जीवन के संधि-पत्र पर।

जीवन के संधि-पत्र पर। 

जीवन के उस संधिपत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

कुछ पन्नों में नत्थी कर ली
सबने जीवन की गाथा
बिखरे-बिखरे कुछ पन्ने थे
बाँध नहीं पाया धागा
इक-इक पन्ने चुनने खातिर
रात-दिवस जीवन जागा
फिर भी जाने कितने पन्ने
जीवन पथ के छूट गये
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

कितनी सुधियों की खुशबू से
महक रहा जीवन अपना
कितने वादों की नरमी से
कितना कुछ हमको लिखना
पर इक आँधी के झोंके से
बिखरा पलकों का सपना
सपनों का कुछ दोष नहीं था
पलकों से क्यूँ टूट गये
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना क्या भूल गये।।

इक पन्ने पर धुँधले चेहरे
पास कहीं परछाईं हैं
यादों के दीपक से मिलकर
अंतस में घिर आयीं हैं
यादें पलकों की बूँदों से
लगती कुछ घबराईं हैं
अधरों के वो गीत सभी अब
चुभते से क्यूँ शूल हुए
जीवन के उस संधि-पत्र पर सच लिखना जब भूल गये।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27जून, 2022


अब भी चुभ रहा बन शूल।

कुछ कहीं ऐसा है अब भी
चुभ रहा बन शूल।

अंक में मेरे सिमटकर
पाश में मेरे लिपटकर
कंठ में थे गीत के स्वर
कुछ कहा उस रोज तुमने
याद है वो आज साथी या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

मौन पल में कुछ कहा था
दर्द कितना ही सहा था
शब्द अधरों से झरे कुछ
अश्रु पलकों से गिरे कुछ
याद है वो अश्रुकण या फिर गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

अब कहाँ मैं तुम कहाँ पर
दूर हैं हम, मौन हैं स्वर
लिख रहा पर गीत तेरे
भाव मन के, प्रीत तेरे
याद है क्या गुनगुनाना या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

दूर हूँ सब बंधनों से
स्नेह के अनुरंजनों से
है नहीं अफसोस कोई
रात पलकें पर न सोईं
याद अब भी जागना है या गये हो भूल
कुछ कहीं ऐसा है अब भी चुभ रहा बन शूल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जून, 2022


पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

पीड़ा ने मुझको अपनाया।।
          
               1⃣

पग-पग चलता रहा निरंतर
पलकों में भर प्रेम समंदर
आती जाती साँसें पल-पल
भावों में कब करती अंतर
नयनों ने सब भाव सँभाले
आस-निराश के ओढ़ दुशाले
अधरों पर नवगीत सजाये
आहों में भी गीत सुनाये
मेरा गीत जगत को भाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

              2⃣

मैंने सुख में भाव सँभाले
दुख में सुख की राह निकाले
मीलों चलता रहा क्षितिज तक
कदमों से जीवन लिख डाले
कुछ भूलों ने ऐसा घेरा
सुख में दुख ने डाला डेरा
बदनामी की आँच लगी यूँ
बदल न पाया मन का फेरा
मन के भावों को समझाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

                3⃣

यादों का जब लिया सहारा
उस पर अपना सबकुछ वारा
जगती से क्या करूँ शिकायत
सब से जीता खुद से हारा
हार-जीत के चक्र में फँसकर
भूल गया जब जीना खुलकर
फिर क्या देता दोष किसी को
समझ नहीं पाया जब मिलकर
विधना ने सब खेल रचाया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

               4⃣

उत्तर इतना सहज रहा कब 
के जब चाहो तब मिल जाये
भावुकता के क्षण में हमने
संदेशे पल-पल भिजवाये
जिस पल तुमसे राह मिली थी
जीवन क्या तब हमने जाना
अंजुलि से जब समय गिरा तब
खोना क्या तब हमने जाना
खो कर भी पल-पल मुस्काया
पर जाने क्या भूल हुई जो
पीड़ा ने मुझको अपनाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जून, 2022


है कुपथ क्या औ सुपथ क्या अब कौन बोलेगा भला।।

है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

            1⃣
रात के उस पार देखो
भोर की उजली किरण है
बादलों के पार देखो
अवनि अंबर का मिलन है
हूँ जा रहा इस पंथ पर 
मैं अकेला गीत गाता
फिर कहो कोई यहां क्यूँ
आसमां सर पर उठाता
है सुगम या राह दुर्गम
अब कौन रोकेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

            2⃣

राह कितनी मैं चला हूँ
और कितनी दूर जाना
मुश्किलें चाहे सफर में
सीखा केवल मुस्कुराना
शब्द लहरों से लिया हूँ
साहिलों से गीत गाना
आँधियाँ चाहे डगर में
दीप बनकर टिमटिमाना
दीप का व्यवहार बोलो
अब कौन समझेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

               3⃣

क्या कठिन जीवन यहाँ पर
औ क्या है ये मृत्यु सरल
लगता जिंदगी के वास्ते 
सब पी रहे पल-पल गरल
हर किसी के अंक में है
उसका अपना आसमान
फिर नहीं पर्याप्त है क्यूँ
जो कुछ मिला सबको यहाँ
अब ये कसक दिन रात की 
क्या वक्त समझेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

             4⃣
मौन रहकर इस सफर में
देखो चले कितने मगर
पार कितने पा सके हैं
हो ये डगर या वो डगर
ये नाव ही है जानती
वेग कितनी है लहर में
वो किनारे क्या करेंगे
दूर जो ठहरे सफर में
पतवार इन किश्तियों की
अब कौन पकड़ेगा भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
अब कौन बोलेगा भला।।

             5⃣

जब लिए संतोष मन में
चल पड़े मन के नगर में
क्यूँ यहाँ अफसोस करना
राह कैसी है नजर में
शब्द से उपचार कर के
दर्द को अपना बना लो
गीत में श्रृंगार भर के
स्वयं में ही गुनगुना लो
जब नहीं हो साथ कोई
बोलो शपथ क्यूँ ले भला
है कुपथ क्या औ सुपथ क्या
फिर कौन बोलेगा भला।।

©✍️ अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        11जून, 2022

आज अभिलाषा जगी है।।

आज अभिलाषा जगी है।।

          1

चाँदनी का रथ सजा है
और तारे भी सफर में
भाव की आलोड़नाएँ
गुदगुदाती हैं डगर में
अंक में आकर मिली है
आस जो थी मनचली
देख इसको फिर खिली है
कामनाओं की कली
मौन इस व्यवहार में
आस के संसार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।
        
            2

नेत्र मन के आज मेरे
खुल रहे हैं पास आकर
साँस में सरगम सजी है
देख तुझको पास पाकर
रत्न आभूषण सभी अब
मोहते मन को निरन्तर
ये शिशिर ऋतु भी मुझे अब
लग रही पिय आज सुंदर
रूप के आकार में
इस मधुर संसार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

             3

आज मन के स्वप्न सारे
फिर पलक पे आ सजे हैं
भावनाओं के दुआरे
प्रेम के तोरण सजे हैं
चाह जो थी दूर कल तक
पास लाना चाहता हूँ
कल्पनाओं के सफर में
दूर जाना चाहता हूँ
मृदु हृदय उद्गार में
मोह के आकार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

             4

आज मन के निज नगर में
सज रहे हैं गीत के स्वर
प्रीत के पावस पवन में
गूँजते मधुमास के त्वर
है सजी ऋतु ये रसीली
हैं प्रहर सब आज पावन
गेह में पल-पल छुपा है
स्नेह का संपूर्ण गायन
देह के आधार में
कामना उपहार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

              5

चल निकल कर मौन पल से
आज मन की कह लें सारे
अंक में जो कुछ हमारे
प्रीत पर हम क्यूँ न वारें
हाँ चलो पहचान लें अब
क्यूँ रहे मन में निराशा
दिख रही है आज हमको
प्रेम की कोमल सुभाषा
पंथ में अभिसार के
मौन के उद्गार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

            6

लौट जाऊँ मैं यहाँ से
तो कहो कैसा लगेगा
साथ में जब हम न होंगे
भाग्य फिर कैसे जगेगा
इस निशा के निज पलों को
कौन देगा मान्यता
शुष्क भावों से कहो फिर
क्या जगेगी  संज्ञान्यता
चेतना के सार में
स्वप्न के विस्तार में
प्रीत की आशा जगी है
आज अभिलाषा जगी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10जून, 2022





जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

मैंने जग के सूनेपन में उल्लासों के गीत रचाये
कुछ में भाव लिखे हैं अपने कुछ में दूजे भाव सजाये
फिर भी सोचा इस रंगमंच पे आऊँ मैं क्या-क्या बनकर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ  इसको जी भरकर।।

लेकिन जगती रंगमंच पर कैसा अभिनय करवाती है
भरती है उल्लास कभी औ कभी निराशा दे जाती है
कभी नटी सा जीवन लगता और कभी लगती मनमानी
फिर भी जाने क्यूँ लगती है ये दुनिया जानी पहचानी।।

अपने मन के भावों को कह लेता हूँ यूँ ही लिखकर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ  इसको जी भरकर।।

तुमसे ये जो मेल हुआ है यही भाव है यही प्रणय है
जगती के इस आडंबर में सत को समझे वही हृदय है
एक सत्य है एक प्राण है बहती जिसमें जीवन धारा
करता रहता जिसमें जीवन हर हिस्से का अभिनय सारा।।

भले दृष्टि में अभिनय है ये जीता हूँ मैं इसको मनभर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

हैं हम सब किरदार जगत के मन ही अपना रंगमहल है
जिस पर सारा मंच सजा है ये जगती वो क्रीड़ाथल है
अपना अंश निभा लें जिसपल उन्हीं पलों में जीवन मूल
वरना जाने कौन यहाँ पर कब क्या हो जाये अगले पल।।

बीते पल की घोर निशा में फिर क्यूँ भटके मन घुट-घुट कर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जून, 2022


जोड़ मन के तार सारे।।

जोड़ मन के तार सारे।।

एक जैसी कामनायें
कह रही सुन भावनाएँ
गीत मन के गुनगुनाती
चाहती औ मुस्कुराती
मौन मन बस ये पुकारे
जोड़ मन के तार सारे।।

बादलों से नीर बरसा
फिर कहो क्यूँ गीत तरसा
भारी मन, क्यूँ दर्द गहरा
कैसा है अब दर्द ठहरा
तोड़ कुंठित बांध सारे
जोड़ मन के तारे सारे।।

एक तरह जब है जीवन
फिर कहो है मौन क्यूँ मन
क्यूँ नहीं यादें उभरतीं
क्यूँ नहीं ख़ुशियाँ ठहरती
आ चलें पनघट किनारे
जोड़ मन के तार सारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

जोड़ मन के तार सारे।।

जोड़ मन के तार सारे।।

एक जैसी कामनायें
कह रही सुन भावनाएँ
गीत मन के गुनगुनाती
चाहती औ मुस्कुराती
मौन मन बस ये पुकारे
जोड़ मन के तार सारे।।

बादलों से नीर बरसा
फिर कहो क्यूँ गीत तरसा
भारी मन, क्यूँ दर्द गहरा
कैसा है अब दर्द ठहरा
तोड़ कुंठित बांध सारे
जोड़ मन के तारे सारे।।

एक तरह जब है जीवन
फिर कहो है मौन क्यूँ मन
क्यूँ नहीं यादें उभरतीं
क्यूँ नहीं ख़ुशियाँ ठहरती
आ चलें पनघट किनारे
जोड़ मन के तार सारे।।

कब तक भटकेगा यूँ ही
दर्द ले तरसेगा यूँ ही
आह मन की कब सुनेगा
कह यकीं कैसे करेगा
चल चलें मन के सहारे
जोड़ मन के तार सारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

कवि होना आसान कहाँ।

कवि होना आसान कहाँ।।

घाव की कुछ पंक्तियाँ ले
भाव में कुछ बदलियाँ ले
भर नीर का सागर नयन 
औ वेदना आयी शरण 
तब लिखे कुछ गीत मन ने
भरे दर्द का सारा जहाँ
कवि होना आसान कहाँ।।

निज पृष्ठ पर परिणाम देकर
निज आस को विश्राम देकर
भर शब्द के पग-पग सुमन
कर मौन मन के मृदु नयन
जब सजे श्रृंगार मन के
तब लिखे जो मन ने कहा
कवि होना आसान कहाँ।।

सब मोह माया छोड़ कर
निज बंधनों को तोड़ कर
कर के कंटकों का चयन
कर दूर जगती के तपन
प्रिय शब्दों से सिंचित बदन
तब भाव मन का है कहा
कवि होना आसान कहाँ।।

सींच अश्रुओं से क्यारियाँ
कर दूर सब दुश्वारियाँ
सोये जगत में जाग कर
निज मोह सारे त्याग कर
सत्य पथ पर रखते कदम
सींचा लेखनी से जहाँ
कवि होना आसान कहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून, 2022

निज अलकों के बंधन खोलो।।

निज अलकों के बंधन खोलो।।

माथे पर भावों का चंदन
उर में भरकर मृदु स्पंदन
कुछ कहता सुन धीरे से मन
अपने आलिंगन में भर लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

सूरज का पथ मद्धम-मद्धम
साँझ निखरती पल-पल थम-थम
निज अंतस में भर भाव प्रथम
कुछ कह दो कुछ मन की सुन लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

प्राची से किरणों की माला
बारह घोड़ों के रथवाला
मुख पर भरकर भाव सुनहरे
जाते-जाते बोले सुन लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।


तुम में मैं हूँ मुझमें तुम हो
आस-निरास पल में तुम हो
तुम ही जीवन की अभिलाषा
मृदु पल को पलकों में भर लो
निज अलकों के बंधन खोलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून, 2022

थोड़ा अहसास करा दो।

थोड़ा अहसास करा दो। 

मेरे मन के अरमानों को
बस तुम इतना आस धरा दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

ये भौतिक उपहार सभी हैं
जैसे बरखा रुत का पानी
जड़ जग के व्यवहार सभी हैं
बिन भावों के जैसी वाणी।।

मेरे भावों में बस जाओ
मन का मेरे मान बढ़ा दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

करी परिक्रमा डगमग पग से
इसमें मेरा दोष नहीं है
मेरे अंतस को झकझोरा
क्या तुमको अफसोस नहीं है।।

अनुभवहीन नहीं मैं इतना
इतना बस विश्वास दिला दो
अपने होने का तुम मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

अपना कोई गीत सुना दो
जीवन भर जिसको मैं गाऊँ
बस इतना उपकार करो तुम
इस जग से परिचित हो जाऊँ।।

हुआ योग्य जब यहाँ जगत में
बस इतना आभास करा दो
अपने होने का अब मुझको
बस थोड़ा अहसास करा दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मई, 2022

जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।


यादों के मानसरोवर से कुछ मुक्तक गिर कर बिखर गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

लय का जब कुछ भान नहीं था 
गीतों में कैसे कह पाता
सरगम से जब रहा अपरिचित
गीत कहीं मैं कैसे गाता
जब भाव सजे ही नहीं पटल पर कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

जब अपना अध्याय नहीं था 
लिखता कैसे कहो कहानी
कैसे लिखता सारी बातें
जिनसे सुधियाँ थीं अनजानी
जब रहा कथानक का अभाव फिर कैसे कह दूँ बिसर गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

कितना चाहा के कह डालूँ
बातें मन के मौन सफर की
कितना चाहा आज जता दूँ
प्यास मैं अधरों को अधर की
पर मधु से संपर्क नही जब कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

यहाँ वहाँ से शब्द उठा कर
कैसे लिखता मन की बातें
कैसे लिखता भाव सभी वो
कैसे लिखता बीती रातें
जब रातों का इतिहास अधूरा कैसे कह दूँ बिछड़ गये
जो स्वप्न सजे ही नहीं पलक पर कैसे कह दूँ बिखर गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       28मई, 2022

वीथियों में उलझा मन।

वीथियों में उलझा मन।  

प्रिय सुधियों के कितने बादल आये आकर चले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

नहीं कामना देखूँ तुझमें मैं नित नूतन रस धारा
मेरे नयनों को भाया प्रतिपल अल्हड़ रूप तुम्हारा
आस लगाये नैना प्रतिपल हर आती राह निहारें
उम्मीदें भी रहीं ढाँकती पल-पल ये जीवन सारा।।

उम्मीदों के साये में मन मचल-मचल कर छले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

रखी सजा कर छवि तुम्हारी मन में बरबस झूम लिया
हर आहट को मैंने प्रतिपल पलकों से है चूम लिया
जितने गीत लिखे यादों के मैंने इस तन्हाई में
उन गीतों को अंग लगाकर सब अक्षर-अक्षर चूम लिया।।

मन के मौन समंदर में वो हलचल दे कर चले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।

मन में कितने झंझाओं ने पग-पग पर डेरा डाले
वीथियों पर व्योम की प्रतिपल थे कितने उल्का पाले
जितने प्रश्न उमड़ते मन में वो सारे रहे निरुत्तर
मन वीथी में अब तक उलझा है ढोये भाव निरन्तर।।

हाथ आहुती लेकर बैठे समिधाएँ पर सिमट गये
कुछ बरसाए नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गए।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       24मई, 2022

हृदय का अनलिखा भाव।

हृदय का अनलिखा भाव।।

उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
मैं हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

थरथराती रहीं उँगलियाँ रात भर
नयन के नीर ठहरे अधर चूम कर
मेज पर पृष्ठ बिखरे इधर औ उधर
मैं उसी मेज का अनदिखा भाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

यादों के झील में है कैसी लहर
छटपटाती रही तितलियाँ रात भर
रोक पाया नहीं मैं जिसे चाह कर
बिछड़े उस चाह का मौन प्रभाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

मौज से जो किनारे गए हैं बिछड़
स्वप्न पलकों से जो गये हैं बिखर
कहे अनकहे गीत रुके अधरों पर
अनकहे गीत का मैं तो स्वभाव हूँ
उँगलियाँ पृष्ठ पर लिख न पायीं जिसे
इस हृदय का वही अनलिखा भाव हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मई, 2022

क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

तन्हाई लिख रही गीत थी
पग-पग मेरे जीवन में
कैसा तुमने गीत सुनाया
भाव जगे इस तन मन में।।

क्यूँ मेरे भावों को तड़पाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

मेरे साँसों की धड़कन में
अनजाने कुछ गीत सजे थे
मेरी आहों की तड़पन में
सूने मन के गीत सजे थे।।

सूने मन का भाव जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

अर्द्धरात्रि में चंदा तारे
मधुर मिलन का गीत सुनाते
काश मिलन की इस बेला में
बस कुछ देर ठहर तुम जाते।।

क्षण भर क्यूँकर प्रीत जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

मेरे अधरों पर अधरों का
तेरे चुंबन अब तक अंकित
मेरे मन के मंदिर में भी
भाव तुम्हारे हैं प्रतिबिंबित।।

क्षण भर क्यूँ कर नेह जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

निज यादों की पर्णकुटी में 
उन्हें सँजो कर अब भी रखा
मैंने अपनी साँसों में वो
महक तुम्हारी अब तक रखा।।

फिर से क्यूँ भावों को जगाया
क्यूँ कर मुझसे प्यार जताया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मई, 2022



सपनों का क्या दोष।

सपनों का क्या दोष।  

पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

क्या अपराध कहूँ मैं अपना
पलकें निस दिन रहीं खोजती
दोषी है क्यूँ मन ये अपना
प्रतिपल बस ये रहीं सोचती।।

भ्रम में बिखरे भाव सभी थे
चाहा बहुत पर चुन न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

सपनों को अभियुक्त बना कर
पलकों को कटघरा बना दूँ
इतना दोष नहीं है इनका
जिसकी खातिर इसे सजा दूँ।।

आकांक्षाओं का भार बहुत
चाहा बहुत पर सह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

रहा व्याकरण से अनजाना
प्रतिपल मन संघर्ष किया है
नैनों के कोरों की बूँदें
प्रतिपल बस संघर्ष जिया है।।

चाहा कितना बूँद रोक लें
पलकें बहुत पर रह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

क्या परिणति है उन सपनों की
नयनों में जो कभी सजे थे
इक मूरत जो बनी हृदय में
पलकों ने जो कभी गढ़े थे।।

सपनों का फिर दोष नहीं है
चाह के परिचय कह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मई, 2022

प्रतीक्षा।

प्रतीक्षा।  

निस चौखट की प्रहरी पलकें ये हिय उन पर आभारी
सत्य सनातन निष्ठा पर तेरे हम तो हैं बलिहारी
सदियों से कर रही प्रतीक्षा पलकें जिस के दरसन की
है समीप वो पल अपने होगी पूर्ण प्रतीज्ञा सारी।।

पलकों पर कितने ही सावन आये आकर बीत गए
पलकों के निस पनघट के कितने ही आँसू रीत गए
पर विश्वास नहीं खोये इक बस उम्मीद रही बाकी 
अनुमानों में समय चक्र के आखिर हम तो जीत गए।।

तुम आये पलकें भर आयीं मन को भी विश्राम मिला
तपती धरती पर बूँदों से जैसे है आराम मिला
पूर्ण प्रतीक्षा हुई समय की द्वार पलक के खुले सभी
जैसे शबरी के भावों को घट-घट में श्री राम मिला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2022

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

पलकों के कुछ स्वप्न सजीले
अधरों पर आए हैं खुलकर
जैसे प्यासा पनघट आए
उम्मीदों की गागर सिर धर।।

काश कि पनघट पर प्यासे को शीतल जलधारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

चली चाँदनी धीरे-धीरे
तारों ने भी पंथ सजाये
मद्धिम-मद्धिम पौन चल रही
पावस ऋतु सा मन अकुलाए।।

बूँदें गिरती काश गात पर जीवन ये सारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

व्याकुल मन के भाव सँभाले
पलक चाँद की ओर तक रही
मन के पृष्ठों पर कुछ लिखकर
बार-बार कुछ बात कह रही।।

मेरी भग्न कुटी खिल जाती जो साथ तिहारा मिल जाता
मधुर निशा के इस पल में काश नेह तुम्हारा मिल जाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2022

हृदय के भाव सारे बोल दो।

हृदय के भाव सारे बोल दो।  

भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

पाप क्या पुण्य क्या इस धरा पे तुम कहो
है प्रेम क्या औ क्या घृणा तुम ही कहो
जो लिखे हैं ग्रन्थ में या जगत का चलन
मुक्त है ये पल के मन की तुम भी कहो।।

भर के नयनों में मृदुलतम भाव अपने
आज बंद पलकों के किनारे खोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

है तुम्हारे नैन में जो स्वप्न सारे
उन को मैं साकार करना चाहता हूँ
जो कुछ रची है आकृति तुमने हृदय में
उनको मैं आकार देना चाहता हूँ।।

चाहता हूँ जिंदगी में हों रंग जितने
जिंदगी में वो रंग सारे घोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

मैंने कब कहा कि देवता बन कर रहूँ 
मैंने कब कहा है दर्द जगती के सहूँ
इतना बस एलान करना चाहता हूँ
ज्योति बनकर दिल में जलना चाहता हूँ।।

छोड़ कर के मन के सारे भ्रांतियों को
अब हिय के अपने द्वार सारे खोल दो
भर के मेरे गीत में कुछ शब्द अपने
प्रिय आज हृदय के भाव सारे बोल दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15मई, 2022



देवता भी उस जगह 
चाहता हूँ तूलिका में रंग भरो तुम





झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।

झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।  

मैं इस जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

है, देव ने एक रूप दे मुझको निखारा
और भर कर भाव हृदय में उसको सँवारा
फिर दिए कुछ शब्द भाव अंतस के कहूँ मैं
जिसमें रच कर गीत मैंने प्रतिपल पुकारा।।

अब ये है मुझपर कि लिखूँ प्रेम के गीत मैं
या लिखूँ विरह के गीत औ ख़ुद को भुलाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

है कौन सी ये ज्वाल जगत में जल रही है
मोहती जो किसी को, किसी को खल रही है
मोहती बूँद कहते ओस के सब यहाँ पर
फिर किसी को बूँद ये भला क्यूँ खल रही है।।

जो लतायें झुक गयी हों ओस के निज भार से
उन लताओं को सँभालूँ या कहो भूल जाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

क्या नहीं फर्ज जानूँ पास में क्या हो रहा
जागता कौन पल-पल, कौन पल-पल सो रहा
कौन है जो जगत का भार काँधों पर लिये
कौन जगती के लिये आस पग-पग ढो रहा।।

क्या यही पुरुषार्थ है जो मिला हमको यहाँ
छोड़ दूँ तुम कहो या कहो इसको निभाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14मई, 2022

कोई पीछे से आवाज दे रहा।

कोई पीछे से आवाज दे रहा।  

चला जा रहा मैं तो प्रतिपल
थाम समय की डोर हाथ में
ऐसा क्यूँ लगता है कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

पग-पग जीवन गलियारों में
नूतन प्रतिमान लिखा मैंने
अवसादों में अवरोधों में
जीवन गतिमान लिखा मैंने
जब जो भी राह चुनी मैंने
लिया सभी का संग साथ में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

अनुचित बंधन सभी तोड़ के
सुविधाओं का छोड़ा आँगन
मन में प्रण निश्चित कर हमने
बस दिया प्राण को नव स्पंदन
जीवन जीने की इच्छा में
चला समय के साथ-साथ में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

कैसे चल दूँ उसे छोड़ के
जब स्वर जाना पहचाना सा
फिर क्यूँ मुझसे छुपता फिरता
जैसे मैं हूँ अनजाना सा
एकाकी इस जीवन में जब
लक्ष्य दिख रहा मुझे पास में
फिर ऐसा क्यूँ लगता कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

जब हम सबको इस जीवन में
चुनने का अधिकार मिला है
कहने, सुनने औ रचने का
सुंदरतम उपहार मिला है
रच डालें नवगीत यहाँ हम
लेकर सबका हाथ-हाथ में
फिर भी क्यूँ लगता है कोई
पीछे से आवाज दे रहा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12मई, 2022


थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।


तूफानों में झंझाओं में या बेमौसम विपदाओं में
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

निज पलकों के स्थापित सपने
विश्वासों में हो दृढ़ निश्चय
संकल्पित भावों का चंदन
आस अडिग हो अटल औ अक्षय
संदर्भों के भाव अलग हों मन ऐसा कहाँ विचार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

कदम-कदम हों घातें कितनी
या उमस भरी हों रातें कितनी
ताप दिवस का गात जलाये
धूल भरी बरसातें कितनी
कंटक पथ-पथ बिछे हुए हों कब पग ने यहाँ विचार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

तेरे स्वेद बूँद से सींची
बंजर धरती मुस्काई है
जब-जब तेरे कदम बढ़े हैं
बाँह स्वप्न की खिल आयी है
जब तेरे सारे सपनों को पलकों ने अंगीकार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

तेरे पग की चिनगारी में
क्षमता, पथ रोशन करने की
तेरी दृढ़ता में वो बल है
निज संकट मोचन बनने की
तेज धार कितनी लहरों की कब तट ने है चीत्कार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

जिस मिट्टी को तुमने सींचा
वो उपवन महकायेगी ही
मरुथल में भी तेरा उद्द्यम
जल बूँदें बरसायेंगी ही
तेरा तेज गगन तक छाया जब रवि ने है स्वीकार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मई, 2022

भारतीय रेल- दोहे।

भारतीय रेल- दोहे।  

गाड़ी सीटी दे रही, यात्री सब तैयार
अपने जन से मेल हो, सबका यही विचार।।

रात-दिवस चलती रहे, कभी न करे विश्राम
मंजिल-मंजिल नापती, पहुँचाती सब धाम।।

रात-रात भर जाग कर, सारे करते काम
यात्रा जब पूरी हुई, तभी मिले आराम।।

नियमों का सम्मान है, जनसेवा है धरम
समय, सुरक्षा मूल तत्व, अपना तो है करम।।

इंजन की सीटी सुने, सबका मन हरषाय
जंगल, नदिया नापती, सबको घर पहुँचाय।।

राष्ट्र की जीवन रेखा, सब कोई अपनाय
मुस्कानों के साथ ये, सबको गले लगाय।।

रेल संपत्ति राष्ट्र की, सेवा ही सम्मान
आओ सब मिल प्रण करें, सदा रखेंगे मान।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06मई, 2022

मौन भला क्यूँ कर रहना।

मौन भला क्यूँ कर रहना।  

गीत मुखर हों जब अधरों पर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

अब तक जीवन भटका-भटका
घूम रहा था भूला-भूला
जैसे कोई भटका राही
अपने मंजिल का पथ भूला
पर शीतल छाया मिल जाये
घने ताप में फिर क्यूँ रहना
गीत मुखर हों जब अधरों पर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

कहीं शोर हो कहीं शांति हो
मन के भीतर कहीं भ्रांति हो
बूँदें पलकों पर हो ठहरे
या यादों के सागर गहरे
मन के भीतर शोर बहुत हो
अरु पलकों से चाहे बहना
तब भावों से नेह लगा लो
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

धन्य हुआ उपहारों से मैं
संवादों में तुमने बाँटे
धन्य हुआ मेरा मन पाकर
तुमसे कंटक छल अरु काँटे
तुमसे कितना कुछ पाया है
अफसोस यहाँ फिर क्या करना
तुम पर अब ये गीत निछावर
मौन भला फिर क्यूँ कर रहना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05मई, 2022



दीपक के मनोभाव।

दीपक के मनोभाव।  

दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

लौ की ताप सभी ने देखी
पर बाती को कब है जाना
जिसको तुमने जलना समझा
सच वो ही उसका मुस्काना
राख हुई जलकर वो बाती
न चेहरे पर संताप दिखा
दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

जीवन के घुप अँधियारों ने
सच, मेरा मान बढ़ाया है
लेकिन जैसे हुआ सवेरा
फूँक मार मुझे बुझाया है
आभारी हूँ अँधियारों का
जिसने मेरा मान रखा है
दीपक जब भी जला यहाँ पर
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

है मुझको मालूम यहाँ पर
कोई नहीं किसी का साथी
दीपक तब तक ही जलता है
जब तक जलती उसकी बाती
पल-पल जलते दीपक में पर
बाती को सम्मान दिखा है
लेकिन दीपक जला यहाँ जब
दुनिया को बस ताप दिखा है।।

अपनी तो किस्मत में जलना
जल कर भी आकाश सजाया
मैने पग-पग जीवन पथ पर
तम को पथ से दूर हटाया
हाँ, खुश हूँ बुझने से पहले 
अधरों पर मुस्कान दिखा है
क्यूँ कर के अफसोस करूँ अब
दुनिया को जो ताप दिखा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मई, 2022

हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

उँगली पर जो दिवस गिने हैं
कैसे तुमको मैं बतलाऊँ
पल-पल जीवन कैसे काटा
है मुश्किल उसको समझाऊँ
पृष्ठों पर सब भाव उकेरे लिखा वही जो अपनापन है
हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

अवनी से अंबर तक मन ने
पग-पग नाम तुम्हारा लिखा
जब-जब पलकें खोली हमने
केवल रूप तुम्हारा दिखा
हिय ने जो भी भाव बुने हैं सबमें तेरा स्पंदन है
हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

नैन बसी है छवि तुम्हारी
जो कहो यहाँ मैं दिखलाऊँ
तुमसे मेरी साँस जुड़ी है
कैसे मैं तुमको अलगाऊँ
नित्य वचन में बंधा तुम्हीं से तुमसे सारे बंधन हैं
हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

अंतस के सब बंध तोड़ दो
निज भावों को बह जाने दो
रोको मत तुम आँसू अपने
पलकों से सब कह जाने दो
पिय रखो अंक में शीश, कहो, मन में अब कैसा मंथन है
हृदय तुम्हारा साथ छोड़ दे विरक्त नहीं इतना मन है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अप्रैल, 2022

बनूँ गीत मैं नव जीवन का तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।


बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर छा जाऊँ।।

मेरे अधरों पर है आई
मेरे उर की मर्म कहानी
शब्द नहीं कह पाये जो कुछ
कहे आँसुओं ने वो वाणी
उर की बस ये चाह रही
तेरी साँसों में बस जाऊँ
बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

बस ये मन की चाह रही के
अपनी ये पहचान मृदुल हो
कैसे भी हों पल जीवन के
हर पल के अनुमान मृदुल हों
अनुमानों में घुले भाव सब
पहचानों में यूँ ढल जाऊँ
बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

अपने स्वर में तेरे स्वर के
राग मिला कर गीत सजाऊँ
चाह यही बस मेरे मन की
गीतों में बस तुमको गाऊँ
तुम्हीं चुनो वो गीत मेरे
जिसको तेरा साज बनाऊँ
बनूँ गीत मैं नव जीवन का
तेरे अधरों पर बस छाऊँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अप्रैल, 2022

गीत का संसार लिख दूँ।

गीत का संसार लिख दूँ।  

भाव शब्दों में पिरो कर
गीत का संसार लिख दूँ।।

चाहता हूँ आज लिख दूँ
जो कभी मैं कह न पाया
चाहता हूँ आज कह दूँ
बिन तिरे मैं रह न पाया
जो कहो अपने हृदय में
प्रीत पारावार लिख दूँ
भाव शब्दों में पिरो कर
गीत का संसार लिख दूँ।।

वेदना के निज पलों में
सब गीत आँसू से सने
न शरण, न संकेत कोई
पलकें स्वप्न कैसे बुने
वेदना ठहरी पलक पर
जो कहो अधिकार लिख दूँ
भाव शब्दों में पिरो कर
गीत का संसार लिख दूँ।।

साथ हो पल भर भले ही
प्रीत के पल जी उठेंगे
अधरों पर पल भर सजे जो
गीत सारे जी उठेंगे
अंक में तेरे बिखर कर
स्वप्न सब साकार लिख दूँ
भाव शब्दों में पिरो कर
गीत का संसार लिख दूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25अप्रैल, 2022


छू लिया जिसने हृदय को।

छू लिया जिसने हृदय को।   

कौन गाया गीत ऐसा
छू लिया जिसने हृदय को।।

सुप्त मन के भाव जागे
मौन से किसने जगाया
भाव का लेकर समंदर
कौन है जो पास आया
कौन है जिसकी धमक ने
अंक में बाँधा समय को
कौन गाया गीत ऐसा
छू लिया जिसने हृदय को।।

कौन जिसके आगमन पर
रश्मियाँ पथ को बुहारी
पुष्प-कलियों से सुसज्जित
माँग प्रकृति की सँवारी
कौन सा श्रृंगार जिसने
मोह डाला है अमय को
कौन गाया गीत ऐसा
छू लिया जिसने हृदय को।।

कौन जिसकी इक चमक ने
दामिनी को भी लुभाया
कौन जिसकी छाँव ने भी
सूर्य को पथ है भुलाया
है कौन जिसके प्रीत में
मन चाहता है, विलय हो
कौन गाया गीत ऐसा
छू लिया जिसने हृदय को।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अप्रैल, 2022


है दिया तुमने सवेरा।

है दिया तुमने सवेरा।  

पंथ से भटका हृदय जब
था प्रलय संकेत कोई
आह से विचलित हुआ हिय
चाह कर पलकें न सोईं
दृष्टिगोचर था यहाँ सब
पर नयन में था अँधेरा
इन दृगों में ज्योति बनकर
है दिया तुमने सवेरा।।

शब्द अधरों को दिये हैं
गीत से सुरभित किये हैं
भर दिये मुस्कान पथ में
साज से सज्जित किये हैं
जो भरा नव रंग हिय में
हो वही सुंदर चितेरा
इन दृगों में ज्योति बनकर
है दिया तुमने सवेरा।।

अब नहीं अनजान जग से
पंथ से परिचित हुआ मन
संग तेरा है मधुर यूँ
साज से सज्जित हुआ मन
नवगीत की तुम पंक्ति हो
छंद का पावन बसेरा
इन दृगों में ज्योति बनकर
है दिया तुमने सवेरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अप्रैल, 2022

ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

तूफानों में घिरा भले मन
झंझावत हों कदम-कदम पर
अवसादों के बीच भले हो
या विपदायें कदम-कदम पर
अपने वश में मन को कर ले बिखर नहीं जाने दो
ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

यादों के झुरमुट में उलझे
सपनों के पनघट पर ठहरे
पंथ ताकती गीली नजरें 
जाने कौन राह फिर ठहरे
पलकों के निज कोर सँभालो व्यर्थ नहीं झर जाने दो
ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

अब धीर धर लो तुम हृदय में
अरु मुस्कुराकर मौन साधो
है भाव में जो प्रेम संचित
उसको आँचल में तुम बाँधो
आँसुओं से कब दीप जलता अब नैनों को समझाने दो
ये आँसू पावन गंगाजल हैं व्यर्थ नहीं बह जाने दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20अप्रैल, 2022

कैसे कहो अत्याचार रोकूँ।

 कैसे कहो अत्याचार रोकूँ। 

इस मौन मन में द्वंद कितने
खल रहे पल-पल हृदय को
सामीप्यता के निज पलों में
छल रहे पल-पल समय को
पल रहे निज अंक में कैसे कहो ये व्यवहार रोकूँ
सोच में प्रतिपल हृदय कैसे कहो अत्याचार रोकूँ।।

अब प्यालियाँ कितनी अधर के
सामने आ रुक गये हैं
वो अश्रु नैनों से जो निकले
नैन में ही छुप गये हैं
छुप गये निज नैन में कैसे आँसुओं की धार रोकूँ
सोच में प्रतिपल हृदय कैसे कहो अत्याचार रोकूँ।।

कहो, तुमने क्या पाया यहाँ
वो, जो मिला हमको नहीं
अब जो भी हृदय भाव पाले
उससे गिला हमको नहीं
द्वेष जब कुछ भी नहीं कैसे कहो फिर प्रतिकार रोकूँ
सोच में प्रतिपल हृदय कैसे कहो अत्याचार रोकूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19अप्रैल, 2022

सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

हँस कर बोला दिवस आज का
बीता हर पल थका-थका सा
कितनी राहें नापी पग ने
लगता फिर भी रुका-रुका सा
रुके पंथ हौले से बोले
सपनों को आलिंगन ले ले
सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

डूबे मन क्यूँ सघन गगन में
जब है हल्की छुअन पवन में
मन का पपिहा प्यासा कैसा
आन बसे जब सपन नयन में
सपन सुहाने द्वार खड़े हो
पलकों को धीरे से खोले
साँध्य जब घूँघट पट खोले।।

गीतों में जहँ भरा समंदर
अवनी-अंबर मिले जहाँ पर
जहँ मन गाये गीत मनोहर
भावों का पथ खिले वहीं पर
जहाँ हृदय सम्मोहित होकर
मन से मन की बातें बोले
सांध्य जब घूँघट पट खोले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अप्रैल, 2022

तपन छाँव की।

तपन छाँव की।  

यादों की बदली में मन जब
उमड़-घुमड़ कर रह जाता है
चाहे कितनी बातें कहना
मगर नहीं कुछ कह पाता है
मन के सूनेपन को बरबस
छल जाए तब, छुअन छाँव की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।

मन जब विचलित प्रतिवादों से
ढूँढे रह-रह अनुवादों में
सूझे ना जब गति जीवन की
जब जीना मुश्किल अपवादों में
जीवन के हर पहलू में फिर
पल-पल ढूँढे नयन, छाँव की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।

गीतों में जब साज सजे, ना
अधरों पर जब राग सजे, ना
व्याकुल मन कुछ लिखना चाहे
पृष्ठों पर अल्फाज सजे, ना
तब गीतों की करुण साधना
ढूँढे कोई, कलम नाम की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16अप्रैल, 2022


प्रीत साँसों में उतरती।

प्रीत साँसों में उतरती।  

चल पड़ीं राहें मचलकर
शब्द अधरों पर सँभलकर
यद्दपि पलकों ने कहा कुछ
जब मिले फिर सोचना क्या
देख संध्या है मचलती
प्रीत साँसों में उतरती।।

साँस को छूती किरण ये
पंथ में बिखरे सुमन ये
याद के पट खोलते हैं
नैन के धुंधले सपन ये
स्वप्न पलकों में निखरती
प्रीत साँसों में उतरती।।

हो उजाला जब हृदय में
तब अँधेरे क्या करेंगे
आवरण कितने भले हों
मन को कहो क्या छलेंगे
तिमिर धीरे से सरकती
प्रीत साँसों में उतरती।।

है दिवस का खेल सारा
अंक में जाकर क्षितिज के
मौन कैसे छुप गया है
पाश में जाकर हरिज के
अंक में नव रीत भरती
प्रीत साँसों में उतरती।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अप्रैल, 2022

पुकार।

पुकार।  

सोच में पड़े हो क्यूँ
मौन तुम खड़े हो क्यूँ
झूठ के प्रभाव को उखाड़ दो
सत्य का प्रभाव हो
झूठ का अभाव हो
बस यही तो एक ही प्रमाण हो।।

चल पड़े जो पंथ में
कैसा भय फिर दंश से
हाथ मे स्वयं जब कमान है
धर्म की विजय करो
अधर्म से न फिर डरो
धर्म जो जिया वही महान है।।

राम का स्वभाव हो
कृष्ण का प्रभाव हो
शत्रु पर भीम सा दबाव हो
जो चल पड़े रुको नहीं
जो हो खड़े झुको नहीं
शत्रु पर तेरा बस प्रभाव हो।।

जो चला हो सत्य पे
कंटकों से कब डरा
झूठ के प्रलापों से
पंथ से वो कब टरा
हर कदम पे जीत के
बस तेरा ही निशान हो।।

जो लेखनी चले कभी
तो सत्य ही लिखे सदा
राष्ट्र धर्म भावना को
प्राणों में भरे सदा
शून्य में भी उसका ही प्रभाव हो
जिस कलम में धार न हो
जीत की गुहार न हो
उस कलम पे न कोई झुकाव हो।।

वेद हो पुराण हो
या गीता का सार हो
युद्ध मे हो जब खड़े
न मन पे कोई भार हो
युद्ध का समय हो या
कि शांति का चुनाव हो
जो सत्य की विजय करे
वही तो बस महान है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14अप्रैल, 2022

आया है नूतन सवेरा।

आया है नूतन सवेरा।  

थी गगन में पूर्व कुछ पल
तम की गहरी रेख काली
खो गयी थी बादलों में
सांध्य की उजली वो लाली
पर मिटा है तब अँधेरा
तम की जब चादर हटी है
देख प्राची की दिशा से
आया है नूतन सवेरा।।

खो गयी थी रोशनी भी
रात की चादर थी गहरी
या भरम था मौन मन का
जिस पे जाकर बात ठहरी
पर खुले तब मौन मन के
प्राची से जब पौ फटी है
धुंध मन के चीरने को
आया है नूतन सवेरा।।

रात भर जिन प्रहरियों की
पलकें ना सोई न जागी
आस थी पल-पल नयन में
नींद लेकिन कब वो माँगी
पर मिला है तब सहारा
दूरी नयनों की मिटी है
मौन साँसें पूजने को
आया है नूतन सवेरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13अप्रैल, 2022



प्रीत का व्यवहार देखूँ।

प्रीत का व्यवहार देखूँ।  

है नयन की चाह जग में
प्रीत का व्यवहार देखूँ।।

इस जगत के पुण्य पथ पर
चल रहा इक आस लेकर
दूर तक जाते हुई इस
पंथ पर विश्वास लेकर
नैन, जिनके पल रहे हैं
स्वप्न जीवन के मृदुलतम
उन सभी पलकों पर सदा
जीत का आकार देखूँ
है नयन की चाह जग में
प्रीत का व्यवहार देखूँ।।

सोचता हूँ मैं जगत में
द्वेष, छल है क्यूँ घृणा है
मनुज मन में त्रास कैसा
मद मोह में क्यूँ पड़ा है
है हृदय पर भार कैसा
और कैसा पल विकटतम
हो घड़ी कितनी विकटतम
पुण्य का सत्कार देखूँ
है नयन की चाह जग में
प्रीत का व्यवहार देखूँ।।

जब जगत में पुण्य अगणित
फिर कहो कैसे टलूँ मैं
छोड़ कर उस पंथ को फिर
तुम कहो कैसे चलूँ मैं
पल रहा नव भाव प्रतिपल
ले आस मन में पुण्यतम
पुण्य हो जीवन सफल हो
स्वप्न को साकार देखूँ
है नयन की चाह जग में
प्रीत का व्यवहार देखूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11अप्रैल, 2022

व्यग्र घड़ियों में मन की बात।

व्यग्र घड़ियों में मन की बात।  

मौन जीवन के पलों में दृष्टी बीती पर जो डाली
कितनी घड़ियाँ व्यग्र देखीं मन बात अपनी बोलने को।।

क्या फिर करता उन पलों में मन को जब समझा न पाया
गाँठ उर की खोलने को जब पास में कोई न आया
स्वयं कितने ही गढ़े फिर गल्प भावों की प्रचुरता के
अब कौन जाने मन यहाँ पर भार कितना है उठाया।।

थे शब्द पल-पल कुछ तड़पते गाँठ मन की खोलने को
कितनी घड़ियाँ व्यग्र देखीं मन बात अपनी बोलने को।।

ये मौन जीवन का सुखद है या राग जीवन का सुखद
जब ये गात मधुमय गीत गाये फिर कहें कैसे दुखद
जब भी रचे मन गीत सुंदर बाट कब तक जोहता हिय
रोक न पाया हृदय सब कह दिया था सुखद या के दुखद।।

हिय में सजे जब राग सुखमय श्वास मन के तोलने को
कितनी घड़ियाँ व्यग्र देखीं मन बात अपनी बोलने को।।

प्रलाप से जब दग्ध हो कंठ गीत कोई सजते नहीं
जब हृदय में पीर ठहरी कोई साज तब सजते नही 
जब सुख का कोई माप न हो दुख कोई मापेगा क्या
जब हो तुला पर जिन्दगी फिर स्वांग कोई रचते नहीं।।

जब मुक्त हो सुखमय हृदय अहसास मन के तोलने को
कितनी घड़ियाँ व्यग्र देखीं मन बात अपनी बोलने को।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09अप्रैल, 2022

भाव को संवेदनाएँ।

भाव को संवेदनाएँ।  

आज प्राची के क्षितिज से
रोशनी की भावनायें
आ रही हिय को लुभाती
भाव को संवेदनाएँ।।

कुछ कहा कवि के हृदय ने
लेखनी ये चल पड़ी फिर
पृष्ठ पर कुछ भाव अंकित
मौन हँस कर कह पड़ी फिर।।

कह रही साँसें प्रखर हो
गूँजती अनुरंजनाएँ
आ रही हिय को लुभाती
भाव को संवेदनाएँ।।

सौम्य सुंदर है सुघड़ है
इस हृदय को दिख रहा जो
अब नहीं मरुथल यहाँ पर
फिर कहो क्या खल रहा है।।

अंक में मन को सँभाले
थाल भर कर अर्चनायें
आ रही हिय को लुभाती
भाव को संवेदनाएँ।।

पार बादल दिख रहा है
देख लो सुंदर सवेरा
दीप्त हों जब भाव हिय के
रोकेगा फिर क्या अँधेरा।।

अंक में भरती किरण धन
हर रहीं अब वेदनायें
आ रही हिय को लुभाती
भाव को संवेदनाएँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2022

धरती की पीड़ा।

धरती की पीड़ा।   

देख पीड़ा इस सदी की
संपूर्ण धरती रो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

जो धरा का रूप दिखता
क्या है यही अनुरूप इसका
आज निखरा है यहाँ जो
कुछ तो कहो है धूप किसका।।

रोशनी भी ताप से अब
ज्यूँ पाप अपने धो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

संकटों में है घिरा क्यूँ
अवनी और अंबर यहाँ पर
स्वार्थ का सागर उमड़ता 
है दिख रहा पग-पग यहाँ पर।।

स्वार्थ लोलुप श्राप से अब
क्या दीप्ति अपनी खो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

युद्ध का संकट कहीं पर
अरु कहीं पे हाहाकार है
स्वार्थ को आश्रय मिला है
कहो कैसा ये व्यवहार है।।

लग रहा जैसे धरा ये
बस जिन्दगी को ढो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

सोचता हूँ अब यहाँ पर
ये धरणी अब तक न गली क्यूँ
जिस व्यथा में जल रही है
ये धरणी अब तक न जली क्यूँ।।

अपराध क्या उसका यहाँ
जब मनुजता ही सो रही है
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

इस व्यथा से हो न विचलित
है तब यही परिणाम निश्चित
स्वार्थ में जड़ बन चुके जब
फिर कब रहा जीवन सुनिश्चित।।

आज सिक्कों की खनक में
सब भावनायें खो रही हैं
घाव जो, नासूर हैं अब
निज आँसुओं से धो रही है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2022


उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।

उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।  

वक्त की रेत पर धुँधलके कुछ निशाँ
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

कुछ कहे कुछ सुने कुछ लिखे कुछ पढ़े
भाव के गांव में गल्प कितने गढ़े
कुछ मिले कुछ खिले कुछ ढले भाव में
कुछ क्षितिज पर राह देखते हैं खड़े।।

आस की आस में यूँ सजी बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

लिये चलते रहे भावनायें मधुर
चाह गढ़ती रही कामनायें मधुर
कुछ मिले राह में चाह कुछ की रही
भाव हिय ने गढ़े हैं सदा ही मधुर।।

कामनायें मधुर चाहती बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

क्या कहा अनकहा कौन किसको कहे
सोचती जिन्दगी कौन कैसे सहे
कहते हैं रास्ते ये सियासी कथन
जब डँसे जिन्दगी दूर कैसे रहें।।

धड़कनों में तड़पती रही बन्दगी
उमर भर राह तकती रही जिन्दगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अप्रैल, 2022

मानव मन।

मानव मन।  

निज भावों के महिसागर में
मानव मन नित झूल रहा है
जीवन ये बहती धारा है
लगता पल-पल भूल रहा है।।

आज यहाँ कल कहाँ ठिकाना
क्या खोया था जो फिर पाना
कौन रुका है इस जगती में
इक दिन सबको ही है जाना।।

जब सबका परिणाम सुनिश्चित
क्यूँ किंतु-परन्तु में झूल रहा है
निज भावों के महिसागर में
मानव मन नित झूल रहा है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अप्रैल, 2022

नव-संवत्सर।

नव-संवत्सर।   

नव संवत्सर दिवस पुनिता
पूजहीं धरम मिलहिं अशीषा
भाँति-भाँति है ज्ञान प्रसारा
चहुँ दिस होहिं धरम विस्तारा।।

सब हिय पनपहिं प्रेम पुनिता
हर हिय बसहिं राम अरु सीता
लिखहिं पढ़हिं सब होयहिं ज्ञानी
सत्य सनातन जुग-जुग विज्ञानी।।

चहुँ दिस हर्ष उलास मन गाई
प्रेम प्रसार होहिं जग माहीं
कष्ट मिटे हो सज्जन शीला
मन मोहहि सब देह सुशीला।।

राम कथा सुनि मन हरषाये
रोग दोष सब दूर भगाये
काम क्रोध मद मोह मिटे जब
पुण्य प्रवाहित जग में हो तब।।

जीवन सुखद सुफल बन जाये
हरषि-हरषि मन पुनि-पुनि गाये
शुद्ध हृदय मन-चित ले गावहिं
राम कृपा आजीवन पावहिं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02अप्रैल, 2022

गान अमर सब हो जायेंगे।

गान अमर सब हो जायेंगे।   

मेरे गीतों के भावों में
जो तुम अपना भाव मिला दो
सच कहता हूँ यहाँ लिखे जो
गान अमर सब हो जायेंगे।।

यहाँ वहाँ से शब्द जोड़कर
पंक्ति-पंक्ति में भाव मिलाये
छंद-छंद अरु चरण-चरण में
अब तक खुद को हूँ भरमाये
जो तुम मेरे इन शब्दों को
अधरों का मधुपान करा दो
सच कहता हूँ यहाँ लिखे जो
गान अमर सब हो जायेंगे।।

इस जीवन के सभी पलों में
मैंने खुद को समझाया है
इस जगती से मिला मुझे जो
सबको हँसकर अपनाया है
माना तुच्छ भेंट है मेरी
थोड़ा सुख का भान करा दो
सच कहता हूँ यहाँ लिखे जो
गान अमर सब हो जायेंगे।।

अति आस नहीं अभिलाष नहीं
अरु सभी सराहे चाह नहीं
ममता के कुछ भाव मिले, बस
इस जगती से है आस यही
मुझको अपने होने का तुम
बस मधुरिम अहसास करा दो
सच कहता हूँ यहाँ लिखे जो
गान अमर सब हो जायेंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         01अप्रैल, 2022





प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है, समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

बाट जोहते युग-युग बीता
मन का घट रहा-रह रीता
रही प्रतीक्षा कठिन मगर ये
मन कब हारा, बस जीता।।

जगती में फिर हार-जीत की
छोड़ व्यथा आ खुलकर मिल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

यही समय है जिसकी प्रतिपल
करते थे हम प्रत्याशा
मधुर निशा के इस इक पल में
जीवन की सब अभिलाषा।।

सोच रहे क्या इस बेला में
हाथ धरे संग-संग चल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिय वादों की रात यही है
देखो शशि साथ जग रहा
पुण्य प्रभावी हों सदियों के
हमको आशीष दे रहा।।

वादों का आलिंगन कर लें
होने दो जो होगा कल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31मार्च, 2022

पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के, मन वीणा के तार कसो।।

पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के, मन वीणा के तार कसो।।

मन गुंजित हो उठा गगन में
मृदु भावों ने मोह लिया
अब परवाह यहाँ क्या करना
सही किया या गलत किया।।

पुष्पित हो मन मृदुल पलों में
हिय में ऐसे आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

क्या खोऊँ क्या पाऊँ जग में
मुझको कुछ परवाह नहीं
जग केवल मेरे गीत सुने
रत्ती भर भी चाह नहीं।।

तुमसे पर सब राग सजे हैं
साँसों में यूँ आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

जगती का पथ कठिन, अकेला
मौन पंथ कब तक चलता
कब तक पलता संकेतों पे
कब तक मन खुद को छलता।।

आलिंगन भर लो भावों को
पलकों में फिर आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2022

पीर पुरानी।


 पीर पुरानी।  

शब्द रुके आकर अधरों पर
आयी याद कहानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

जन्म-जन्म की बातें लेकर
कोर नैन के भींगे
उमड़-उमड़ भावों का सागर
रह-रह कर के रीते।।

नयन कोर तक आ आकर के
अश्रु की रुकी रवानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

मैंने जीवन भर गीतों में
कितने भाव सजाया
किंतु पलट कर पृष्ठ जो देखा
क्या खोया क्या पाया।।

मिलन पलों में लिखे गीत जो
बिछड़ी याद सुहानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

शब्दकोश में सिमटा जीवन
पर शब्दों में दूरी
कुछ समझा कुछ समझ न पाया
कैसी है मजबूरी।।

भावाकुल मन बहक-बहक कर
गाये प्रीत पुरानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29मार्च, 2022


चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

ले मिलन की आस मन में है राह भी खुद चल पड़ी
दूर देखा जब क्षितिज पर मृदु कामनाएं थी खड़ीं
कल्पना करने लगे नव पंथ खुशियों के बुहारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चन्द्र किरणों ने गगन से तप्त उर में प्रीत भर दी
तारों की परछाईयों अंक में नव रीत भर दी
व्योम से छनकर गिरे फिर गात पर स्नेहिल फुहारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

अवरोध का फिर प्रश्न क्या मधुमास की जब रात हो
क्या अँधेरा क्या उजाला जब गुनगुनाती रात हो
भाव मन में क्यूँ रुके फिर गात बोलो क्या विचारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चाँदनी निखरी हृदय में व्योम का अहसास पाया
गात का उपवन खिला अरु प्रीत ने श्रृंगार पाया
कह रहीं पलकें झपक कर प्रीत अधरों पर खिला रे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25मार्च, 2022

कब तक आँसू से पग धोयें।

कब तक आँसू से पग धोयें।   

मन की सारी आशायें अब
रह-रह कर के विकल हो रहीं
उमड़-घुमड़ कर भाव सभी अब
पलकों में आ विकल हो रहीं
सूने मन का बोझ हृदय ये
कहो कहाँ तक ये अब ढोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

समझ नहीं पाया जीवन को
क्यूँ जीवन ने किया किनारा
जिससे भाव समझना था सब
नहीं रहा जब वही सहारा
समझाते मन को कैसे फिर
दुविधाओं में खोये-खोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

दुर्बलता का भाव लिये फिर
कहो कहाँ तक मन ये चलता
अवसादों की बंद गली में
कहो कहाँ तक मन ये पलता
अवसादों को लिये हृदय में
आस भला ये कब तक रोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

जो पग चलता नहीं वहाँ से
था मुश्किल जीवन खिल पाना
आभासी इस दुनिया में फिर
था मुश्किल खुद से मिल पाना
आभासी जीवन का बोझा
कहो कहाँ तक मन अब ढोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मार्च, 2022

कविता क्या है।

कविता क्या है।  

जब हृदय मचलकर शब्द चुने
और लिखे समझना कविता है
जब भाव पिघलकर शब्द बुने
छंद सजे समझना कविता है।।

जब मिलन पलों में पलकों से
बहे खुशी समझना कविता है
विरह गीत नैनों से छलके
नीर बहे समझना कविता है।।

बिन कहे बात दिल तक पहुँचे
मोह जगे समझना कविता है
अधरों से मृदु मधुरस छलके
पुष्प झरे समझना कविता है।।

पतझड़ के मौसम में भी जब
मन बहके समझना कविता है
मरुथल में मन झंकृत हो जब
साज सजे समझना कविता है।।

खुद से खुद की प्रीत जगे, मन
नाच उठे समझना कविता है
बरबस ही हिय झूम उठे जब
पग थिरके समझना कविता है।।

जब भाव सँभलना मुश्किल हो
एहसास समझना कविता है
मधुमास जगे जीवन में अरु
अंक भरे समझना कविता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मार्च, 2022

यादों के गीत।

यादों के गीत।  

मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो
बीत रहा कैसा ये जीवन
कैसे इसे बताऊँ बोलो।।

नदिया तरसे सागर तरसे
जाने कैसी रुत आयी है
तरस रहे हैं सभी किनारे
जाने कैसी रुसवाई है
तन-मन के सब भाव उमड़ते
कैसे इसे जताऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

प्यासी यादें पनघट पर हैं
राह जोहती आ जाओ तुम
सदियों से प्यासी साँसों की
बुझती आस जगा जाओ तुम
बीत रहे दिन कैसे-कैसे
किसको घाव दिखाऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

भूल गये क्या बातें सारी
या मेरी परवाह नहीं है
भूल गये सपनों की रातें
या कोई परवाह नहीं है
बरस-बरस दिन बीत गये जो
कैसे उसे बुलाऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मार्च, 2022

होली।

होली।   

रंग बिरंगे भाव सजायी
आज दिवानों की टोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

कहीं गूँजते गीत सुरीले
कहीं मृदुलता छाई है
कहीं मचलते भाव सुनहरे
कहीं चपलता छाई है
सजधज कर के नाचे मौसम
फैली सूरज की रोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

कहीं बना है कान्हा कोई
कहीं राधिका रानी है
रास-रंग के इस मौसम में
नूतन राग सुनानी है
झूम-झूम कर नाच रहे सब
खुशियों ने बाहें खोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

आज अपरिचित रहे न कोई
सबको तुम अपना कर लो
भूले भटके, दूर बसे जो
सबको पलकों में भर लो
खुली पलक में स्वप्न सजे हों
बनी रहे ये रंगोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मार्च, 2022

अंतस की आशायें।

अंतस की आशायें।  

स्मृतियों के द्वार खड़ी थीं कुछ उम्मीदें पहचानी सी
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं ।।

कितने भाव मचल बैठे इक पत्र तुम्हारा जब आया 
कितने स्वप्न सजे पलकों पर कितने भाव सजा लाया
चारों तरफ छँटी उदासी छंद मचल कर नाच उठे
तेरे अधरों पर मैंने जब अपने गीतों को पाया।।

चारों तरफ रागिनी गूँजी भोर सुहानी मधुर हुई
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

इक तेरे संबोधन से नहीं अपरिचित रहा स्वयं से
उलझे थे अब लगे सुलझने प्रश्न सभी इस जीवन के
समृतियों ने राह सजाई पुष्प खिलाये मरुथल में
लगा महकने जीवन सारा अहसासों में मधुवन के।।

मधुमासों के आभासों से सब आशायें निखर गयीं
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

मन ने जब लिखना चाहा केवल नाम तुम्हारा लिखा
दर्पण में जब भी देखा मुझको रूप तुम्हारा दिखा
हर शब्दों में छवि तुम्हारी गीतों में तेरी बातें
अंतस के श्वेत पट्ट पर मुझको रंग तुम्हारा दिखा।।

मन के वातायन से यादें अरमानों में निखर गयीं
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 मार्च, 2022

क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।

क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।  

क्यूँ कर जिंदगी इस मोड़ से उस मोड़ तक जाती नहीं
क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।।

कहने को तो दिवारों के कान होते हैं सुना है
जाने दर्द की आवाज फिर उस पार क्यूँ जाती नहीं।।

कहो बादलों ने कब छुपाई रोशनी जो आ रही
क्यूँ फिर इस मकाँ से उस मकाँ तक रोशनी जाती नहीं।।

ये पैर भी थकने लगे जब मंजिलें गुमनाम हों
फिर रास्तों की क्या खता जो दूर तक जाती नहीं।।

इक अदावत ने न जाने कितने घर-बेघर किये हैं
पर न जाने दोष उस पर क्यूँ मढ़ी जाती नहीं है।।

कितने दीपक बुझ गये हैं इस गरीबी से यहाँ पर
कहो मुफलिसी फिर कटघरे में क्यूँ कभी जाती नहीं।।

मुड़ के देखे वक्त अब फुरसत कहाँ इतनी सफर में
शायद उम्र से लंबी सड़क है, आवाज अब जाती नहीं।।

अब खुदा भी पत्थर सा हुआ जाता है शायद "अजय"
लगता है कि अरदास कोई अब उस तक जाती नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19मार्च, 2022

होली के रंग।

होली के रंग।  

होली के रंगों में हुई है धरा सराबोर
रूप खिला प्रकृति का है खुशहाली चहुँओर।।

टेसू के रंगों ने है दिया धरा को रूप
मीठी लागे छाँव भी मीठी लागे धूप।।

रंग-बिरंगे लोग हैं रंगी हैं परिधान 
जब दिल सबके मिल गये फिर कैसे व्यवधान।।
***************

रंगों के भाव लिए गीतों में
तेरे गलियारे में आया हूँ
कुछ अपनापन कुछ दीवानापन
पल-पल भाव सुनहरे लाया हूँ।।

कुछ भाव समर्पित तुम भी कर दो
कुछ भाव समर्पित मैं भी कर दूँ
प्रिय सपनों का आलिंगन कर के
आशाओं को अनुरंजन कर लूँ।।

अधरों पर मुस्कान मधुर हो
हर दिल मे अरमान मधुर हो
कोई नहीं अछूता हो अब
हर दिल की पहचान मधुर हो।।
************

जिस होली में रंग न हो अंजाम भला फिर क्या होगा
चाल चलन और ढंग न हो अंजाम भला फिर क्या होगा।।

नित संसद में देख कर नेताओं की हुड़दंग
रोये जनता फूट-फूट जैसे मिला हो दंड।।

यूपी खोये गोवा खोये खोये उत्तराखंड
योगी जी का देखा जलवा उड़ा है सबका रंग।।

इक-इक रोये माथ पकड़ कर अरु दूजा नोचे बाल
इक बाबा के फेर में देखो कैसा हो गया हाल।।

सायकिल की पैडल टूटी हाथी हुआ बेहाल
पंजा झाँके अगल-बगल बाबा ने किया कमाल।।

जोड़-तोड़ हरदम किया नहीं जमीं पर पैर
चाय वाले के सामने नहीं बची अब खैर।।

साल-साल भर बैठ कर के खूब लगाये नारा
गयी किसानी राजनीति में, नहीं मिला सहारा।।

जनता को बहलाये के जो हो गए मालामाल
समय की चकरी देखिए वही नोचे अपने बाल।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17मार्च, 2022

कहाँ छुपे हो कान्हा।

कहाँ छुपे हो कान्हा।  

रुके हुए कदमों ने फिर से
इक आवाज लगाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

मन मेरा तुम पर ही ठहरा
तुमसे मिला सहारा है
इस अनजानी सी दुनिया में
तुम बिन कौन हमारा है।।

तुमसे सब रिश्ते नाते हैं
तुमसे ही रुसवाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

इस जीवन के हर इक पल को
मैंने अन्तरहीन किया
रागों-अनुरागों को सारे
तेरे ही आधीन किया।।

बिखर न जाये जीवन कान्हा
कैसी अगन लगाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मार्च, 2022


क्या पथ रोकेंगे।

क्या पथ रोकेंगे।  

जीवन मे अगणित बाधायें
बढ़ते का क्या पग रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।

किस-किस के तू आगे रोता
झुकता क्यूँ, नतमस्तक होता
समय एक कब रहा किसी का
बीती का क्यूँ बोझा ढोता।।

वीथी पर अगणित विपदायें
अनुमानों को कब रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।


जीवन का क्या धर्म बताऊँ
तुम बोलो क्या मर्म बताऊँ
किस भाँती जीवन बहलाया
क्या-क्या बोलो कर्म बताऊँ।।

कर्म प्रबंधित जिसका भी है
व्यवधान उसे क्या रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मार्च, 2022

है कठिन अब मेल साथी।

है कठिन अब मेल साथी।  

शब्द का आशय बदल कर
मौन संशय में बदल कर
प्रश्न का आश्रय बदल कर
अब न कर तू खेल साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

घन सघन है धूम्र बनकर
कह रहे हैं अश्रु गिरकर
चुभ गये पल वो पलक में
अश्रु के बने रेख साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

दामिनी तड़की वहाँ तब
काँपती धरती वहाँ तब
मेघ भटके तर बतर से
थे प्रलय संकेत साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

आह थी उठती लहर में
घाव था हर इक पहर में
चल पड़े तम के सफर में
रो रही है रात साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मार्च, 2022

सांध्य के घाव गहरे।

सांध्य के घाव गहरे।  

शब्द के संचार सूने भाव के व्यवहार सूने
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने। 

दूर जा कर छुप गयी वो रोशनी जो थी सजीली
आ रही थी रुक गयी अब रागिनी जो थी सुरीली
छा गयी देखो गगन में फिर धुंध की कुछ बदलियाँ
थम गयी सहसा गगन में रात बन कर के हठीली।।

यूँ रुक गयी सागर लहर ज्यूँ तटों के पंथ भूले
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।।

नैनों के कोरों पे सहसा मौन सी हलचल हुई
अश्रु पलकों पे यूँ ठहरे ज्यूँ भाव की दस्तक हुई
भावनाओं ने पलों में कह अधर के पाटलों से
गिर पड़े सब अश्रु नयन से यूँ चोट कुछ पल-पल हुई।।

छिप गयी संध्या क्षितिज में रात के ओढ़े बिछौने
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13मार्च, 2022

किरदार- स्वयं के आइने में।

किरदार-स्वयं के आइने में।   

दूर सागर के क्षितिज पर इक लहर है चूमती
सौम्यता, मृदु भाव हिय में मस्त होकर झूमती।।

चल पड़ा उस ओर खिंचकर मस्त मधुमय गीत गाता
पार अँधेरों के जो देखा एक दीपक झिलमिलाता
कह रही हैं दस दिशायें पिय आज मधु का पान कर लो
त्यागो सारे किन्तु अपने पिय आज खुद का ध्यान कर लो।।

हो कुपथ या फिर सुपथ हो, है कौन चल पाया अकेला
मौन रहकर भाव हिय के, है कौन कह पाया अकेला
गीत भी तब तक अधूरा जब तक के उसमें साज न हो
रागिनी भी है अधूरी जब तक के उसमें राग न हो।।

होता बहुत मुश्किल बताना घाव किससे है मिला तब
रिसते हुये कुछ जख्म देखे आइने में स्वयं के जब
क्या लिखे कविता किसी पर अरु किस विधा पर गीत लिखें
उँगलियाँ उठती रही हों स्वयं के ही किरदार पर जब।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12मार्च, 2022

संघर्षों का मान।

संघर्षों का मान।  

बस नारों अरु वादों से सम्मान कहाँ मिल पाया है
पग-पग संघर्ष किया जिसने मान उसी ने पाया है।।

संघर्षों ने इस जीवन की लिख डाली है नई कहानी
शाम उसी की शीतल है जिसने तपाई अपनी जवानी
केवल नारों उद्गारों से अधिकार नहीं मिल जाता है
कर्तव्यों की देहरी चलकर ही जीवन सुख पाता है।।

इतिहास मुखर है भारत का पग-पग कितना संघर्ष किया
अमरत की प्याली छोड़ी है घूँट-घूँट है गरल पिया
नीलकंठ जो बना उसी ने जीवन में पुष्प खिलाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

जाने कितने ही बलिदानों को इतिहासों ने भुला दिया
वो जाने क्या कुटिल व्यवस्था थी जिसने ऐसा काम किया
स्वार्थ शिखर पर बैठे सारे ऐसे सत्ता मद में झूल गये
जो भी, पथ सींचे स्वेद बूँद से उनका ही कद भूल गये।।

मत भूलो, जिनके बलिदानों ने वर्तमान पथ खिलाया है
काँटों का आलिंगन कर के, पुष्पों से पंथ सजाया है
बलिदानों के गीत लिखे जो पंथ-पंथ जिन्हें गाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

इक दो जीत-हार से जग में संघर्ष यहाँ कब बदला है
सिंहासन तक आ जाने से संपर्क कहो कब बदला है
जो भूल गये अपना अतीत तो मान नहीं टिक पायेगा
इतिहास हुआ जो धूमिल तो अस्तित्व सभी मिट जायेगा।।

संकल्पों के यग्य कुंड में कुछ आहुती सुनिश्चित कर लो
कर्तव्यों की ड्योढ़ी से पहले अपना प्रण निश्चित कर लो
कर्तव्य मार्ग पर चला वही, संकल्प वही जी पाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11मार्च, 2022


मन के सूनेपन को भाये ऐसा गीत चलो रच जायें।।

मन के सूनेपन को भाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

मन के सूनेपन को भाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

व्यर्थ नहीं हो जाये जीवन
मन का आँगन तन का उपवन
जगना रातों को घुट घुट कर
लिखना पलकों का सूनापन
पलकों के सूना मिट जाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

सुनना जग की बातों को क्यूँ
जिनका कुछ आधार नहीं है
चलना उन राहों पर क्यूँकर
जिनसे कुछ व्यवहार नहीं है
नयी राह जो स्वयं बनाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

दूर क्षितिज पर अपनी मंजिल
साथ-साथ चलना जब हमको
दूजे से नादान रहें क्यूँ
पग-पग मिलना है जब हमको
उपालंभ जग के त्यज जायें
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मार्च, 2022

दो बूँद प्रीत की छलकाओ।

दो बूँद प्रीत की छलकाओ।  

बहुत कह चुका अपनी बातें
तुम भी तो कुछ बात सुनाओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

उल्लासित लहरें सागर की
इक बूँद तरंगित धारा हूँ
आसमान में अनगिन तारे
माना मामूली तारा हूँ।।

तारों के भी रूप सुनहरे
ये चंदा को भी बतलाओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

बीत रहा पल पल ये जीवन
कहीं क्रंदन कहीं है गायन
कहीं बंद जीवन कोठर में
कहीं खुला मन का वातायन।।

सुख-दुख, क्रंदन अरु गायन का
जीवन में उद्देश्य बताओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मार्च, 2022


नारी।

नारी।   

कितनी रचनाओं से शोभित
भावों उद्गारों में मोहित
नारी तुम जग की आशा हो
नभ-तल की पुण्य जिज्ञासा हो।।

प्रतिपल अमृत का दान किया
अमरत्व सुयश प्रतिदान किया
तुमने जीवन के पग पग में
निज आशा का बलिदान दिया।।

तुम देवों की अमृत वाणी
तुम गंगा का निरमल पानी
तुम भाव प्रवण अनुशासन हो
तुम नैतिकता का शासन हो।।

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में
पग-पग पर चलता युद्ध रहा
कितनी ही घड़ियाँ ऐसी थीं
अंतस में नित्य विरुद्ध रहा।।

जीवन के भोजपत्र पर किन्तु
बस मृदु गीतों का गान लिखा
वेदों की सभी ऋचाओं ने
भी नारी का सम्मान लिखा।।

आँचल में आँसू के बदले
निज भाव मुखर रखना होगा
तुमको जीवन के संधिपत्र पर
अब प्रखर भाव लिखना होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मार्च, 2022

चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।

चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।  

रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

सिलवटें थीं कुछ हमारे बीच में उस रोज कैसी
चाह कर जिसको नहीं हम दूर कर पाए अभी तक
तारिकाओं ने गगन में उस रोज लिखा गीत एक
चाह कर उस गीत को अधरों पर न ला पाये अभी तक।।

पास रह कर दूरियों के कैसे थे बादल घनेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

अधजगी सी रात अपनी लिख रही थी इक कहानी
नींद पलकों पर रुकी थी ढूँढती अपनी निशानी
थी कही वो रात जग कर शब्द अंतस को छुये जो
टूटते तारों ने लिखी थी अनकही इक कहानी।।

जग रहे थे स्वप्न सारे पलकों पे कैसे अँधेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

और तुमको क्या लिखूँ मैं वेदना अपने हृदय की
न लिख सकूँगा पंक्तियों में दर्द के वो भाव सारे
रात भी अब सो चली है चाँदनी मद्धम हुई अब
चुभ रही हैं रश्मियाँ भी मौन है सारे सितारे।।

चाह कर भी लिख न पायीं पंक्तियाँ भी घाव मेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07मार्च, 2022




संवेदनाएँ।

🌹🌹🌹🌹गीत 🌹🌹🌹🌹

                 संवेदनाएँ।  

छोड़ कर के जा रहे हो मुझको यहाँ इस हाल में
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

दर्द के हर इक पलों में बस तुम्हारा साथ पाया
भीड़ हो या फिर अकेले इक तुम्हारा हाथ आया
छोड़ पर मुझको गए तुम काल के इस गाल में 
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

श्वास में अब भी महकता प्रीत का रस जो पिया था
आज भी अधरों पै ठहरा गीत जो तुमने दिया था
है बहुत मुश्किल कि गाऊँ  गीत मैं इस हाल में
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

गीत से अपने यहाँ ना कर सका कोई इशारा
दे सका ना मैं तुम्हें अहसास का कोई सहारा
वेदना के इन पलों ने कर दिया बेहाल मैं 
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        05मार्च, 2022

नीर मेरे मन को छलता है।

मेरे मन को नीर छलता है।  

जिसको तुमने गीत समझकर गाया गाकर मन बहलाया
गीत नहीं बस, भाव हृदय का पग-पग संग-संग चलता है
बूँद-बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

अनुवादों में घुली जा रही कितनी अमिट कहानी बोलो
अहसासों में मिली जा रही सपनों की रजधानी बोलो
सपनों की रजधानी में कुछ डंक हृदय को खलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

जीवन के प्रतिपल में हमने फैलायीं हैं अपनी बाहें
प्रतिपल सबसे न्याय किया है सम्पद हो या हो विपदाएँ
जाने फिर भी कसक हृदय में पल पल क्यूँ कर पलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

निज पलकों ने कब चाहा है अश्रु गिरें अकारथ बह जायें
अधरों ने कब चाहा बोलो शब्द कंठ में दब रह जायें
पैबंद लगे भावों में बोलो रिश्ता कब तक चलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

कहीं दिलासा कोई होता, निज भाव हृदय के कह पाता
कोई रखता शीश अंक में मेरे भावों को सहलाता
लम्हों के कुछ शब्दों से, शायद घाव हृदय के भर जायें
सदियों से बस यही भाव मन की गलियों में पलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मार्च, 2022

लेखन से व्यवहार करूँगा।

लेखन से व्यवहार करूँगा।  

इस जीवन के महासमर में ऐसे धैर्य धरूँगा मैं
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

और नहीं कुछ पास हमारे
जिसका मैं गुणगान करूँ
अँजुरी में कुछ शब्द पड़े हैं
जिन पर बस अभिमान करूँ
इन शब्दों की ढाल बना गीतों में व्यवहार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

धन-दौलत का जोर नहीं है
स्याही ही बस ताकत है
होगी धन की चाहत सबको
अपनी बस ये चाहत है
शब्दों अरु स्याही में घुल जीवन का उद्धार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

कलम नहीं ये शस्त्र हमारा
इसने केवल न्याय किया
जीवन के सब अध्यायों को
इसने ही अभिप्राय दिया
शब्दों में सिहरन भर कर भाव सभी स्वीकार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2022


युद्ध की विभीषिका।

युद्ध की विभीषिका।  

कैसे कैसे दृश्य दिख रहे देखो यहाँ तबाही के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

एक छोर पर इक दुनिया है
दूजी बैठी अलग छोर पर
धमकी देती एक खड़ी है
दूजी भी ताकत के जोर पर
दोनों के संवादों ने कहो कैसी आग लगाई है
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

अपने शर्तों पर हर कोई
दूजे को आदेश दे रहा
ऐसा लगता है वो मानो
दुनिया को संदेश दे रहा
सुनो, संदेशों में दोनों के शब्द भरे रुसवाई के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

मानवता की बातें सारी
बेमानी सी हुई जा रहीं
स्वार्थ शिखर पर बैठी दुनिया
पल पल जैसे गिरी जा रही
लगता जैसे होड़ लगी है ताकत के आजमाइश के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

नहीं कोई क्या बहुव्यापी
जिसको इस विष का भान नहीं
कलयुग के देवों को सच का
क्या सचमुच कुछ अनुमान नहीं
ऐसे ही कुछ और चला तो दृश्य दिखेंगे तबाही के
सदियाँ बिलखेंगी रह रह कर लम्हों में तन्हाई के।।

कैसे कैसे दृश्य दिख रहे देखो यहाँ तबाही के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2022

एक बूँद- निजता के पल का दर्द।

एक बूँद-निजता के पल का दर्द।

अंक में इक बूँद गिर कर भाव कैसे दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

क्या कहें अब शब्द खुलकर और क्या आवाज दें
खोई खोई जिंदगी को अब कहो क्या साज दें
तुम कहो थी चीज क्या हमको दगा जो दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

रात की गुमनामियों में साँझ का पल खो गया
बादलों के बीच जैसे चाँद जाकर खो गया
गा सके न गीत कोई एक कसक सी रह गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

कुछ घाव हैं दिल पर लगे चाहा पर न कह सका
अरु घाव के उस दर्द को चाहा बहुत, न सह सका
दर्द की वो टीस मन पर बोझ कितने दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

फिर रहा हूँ, अकेले मैं यहाँ तन्हाइयों में
खोजता हूँ स्वयं को स्वयं की परछाइयों में
था न जाने कौन सा पल आह दब कर रह गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01मार्च, 2022

वक्त की रेत पर निशाँ।

वक्त की रेत पर निशाँ।  

वक्त की रेत पर कुछ नये हैं निशाँ
कुछ है बात तेरे मेरे दरमियाँ
छोड़ कर मैं चलूँ तुम कहो किस तरह
नजर आ रहीं कैसी कहो बदलियाँ।।

आ जाओ यहाँ अब भी अहसास है
दूर हैं हम भले दिल मगर पास है
दूर से ही सही एक आवाज दो
सूने जीवन में फिर नया साज दो।।

फिर रचें गीत हम तुम नये, रीत का
भाव जिसमें हो भरा वही प्रीत का
फिर मिले हम वहीं, थीं जहाँ रश्मियाँ
वक्त की रेत पर कुछ नये हों निशाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी, 2022

आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

दिनकर का तेज नभ में जब तक ये रहेगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

माना घनेरे धुंध में बादल यहाँ घिरा
आस के आकाश से, पर विश्वास कब गिरा
जो  तने हैं दर्प में सूखे पेड़ की तरह
सब आँधियों के वेग से हैं टूट कर गिरा।।

अकड़े हैं यहाँ जो भी खबरदार करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

जो भी यहाँ पे राष्ट्र का अपमान करेगा
ना-पाक इरादों की जो भी बात करेगा
गायेगा जो कभी दुश्मनों के गीत यहाँ
अभिव्यक्ति के नामों पर उत्पात करेगा।।

ऐसे निठल्ले लोग को आगाह करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

घर-घर में राष्ट्रवाद गीतों में गूँजेगा 
भारत की माटी को हर कोई पूजेगा
जिसको भी ऐतराज हो चेतावनी यही
है वक्त सँभल जाओ, पांचजन्य बोलेगा।।

भारत प्रेमियों का सदा सम्मान करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

गूँजेगा गीत बस यहाँ भारत के नाम का
सदियों तक ऊँचा रहेगा मस्तक मान का
जब भी चलेंगी बातें कहीं स्वाभिमान की
चरचा वहाँ होगा बस भारत के नाम का।।

भारत के मान का सदा सम्मान करूँगा
आजाद था आजाद हूँ आजाद रहूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27फरवरी, 2022

पलकों से ही कह देना।

पलकों से ही कह देना।  

मुझको अपने दर्द का तुम बस इक टुकड़ा ही दे देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

जग के बहुतेरे फेरे कहाँ चलेंगे कहाँ रुकेंगे
खुद को भी मालूम नहीं लहरों के पग कहाँ रुकेंगे
लहरों ने जो पंथ चुना अविरल बहते जाना उसपर
ये अविरल पथ जीवन में अनुमानों के गीत रचेंगे।।

गीतों में जो भाव बुने मुस्काना अरु कह देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

उम्मीदों ने गीत लिखे हैं तारों की परछाईं में
चली चाँदनी आस ओढ़कर सपनों की अँगनाई में
मन को अपने आज मना लो ऋतुओं में रम जाओ तुम
खोल हृदय के द्वार बहो उन्मुक्त यहाँ पुरवाई में।।

मधुमासों के गीत सभी तुम अहसासों में कह देना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

मुझको अपना भाव बना लो या मुझमें घुल जाओ तुम
मुझको मिलने दो खुद से या मुझमें ही मिल जाओ तुम
दूर रहें फिर गीत नहीं, जो अधरों पर हैं सजे यहाँ
शब्द बनूँ मैं जो गीतों का भाव यहाँ बन जाओ तुम।।

अपने गीतों के भावों में मुझको तुम रख लेना
जो दर्द सहा न जाये तुमसे पलकों से ही कह देना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24फरवरी, 2022

घर में धर्म कहाँ से होगा।

घर में धर्म कहाँ से होगा।  

जब जब धर्म प्रभावित होगा
सोचो सत्कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

आवाजों के केंद्रबिंदु में
क्यूँ आवाज दबी रह जाती
ऐसा क्यूँ लगता है जग में
आह कंठ में दब रह जाती
नहीं मुखर होंगी जब आहें
फिर मुक्त कंठ कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

चहुँ ओर चीखती आवाजें 
कब तक मौन धरे बैठें सब
चीर खींचता दुःशाशन है
क्यूँ कर मौन धरे बैठे सब
जब तक न चीर सुरक्षित होगा
सोचो शर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अगणित शत्रु नजर गड़ाये
देख रहे हैं सुख शांती पर
अवसादों में स्वयं गड़े हैं
फैलाते मन में भ्रांती पर
जब कटुता का सागर विशाल
मन कहो नर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अब जितने शत्रु सीमा पर हैं
उससे ज्यादा भीतर बैठे
राष्ट्र भावना छलने खातिर
कदम कदम पर देखो ऐंठे
दीमक का साम्राज्य बढ़ा तो
सच्चा कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

अँधियारे में एक बिन्दु सी
दीपक रेख बना बैठी है
कैसे कह दूँ इस जीवन में
आशायें घबरा बैठी हैं
आशायें जब मुक्त नहीं हों
फिर सत्कर्म कहाँ से होगा
जिस घर सीता को न्याय नहीं
उस घर में धर्म कहाँ से होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22फरवरी, 2022

चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

जो था निश्चय यहाँ सब अधूरा रहा
आस का हर सफर भी न पूरा हुआ
धूप की अलगनी पर टँगे रह गये
दिन ने चाहा मगर कब पूरा हुआ।।

धूप सिमटी यहाँ बादलों में कहीं
कि चाह कर धुँधलका वो हटा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

नैन में स्वप्न आये मगर रुक गये
दो कदम चल न पाये मगर थक गये
जोहते ही रहे साँझ तक द्वार पर
रात की ओढ़नी ओढ़ कब खो गये।।

नैन पे स्वप्न आकर गिरे इस तरह
चाहा पर, नींद उसको बचा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

राह भर रोशनी खोजते ही रहे
जब मिली रोशनी राह ही थक गये
राह में फासलों से बिखर सी गयी
क्यूँ थकी राह, हम सोचते ही रहे।।

राह की करवटों में घिरे इस तरह
माथे की सिलवटों को हटा न सकी
अधलिखे गीत मन में छपे इस तरह
के चाह कर जिंदगी गुनगुना न सकी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22फरवरी, 2022

मन की वीणा।

मन की वीणा।   

संध्या के निज सूने पल में एकाकी हो चले हृदय जब
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

भावों के सागर में जब जब
लहरों का तूफान मचा हो
नैनों के कोरों पर जब जब
जीवन का अरमान रुका हो
नहीं किनारा भावों को जब लहरों से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

नदिया की धाराओं पर जब
कश्ती ये मचले अकुलाकर
ताने दे जब तीर नदी का
शब्द चुभे कानों में आकर
लहरों के फिर साथ बहो तुम नदिया से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर लो।।

अनायास जब लगे मचलने
भाव नजर की परछाईं में
विधना भी जब लगे बदलने
सहसा मन की अँगनाई में
अनुमानों से दूर निकलकर भावों से समझौता कर लो
कहती है मन की वीणा तब खुद से ही तुम बातें कर ले।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19फरवरी, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...