गीत कैसे मान लूँ।

गीत कैसे मान लूँ।   

कुछ शब्द भरकर गीत में इतरा न मन तू इस तरह
होंठ पर जब तक सजे ना गीत कैसे मान लूँ।।

मन एक प्यासा समंदर राह नदिया की तके है
दूर उद्गम हो भले पर राह बोलो कब थके है
जब चल दिये आवेग में ये रास्ते खुल जायेंगे
और जो मन में उठे वो प्रश्न सभी मिट जायेंगे
प्रश्न के उत्तर सभी क्या स्वीकार होंगे इस तरह
जो बात मन की ना कहे तो गीत कैसे मान लूँ।।

दर्द का ना बोध हो ऐसा कोई प्राणी नहीं है
सुख ही सुख का ढेर हो ऐसी अमरवाणी नहीं है
न हो सजग इस पंथ में तो पाँव ये छिल जायेंगे
हौसलों पर यदि हो पकड़ तो रास्ते मिल जायेंगे
चोट खाकर टूट जायें इस राह में जो इस तरह
उसके क्रंदन को कहो यहाँ गीत कैसे मान लूँ।।

व्यर्थ होंगे शब्द सारे गीतों का न बोल होगा
अधरों पर जो न सजे तो गीत का क्या मोल होगा
जग को जो कुछ दे सके ना व्यर्थ जीवन जायेंगे
ये शब्द कोरे ही रहेंगे गीत न बन पायेंगे
जब तक सजे ना होंठ पर तो प्रीत कैसे मान लूँ
और मन को जो छुये न उसे गीत कैसे मान लूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जनवरी, 2022

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