बुने जाल में अंतर्मन।

बुने जाल में अंतर्मन।   

मन की आशायें पग पग पर कितने रूप सजाती हैं
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

भावों के आँगन में मन ने
सपनों के कुछ पुष्प खिलाये
आशाओं की कलियाँ चुनकर
पग पग मन ने पंथ सजाये।।

भावों की फुलवारी पग पग काँटों पर बिछ जाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

आवाजों के मेले बोलो 
अब कैसे कहूँ अकेला हूँ
झाँझ मँजीरे नाद कहीं पर
अरु कहीं मौन से खेला हूँ।।

आवाजों के मेलों में ये मौन मचल रह जाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

जग से जो कुछ पाया हमने
कब उससे ज्यादा दिया यहाँ
इच्छायें जब भारी मन पर
पग पग पर केवल जाल बुना।।

बुने जाल में अंतर्मन ये कहो निकल कब पाती है
कभी खिला है मन का उपवन कभी पीर दे जाती हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09फरवरी, 2022






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