ऐसा कोई मिला नहीं।
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।
अंतस में वो गीत अभी तक ठहरे हैं कुछ यादें बनकर
जिनको तुमने कभी लिखा था शब्दों की कलियाँ चुन चुन कर
रच डाले थे गीत कई मृदु मौसम के परिधानों के
गीत मगर सब दबे रह गये ऋतुओं के व्यवधानों में
अधरों तक आकर सब ठहरे गाते भी तो कैसे गाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।
साँझ ढले मन सिंधु तीर पर छिपता सूरज देख रहा
भूली बिसरी यादों में मन लुका छिपी है खेल रहा
नभ के गलियारे में अब तक ठहरे वो चंदा तारे
सपनों को आलिंगन भर चले कभी जो साथ हमारे
छूटा नभ का साथ कभी तो टूटे तारे गिर जाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।
यादों के मानसरोवर में गीत अभी तक गूंज रहे
तेरे अधरों ने मुस्काकर कानों में जो कभी कहे
उन गीतों की सरगम से ही जीवन क्या हमने जाना
प्राण बाँसुरी की सरगम है अधरों तक जाकर जाना
लेकिन स्वर जब मिला नहीं हम गाते भी तो कैसे गाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।।
जीवन के इस महासिन्धु में कितने गीत सजाए थे
रुँधे भले थे कंठ मगर संग संग मिल कर गाये थे
जर्जर धूल धूसरित छवि देवालय में कहीं दबी है
माना जग से दूर हुए लेकिन मुझमें यहीं कहीं है
मन के सूने देवालय में तुम बिन क्या दीप जलाते
ऐसा कोई मिला नहीं हम जिसको अपना कह पाते।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
22जनवरी, 2022
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