अंतस की आशायें।
स्मृतियों के द्वार खड़ी थीं कुछ उम्मीदें पहचानी सी
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं ।।
कितने भाव मचल बैठे इक पत्र तुम्हारा जब आया
कितने स्वप्न सजे पलकों पर कितने भाव सजा लाया
चारों तरफ छँटी उदासी छंद मचल कर नाच उठे
तेरे अधरों पर मैंने जब अपने गीतों को पाया।।
चारों तरफ रागिनी गूँजी भोर सुहानी मधुर हुई
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।
इक तेरे संबोधन से नहीं अपरिचित रहा स्वयं से
उलझे थे अब लगे सुलझने प्रश्न सभी इस जीवन के
समृतियों ने राह सजाई पुष्प खिलाये मरुथल में
लगा महकने जीवन सारा अहसासों में मधुवन के।।
मधुमासों के आभासों से सब आशायें निखर गयीं
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।
मन ने जब लिखना चाहा केवल नाम तुम्हारा लिखा
दर्पण में जब भी देखा मुझको रूप तुम्हारा दिखा
हर शब्दों में छवि तुम्हारी गीतों में तेरी बातें
अंतस के श्वेत पट्ट पर मुझको रंग तुम्हारा दिखा।।
मन के वातायन से यादें अरमानों में निखर गयीं
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20 मार्च, 2022
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