मन की सारी आशायें अब
रह-रह कर के विकल हो रहीं
उमड़-घुमड़ कर भाव सभी अब
पलकों में आ विकल हो रहीं
सूने मन का बोझ हृदय ये
कहो कहाँ तक ये अब ढोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।
समझ नहीं पाया जीवन को
क्यूँ जीवन ने किया किनारा
जिससे भाव समझना था सब
नहीं रहा जब वही सहारा
समझाते मन को कैसे फिर
दुविधाओं में खोये-खोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।
दुर्बलता का भाव लिये फिर
कहो कहाँ तक मन ये चलता
अवसादों की बंद गली में
कहो कहाँ तक मन ये पलता
अवसादों को लिये हृदय में
आस भला ये कब तक रोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।
जो पग चलता नहीं वहाँ से
था मुश्किल जीवन खिल पाना
आभासी इस दुनिया में फिर
था मुश्किल खुद से मिल पाना
आभासी जीवन का बोझा
कहो कहाँ तक मन अब ढोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
22मार्च, 2022
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