चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।
जो था निश्चय यहाँ सब अधूरा रहा
आस का हर सफर भी न पूरा हुआ
धूप की अलगनी पर टँगे रह गये
दिन ने चाहा मगर कब पूरा हुआ।।
धूप सिमटी यहाँ बादलों में कहीं
कि चाह कर धुँधलका वो हटा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।
नैन में स्वप्न आये मगर रुक गये
दो कदम चल न पाये मगर थक गये
जोहते ही रहे साँझ तक द्वार पर
रात की ओढ़नी ओढ़ कब खो गये।।
नैन पे स्वप्न आकर गिरे इस तरह
चाहा पर, नींद उसको बचा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।
राह भर रोशनी खोजते ही रहे
जब मिली रोशनी राह ही थक गये
राह में फासलों से बिखर सी गयी
क्यूँ थकी राह, हम सोचते ही रहे।।
राह की करवटों में घिरे इस तरह
माथे की सिलवटों को हटा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
22फरवरी, 2022
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