सांध्य के घाव गहरे।
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।
दूर जा कर छुप गयी वो रोशनी जो थी सजीली
आ रही थी रुक गयी अब रागिनी जो थी सुरीली
छा गयी देखो गगन में फिर धुंध की कुछ बदलियाँ
थम गयी सहसा गगन में रात बन कर के हठीली।।
यूँ रुक गयी सागर लहर ज्यूँ तटों के पंथ भूले
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।।
नैनों के कोरों पे सहसा मौन सी हलचल हुई
अश्रु पलकों पे यूँ ठहरे ज्यूँ भाव की दस्तक हुई
भावनाओं ने पलों में कह अधर के पाटलों से
गिर पड़े सब अश्रु नयन से यूँ चोट कुछ पल-पल हुई।।
छिप गयी संध्या क्षितिज में रात के ओढ़े बिछौने
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
13मार्च, 2022
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