धरती की पीड़ा।

धरती की पीड़ा।   

देख पीड़ा इस सदी की
संपूर्ण धरती रो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

जो धरा का रूप दिखता
क्या है यही अनुरूप इसका
आज निखरा है यहाँ जो
कुछ तो कहो है धूप किसका।।

रोशनी भी ताप से अब
ज्यूँ पाप अपने धो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

संकटों में है घिरा क्यूँ
अवनी और अंबर यहाँ पर
स्वार्थ का सागर उमड़ता 
है दिख रहा पग-पग यहाँ पर।।

स्वार्थ लोलुप श्राप से अब
क्या दीप्ति अपनी खो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

युद्ध का संकट कहीं पर
अरु कहीं पे हाहाकार है
स्वार्थ को आश्रय मिला है
कहो कैसा ये व्यवहार है।।

लग रहा जैसे धरा ये
बस जिन्दगी को ढो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

सोचता हूँ अब यहाँ पर
ये धरणी अब तक न गली क्यूँ
जिस व्यथा में जल रही है
ये धरणी अब तक न जली क्यूँ।।

अपराध क्या उसका यहाँ
जब मनुजता ही सो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

इस व्यथा से हो न विचलित
है तब यही परिणाम निश्चित
स्वार्थ में जड़ बन चुके जब
फिर कब रहा जीवन सुनिश्चित।।

आज सिक्कों की खनक में
सब भावनायें खो रही हैं
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2022


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