रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

पलक के कोर पर नींद की पाँखुड़ी
द्वार पर स्वप्न ले कर मचलती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

भोर की आस में रात जगती रही
ओस के साथ ही साथ बहती रही
भाव मन में थे कितने उमड़ते रहे
गीत में भावनाओं को कहती रही।।

रात भर चाहतों का समुंदर लिये
बूँद भर प्यास को वो तरसती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

चाहतों का बसा कर हृदय में शहर
पूजती वो रही मौन आठों पहर
वक्त से जाने कैसी अनबन रही
कह सकी ना हृदय में उठी जो लहर।।

भाव मन में दबाये पहर दर पहर
रात भर सिलवटों में सिमटती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

उमर ने पंथ में छाँव कितने बुने
पुष्प देकर सभी स्वयं काँटे चुने
जो हृदय में दबी भावना रह गयी
स्वयं से ही कहे स्वयं से ही सुने।।

जो बची रह गयीं भाव की तितलियाँ
स्वयं के दायरे में सिमटती रही
मन तरसता रहा रोशनी के लिये
रात बन मोम पल पल पिघलती रही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जनवरी, 2022

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