लोकतंत्र फिर खिल खिल जाये।
बाट जोहती संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।
मंचों से कितनी ही बातें
उम्मीदों के दीप जलाती
मन के संकेतों को पढ़ती
संकोचों में पर खो जाती
मिलने को तो मिल जाती पर
बाट जोहती संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।
निकला आज मचल कर सूरज
अँधियारे को दूर भगाने
लिखने को इक नया सवेरा
उम्मीदों के गीत सुनाने
गीत मधुर अधरों पर ठहरे
बाट जोहते संकेतों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।
बीच सदन में खड़ी द्रौपदी
याचक बनकर किसे बुलाये
किसे अंतर्मन की पीर कहे
किसको अपना घाव दिखाये
मन में कितना घाव लिये वो
करे प्रतीक्षा आदेशों की
लेकिन बारी जब आयी तो
कोलाहल में दबी रह गयी।।
सत्ता के गलियारों में ना
लोकतंत्र दब कर रह जाये
खुलकर मन की बात कहो अब
लोकतंत्र फिर से खिल जाये
मिट जाये अँधियारे सारे
खिले रश्मियाँ अनुदेशों की
मिल जाये सम्मान सभी को
लोकतंत्र फिर खिल खिल जाये।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20जनवरी, 2022
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