जो बहते पलक से होता आत्मा का क्षरण
बह गये आँसुओं को बोलो कहाँ मिलता शरण
जो गिरे ये पलक से तो हाथ ही हैं पोंछते
फिर कहो किसलिये यहाँ उदासियों को पोसते।।

ये अश्रु व्यर्थ हो न जायें कुछ तो तुम जतन करो
पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।।

पंथ की नाकामियों का है जरूरी आकलन
जिंदगी ये हार जीत का है सुखद संकलन
है कौन जो जगत में दुख से सदा वंचित रहा
या कहो किस भाग्य में सुख ही सदा संचित रहा।।

सभी पलों को जिंदगी के स्वयं आँचल में भरो
पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।।

है विकलता पास आये मौन तुम पुचकार लो
भर आलिंगन में अपने प्रेम उस पर वार दो
दो घड़ी का है जगत ये व्यर्थ ना इसको करो
जिंदगी है कीमती बस प्रेम से स्वागत करो।।

अब जिंदगी को पाश में लो व्यर्थ न क्रंदन करो
पुतलियाँ ये नीर को कब तक यूँ ही ढोएंगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18जनवरी, 2022

शब्दों में छलकेगा ही।

शब्दों में छलकेगा ही।  

जीवन के इस महासिन्धु की
है छोटी सी धारा माना
उद्गम पर यदि रोक लगेगी
शब्दों में फिर छलकेगा ही।।

प्यालों में सिमटा ना पाया
जीवन भर जल की बूँदों को
पलकों में सिमटा ना पाया
भावों की बहती बूँदों को
भावों पर यदि रोक लगेगी
पलकों से फिर छलकेगा ही
उद्गम पर यदि रोक लगेगी
शब्दों में फिर छलकेगा ही।।

बीच भँवर में साथ छोड़ना
उत्तम कैसे कहो कहूँ मैं
भय के आगे पीठ मोड़ना
संयम कैसे कहो कहूँ मैं
संयम पर आघात लगेगा
आवाजों में तड़पेगा ही
उद्गम पर यदि रोक लगेगी
शब्दों में फिर छलकेगा ही।।

जिसने कर्मयोग को समझा
गुण- दोष उसी ने पहचाना
आरोपों के चक्रव्यूह में
उसका ही है आना जाना
कर्मयोग का पुष्प खिला कर
सँवरेगा अरु महकेगा ही
उद्गम पर यदि रोक लगेगी
शब्दों में फिर छलकेगा ही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जनवरी, 2022



रात पर ठहर गयी।

 रात पर ठहर गयी।  

कुछ लिखा नहीं लिखा, कुछ पढ़ा नहीं पढ़ा
कुछ कहा नहीं कहा, कुछ सुना नहीं सुना
पँक्तियाँ मौन थीं, भाव सब बिखर बिखर
शब्द के अभाव में मौन के स्वभाव में
क्या वो बोलते गये मुझको तोलते गये
सुने सभी खड़े खड़े नीर नैन में भरे
जो लिखे थे गीत सारे अधरों पर लहर गयी
साँझ तो गुजर गया रात पर ठहर गयी।।

इक हथेली आस लेकर मिल रहे थे दूर से
कितने स्वप्न पास लेकर पल रहे थे दूर से
कुछ मिला नहीं मिला क्या क्या पर बिछड़ गया
यादों के झरोखों से वो बीता पल गुजर गया
क्या क्या देखते रहे मौन सोचते रहे
सोचा सब खड़े खड़े नीर नैन में भरे
जो लिखे थे गीत सारे अधरों पर लहर गयी
साँझ तो गुजर गया रात पर ठहर गयी।।

प्रेम का मधुर वो ग्रंथ पढ़ नहीं सके जिसे
पास पास चल रही पर कह नहीं सके जिसे
कंठ में ही दब गये वो गीत सारे प्यार के
मौन भाव राह गये थे वक्त के प्रहार से
खुद को खोजते रहे मौन सोचते रहे
खोजा फिर खड़े खड़े नीर नैन में भरे
जो लिखे थे गीत सारे अधरों पर लहर गयी
साँझ तो गुजर गया रात पर ठहर गयी।।

मुक्त हूँ प्रभाव से अरु वक्त के बहाव से
दर्द के लगाव से अरु आस के जुड़ाव से
थी घुटी जो चीख सारी बीते कल के वार से
घाव सब गुजर गये अब उम्र के प्रभाव से
उम्र के उतार पर वो शब्द बीनते रहे
वो शब्द ले खड़े खड़े नीर नैन में भरे
जो लिखे थे गीत सारे अधरों पर लहर गयी
साँझ तो गुजर गया रात पर ठहर गयी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जनवरी, 2022


वरना गीत अधूरे रह जायेंगे।

वरना गीत अधूरे रह जायेंगे।  

मेरे गीतों के शब्दों में कुछ तो शब्द भरो हे प्रियवर
वरना जो भी गीत लिखे हैं सभी अधूरे रह जायेंगे।।

जीवन भर महकूँ मैं यूँ ही
मन में मेरे नहीं लालसा
गीतों की गलियों में बहकूँ
ऐसी भी है नहीं लालसा
पर मेरे गीतों में तुम भी अपना गीत भरो हे प्रियवर
वरना जो भी गीत लिखे हैं सभी अधूरे रह जायेंगे।।

ये गीत नहीं वो पुष्प यहाँ 
जो आसानी से मिलते हैं
भावों में जब प्यास जगी हो 
तब ही जाकर ये खिलते हैं
मेरे मन की इन प्यासों में तुम थोड़ी तो बरसात भरो
वरना जो भी गीत लिखे हैं सभी अधूरे रह जायेंगे।।

जीवन के इस महा सिन्धु में
पल कितना कुछ सिखलाता है
जो भी डूबा आकर इसमें
जीवन का मोती पाता है
मेरे इस मोती की माला का तुम प्रियवर आधार बनो
वरना जो भी गीत लिखे हैं सभी अधूरे रह जायेंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14जनवरी, 2022


चेहरे जब याद आते हैं।

चेहरे जब याद आते हैं।  

मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

जीवन भर वरदानों खातिर
पग पग कितना दूर चला मैं
थोड़े से अहसानों खातिर
जाने कितनी पीर सहा मैं
लेकिन जिन चरणों ने बेबस
भटक भटक कर जीवन काटा
उन चरणों के छाले मेरे
दिल को बरबस तड़पाते हैं।।
मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

राष्ट्र भावना की मशाल ले
सीमाओं पर लोग डटे जो
प्राण हथेली पर रख कर के
रक्षा खातिर वहाँ डटे जो
उनके त्याग भावना के प्रण
ने इतिहास बदल डाला है
उनके बलिदानों की बातें
दिल को पल पल छू जाते हैं।।
मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

आजादी की बलिबेदी पर
कितना ही अपमान सहा है
भूख प्यास में जीवन काटा
पग पग कितना घाव सहा है
जिनके घावों की पीड़ा ने
सारा भूगोल बदल डाला 
उनके पीड़ा की आवाजें
अंतरतम तक दहलाते हैं।।
मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

खुद काल कोठरी में रहकर
आजादी को मान दिलाया
भारत माता को दुनिया में
न्यायोचित सम्मान दिलाया
अपने जीवन की आहुति दे
जिसने साम्राज्य बदल डाला
बलिदानों की इस माटी के
सौगंध हृदय को छू जाते हैं।।
मेरे नयनों के ऑंसू भी बहते बहते रुक जाते हैं
मूल भूत सुविधा से वंचित चेहरे जब याद आते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जनवरी, 2022

गीतों का मत उपहास करो।

गीतों का मत उपहास करो।  

मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

सुख की उम्मीदों में हमने अगणित दुख भी पाले हैं
फिर भी कदम कदम पर मेरे सुख पर कैसे ताले हैं
मेरे सुख के तालों पर अब तुम भी मत अनुताप करो
मुझको पश्चाताप नहीं मत तुम भी पश्चाताप करो।।


मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

सुख की सेजों पर ही सोऊँ माँगा कब वरदान यहाँ
पीड़ा की गलियों में विचरूँ ऐसी भी ना चाह यहाँ
पीड़ा की गलियों में अब तुम मत कोई अभिताप करो
मुझको पश्चाताप नहीं मत तुम भी पश्चाताप करो।।


मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

इस सारे संसार मध्य में ऑंसू आज सहारा है
किससे कहूँ हृदय की बातें किसको कहूँ हमारा है
मेरे आँसू पर अब तुम मत कोई भी परिताप करो
मुझको पश्चाताप नहीं मत तुम भी पश्चाताप करो।।


मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

मोम नहीं अब पत्थर हूँ मै दर्द का यहाँ समंदर हूँ
जितना जग ने बाहर समझा उतना ही मैं अंदर हूँ
अब होने ना होने का तुम मत कोई अभिताप करो 
मुझको पश्चाताप नहीं मत तुम भी पश्चाताप करो।।


मेरे गीत व्यथा हैं मेरी मत इनका परिहास करो
आँसू बन कर शब्द झरे हैं मत इनका उपहास करो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जनवरी, 2022

शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।

शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

आस की ज्योति ले पंथ के तम चुने
रश्मि की गोद में स्वप्न कितने बुने
हो विदित के यहाँ मोक्ष की राह पर
शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

छंद की पंक्ति में जो समाहित हुआ
भाव के रूप में जो आवाहित हुआ
अरु वाणी में जिसके मधुर तान थी
वही गीत अधरों से प्रवाहित हुआ।।

जो कहे गीत पल पल मधुरतम बने
प्रीत के भाव में वो निकटतम बने
हो विदित के यहाँ मोक्ष की राह पर
शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

रात ने ओट से भोर से कुछ कहा
वो जो बीती निशा में क्या कुछ सहा
मौन को गीत से था मिला आसरा
प्रीत के पाश में गुनगुनाता रहा।।

अंक में प्रीत के स्वप्न जितने बुने
पंथ में प्रीत के पुष्प उतने चुने
हो विदित के यहाँ मोक्ष की राह पर
शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

हैं समर्पित दिशायें तुम्हारे लिये
गीतों की अदायें तुम्हारे लिये
शब्द श्रृंगार से अब सजे जो यहाँ
वो सारी विधायें तुम्हारे लिये।।

पंथ में पुण्य के ग्रंथ जितने सुने
पंक्ति ने जीत के पंथ उतने बुने
हो विदित के यहाँ मोक्ष की राह पर
शब्द कितने गढ़े शब्द कितने सुने।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09जनवरी, 2022


चोट में हम तो मुस्कुराने लगे हैं।

चोट में हम तो मुस्कुराने लगे हैं।  

याद से जिनको अपनी हम भुलाने लगे हैं
सुना है वही फिर हमें आजमाने लगे हैं।।

उम्र भर सच अपना छिपाते रहे जो सभी से
सुना वही झूठ अपना अब छुपाने लगे हैं।।

वो कल तक जिन्हें किसी की जरूरत नहीं थी
वही अब मिलने के मौके बनाने लगे हैं।।

कल तलक जिन्हें शौक था आईने का बहुत
सुना आईने से नजरें चुराने लगे हैं।।

जब भी चाहा मिलूँ खामोशियों के शहर में
सारे मंजर पुराने छटपटाने लगे हैं।।

के तुम्हें याद हो न हो वो बातें पुरानी 
पर मुझे यादें वो सारी बुलाने लगे हैं।।

तेरी बेरुखी ने यूँ तड़पाया है अकसर
बेरुखी में भी खुद को आजमाने लगे हैं।।

कि असर करता नहीं चोट कोई अजय अब तो
अब हर चोट में हम तो मुस्कुराने लगे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जनवरी, 2022

जो न लिखता क्या मैं करता।

जो न लिखता क्या मैं करता।   

चल रहा था जिस सफर में बैठ कर के क्या मैं करता
इम्तिहानों की डगर थी जो न लड़ता क्या मैं करता।।

दिल किया मेरा कहूँ मैं बात तुमसे जो थी सारी
तुम नहीं जब सुन सके फिर बोल कर के क्या मैं करता।।

चाह थी इतनी मेरी के संग में तेरे चलूँ मैं
साथ मेरा जब न भाया फिर ठहर कर क्या मैं करता।।

जाने था कैसा वहम दिलों में जो घर कर गयी थी
बात जो समझा न पाया खुद समझ कर क्या मैं करता।।

कितनी ही सदियाँ घुल गयीं थी इक घरौंदे के लिये
दोराहे पर जब जिंदगी खुद बसर कैसे मैं करता।।

वो इश्क की जो एक कहानी थी हमारे दरमियाँ
रास जब तुमको न आयी भूलता ना क्या मैं करता।।

वो दीप थे जो भी जलाये हमने तेरे नाम के
आग जब दामन पे पहुँची फूँकता न क्या मैं करता।।

अब कट रही है जिंदगी बिन तेरे कैसे मैं कहता
गीत का ही आसरा था जो न लिखता क्या मैं करता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07जनवरी, 2022

रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

पलक के कोर पर नींद की पाँखुड़ी
द्वार पर स्वप्न ले कर मचलती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

भोर की आस में रात जगती रही
ओस के साथ ही साथ बहती रही
भाव मन में थे कितने उमड़ते रहे
गीत में भावनाओं को कहती रही।।

रात भर चाहतों का समुंदर लिये
बूँद भर प्यास को वो तरसती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

चाहतों का बसा कर हृदय में शहर
पूजती वो रही मौन आठों पहर
वक्त से जाने कैसी अनबन रही
कह सकी ना हृदय में उठी जो लहर।।

भाव मन में दबाये पहर दर पहर
रात भर सिलवटों में सिमटती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

उमर ने पंथ में छाँव कितने बुने
पुष्प देकर सभी स्वयं काँटे चुने
जो हृदय में दबी भावना रह गयी
स्वयं से ही कहे स्वयं से ही सुने।।

जो बची रह गयीं भाव की तितलियाँ
स्वयं के दायरे में सिमटती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जनवरी, 2022

छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।

छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।  

रात की सेज पर गीत की चाँदनी
ओस ओढ़े हुए मुस्कुराने लगी
कुछ कहा मौन ने साज सजने लगे
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।।

सपने पलकों पे आ थिरकने लगे
बिन पिये ही कदम ये बहकने लगे
हाथ आया जब से तेरा हाथ में
रात और दिन मेरे महकने लगे।।

अंक में प्रीत की रीत पलने लगी
रात रानी बनी खिलखिलाने लगी
कुछ कहा मौन ने साज सजने लगे
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।।

शब्द कितने मधुर पंक्ति में लिख गये
भाव कितने मृदुल अंक में छिप गये
झरे पुष्प अधरों से बने गीत वो
बात अपने हृदय की सभी कह गये।।

भाव कितने हृदय में मचलने लगे
कामनायें मधुर गीत गाने लगीं
गीत नूतन अधर पर सँवरने लगे
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।।

प्रेम संकेत पा रश्मियाँ खिल गयीं
साज ऐसे सजे रागिनी सज गयीं
कुछ कहें ना कहें मौन कहने लगे
हम मिले जो यहाँ धड़कनें मिल गयीं।।।

शब्द का साथ पा गीतिका यूँ सजी
धड़कनें भी मधुर गीत गाने लगीं
प्रेम का पंथ ऐसे सुसज्जित हुआ
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जनवरी, 2022


लेखनी जब चले मन बहकने लगे।

लेखनी जब चले मन बहकने लगे।  

शब्द का ज्ञान ले भाव संज्ञान ले
सपनों की वादियों में मुस्कान ले
कुछ रचे शब्द मन में थिरकने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

चाँदनी ने कही जो अधूरी कथा
तारों के मन की वो अधूरी व्यथा
रात भर ओस में तन फिसलने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

अभिव्यक्तियों के भाव मन में लिये
पंक्ति में अक्षरों ने है अंतस छुये
शब्द ऐसे रचे मन समझने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

अश्रु पलकों में आकर रुके रह गये
अधरों ने भाव मन के ऐसे कहे
हर्ष के अश्रु बनकर वो चमकने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

नीर का भाव से मौन संबंध है
पीर का पलकों से ज्यूँ अनुबंध है
पीर के पलों में अश्रु तड़पने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

शब्द ऐसे चुनें गीत ऐसे लिखें
भावों के मर्म को जो बिखेरा करें
रश्मियाँ गीत की यूँ दमकने लगे
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

है यहाँ क्या कहो इक सिफर के सिवा
जिंदगी क्या कहो इक सफर के सिवा
राह में सब चलें सब समझने लगें
लेखनी जब चले मन बहकने लगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जनवरी, 2022



गीत गाती रही है चाँदनी।

गीत गाती रही है चाँदनी।  

अश्रु बूंदों में भिंगो कर तूलिका ने गीत लिखा
रात भर उस गीत को गाती रही है चाँदनी।।

क्यूँ बूँद पलकों से गिरे दोष क्या किसको पता
छोड़ क्यूँ दहलीज आये कौन सी थी वो खता
आये छलके अश्रु कितने गीत बन जज्बात के
पीर था या स्वप्न कोई जो चुभा किसको पता।।

पीर भावों के समझकर तूलिका ने गीत लिखा
रात भर उस गीत को गाती रही है चाँदनी।।

ओस बूंदों से फिसल जब भाव मन के गिर पड़े
शब्द कुछ गूँजे हृदय में मौन पर ना कह सके
थी जगी सिहरन वहाँ पर भाव ने जिसको छुआ
छलछलाये पीर मन के गीत में सब कह पड़े।।

भावों का संस्कार पा तूलिका ने गीत लिखा
रात भर उस गीत को गाती रही है चाँदनी।।

रात भर इक कहानी मन में कहीं पलती रही
गीत लिख कर वेदना के रात भर कहती रही
प्राण के संचार से कुछ शब्द अधरों से झरे
आस के आकाश पर वो गीत बन झरती रही।।

प्राणों का संचार पा तूलिका ने गीत लिखा
रात भर उस गीत को गाती रही है चाँदनी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जनवरी, 2022

भारत- एक परिचय।

भारत- एक परिचय।   

सकल विश्व की पुण्य धरा का
सूक्ष्म, मगर हूँ शब्द प्रखर
हो मौन विश्व चाहे जितना
पर शब्द मिरे हैं सौम्य मुखर
मैं पुष्प सुशोभित मृदुल भाव
मैं अवसादों में मृदुल छाँव
मैं गीत मनोहर मीरा का
चैतन्य प्रभू की मधुर तान
मैं हूँ राधा का प्रेम सहज
अरु हूँ मुरली की मधुर तान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

रग रग कण कण मेरा शंकर
सौम्य, सुलभ मैं हूँ अभ्यंकर
मैं हूँ कान्हा का चक्र सुदर्शन
मैं ही सागर का हूँ मंथन
मैं मर्यादा का पुण्य प्रवाह
ऋषि मुनियों का प्रेम अथाह
ज्ञान ध्यान शोभित हैं भूषण
वेद पुराण ग्रंथ आभूषण
गुरुकुल शिक्षा भाव सुलभ
मैं हूँ गीता का प्रखर ज्ञान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

मैं राणा का अचूक प्रहार
लक्ष्मीबाई की खड्ग धार
अब अरि के मर्दन में क्या दोष
मैं वीर शिवाजी का उद्घोष
मैं मंगल पांडे की हुंकार
अरि के लिये मैं हूँ ललकार
मैं गंगा की पावन धारा
यमुना का मैं निश्छल प्रवाह
सत्य अहिंसा का मैं द्योतक
सत्यम शिवम सुंदर है ज्ञान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

मैंने कब चाहा है जग को
केवल अपने आधीन करूँ
मैंने कब चाहा है जग में
बस निजता खातिर जियूँ मरूं
कोई तो बतलाये कब मैंने 
दुर्बल पर अत्याचार किये
सत्ता की खातिर कब मैंने
अपने जन का संहार किये
कब्जाया न भूभाग कोई
न कभी किया हमने अभिमान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

मैं रामायण की चौपाई
भगवदगीता का गूढ़ ज्ञान
मैं गुरु द्वारे का आदि ग्रंथ
अरु गौतम का मैं प्रथम ज्ञान
राम कृष्ण की सकल भावना
सत्य सनातन यही कामना
हर्षित मन सब हर्षित तन सब
सतयुग की फिर करूँ स्थापना
नेक बनें सब एक बनें सब
वसुधैव कुटुंबकम का ज्ञान
क्या परिचय बतलाऊँ अपना
इस दिव्य धरा का सूक्ष्म प्राण।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2022

भटक न जाना कहीं बिखर कर।

भटक न जाना कहीं बिखर कर।  

भीड़ बड़ी हैं इन राहों पर
सबके अपने अपने मेले
अगणित आशायें हैं पथ में
अगणित इच्छाओँ के रेले
दूर बड़ी मंजिल है माना
चलना हमको सँभल सँभल कर
पग पग अवसादों के मेले
भटक न जाना कहीं बिखर कर।।

मोड़ मोड़ पर कितनी आँखें
रह रह तुझको घूर रही हैं
तेरे पथ के अँधियारों से
अनजानी अरु दूर रही हैं
उनसे आगे जाना है तो
इच्छाओं को आज प्रबल कर
पग पग अवसादों के मेले
भटक न जाना कहीं बिखर कर।।

धारा के विपरीत चले जब
तूफानों से फिर क्या डरना
बीच राह में भँवर मिलेंगे
तुझको सबसे पार उतरना
मन में रख तू एक किनारा
होड़ मची है लहर लहर पर
पग पग अवसादों के मेले
भटक न जाना कहीं बिखर कर।।

सबका अपना अपना जीवन
इच्छाओं से सब जीते हैं
कोई पल पल रोता रहता
कोई हँस कर दुःख पीते हैं
घने कुहासे लाख भले हो 
सूरज नहीं छुपा अंबर पर
पग पग अवसादों के मेले
भटक न जाना कहीं बिखर कर।।

जब तेरा उद्देश्य अडिग हो
अरु हो तेरा विश्वास अटल 
अवसाद भरे ताने कितने 
क्या तुझे करेंगे कहीं विकल
दृढ़ता को हथियार बना कर
विजय पताका लगा शिखर पर
अवसादों से दूर निकल कर
चलो मुक्त हो आज शिखर पर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2022

तूफां में भी कश्ती सँभल जायेगी यहाँ।

तूफां में भी कश्ती सँभल जायेगी यहाँ।  

ये जिंदगी की राहें बदल जायेगी यहाँ
नदियों के भी प्रवाह बदल जायेंगी यहाँ
अब क्या करोगे सोच के कि किसको क्या मिला 
चले जो साथ मंजिलें मिल जायेंगी यहाँ।।

कैसे कहूँ के याद अब आती नहीं मुझे
कैसे कहूँ के राहें बुलाती नहीं मुझे
कैसी है मजबूरी क्या बताऊँ मैं यहाँ
तू भी तो बात अपनी बताती नहीं मुझे।।

थी कोई खता यहाँ जो मौसम बदल गया
न जाने क्या हुआ था जो मन ये मचल गया
तुमसे खता हुई या कि मुझसे हुई यहाँ
जाने हुई क्या बात जो रिश्ता बदल गया।।

वो रात की जो बात गुजर जायेगी यहाँ
सुधरी हुई थी और सुधर जायेगी यहाँ
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लें सभी
तूफां में भी कश्ती सँभल जायेगी यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2022


प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...