पृष्ठों की धरा।
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।
इस हृदय की भावनाओं ने था रचा नवगीत इक
और उम्र ने भी आगोश में भर कर रचा था गीत इक
उम्र ने लिखे जो गीत सारे मौसमों में ढल गये
रोकता फिर कैसे बोलो जब दूर सब निकल गये।।
भाव जिनको प्रीत बनकर गूँजना था इस जहाँ में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।
द्वार तक आयीं निरंतर रश्मियाँ जाने कहाँ हैं
स्वप्न सजने थे पलक पर छूट कर जाने कहाँ हैं
अक्षरों के खेल से यहाँ जो दृश्य मुखरित थे कभी
जाने किस आकाश में वो गुम हुए जाकर सभी।।
वो स्वप्न जिनको था निखरना इस खुले आकाश में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।
जिसने सदियों को समेटा लम्हों में संचित किया
जिसने पथ के कंटकों को पुष्पों से सिंचित किया
जिसने अँधियारे में बिखेरी आस की उजली किरण
जिसने खुद काँटे चुने अरु बाँटे जग को बस सुमन।।
जिनको बनकर सूर्य चमकना था खुले आकाश में
वो मात्र बन कर शब्द पृष्ठों के धरा पर रह गये।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07फरवरी, 2022
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