चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।
सिलवटें थीं कुछ हमारे बीच में उस रोज कैसी
चाह कर जिसको नहीं हम दूर कर पाए अभी तक
तारिकाओं ने गगन में उस रोज लिखा गीत एक
चाह कर उस गीत को अधरों पर न ला पाये अभी तक।।
पास रह कर दूरियों के कैसे थे बादल घनेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।
अधजगी सी रात अपनी लिख रही थी इक कहानी
नींद पलकों पर रुकी थी ढूँढती अपनी निशानी
थी कही वो रात जग कर शब्द अंतस को छुये जो
टूटते तारों ने लिखी थी अनकही इक कहानी।।
जग रहे थे स्वप्न सारे पलकों पे कैसे अँधेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।
और तुमको क्या लिखूँ मैं वेदना अपने हृदय की
न लिख सकूँगा पंक्तियों में दर्द के वो भाव सारे
रात भी अब सो चली है चाँदनी मद्धम हुई अब
चुभ रही हैं रश्मियाँ भी मौन है सारे सितारे।।
चाह कर भी लिख न पायीं पंक्तियाँ भी घाव मेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07मार्च, 2022
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