वीथियों में उलझा मन।
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।
नहीं कामना देखूँ तुझमें मैं नित नूतन रस धारा
मेरे नयनों को भाया प्रतिपल अल्हड़ रूप तुम्हारा
आस लगाये नैना प्रतिपल हर आती राह निहारें
उम्मीदें भी रहीं ढाँकती पल-पल ये जीवन सारा।।
उम्मीदों के साये में मन मचल-मचल कर छले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।
रखी सजा कर छवि तुम्हारी मन में बरबस झूम लिया
हर आहट को मैंने प्रतिपल पलकों से है चूम लिया
जितने गीत लिखे यादों के मैंने इस तन्हाई में
उन गीतों को अंग लगाकर सब अक्षर-अक्षर चूम लिया।।
मन के मौन समंदर में वो हलचल दे कर चले गये
कुछ बरसाये नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गये।।
मन में कितने झंझाओं ने पग-पग पर डेरा डाले
वीथियों पर व्योम की प्रतिपल थे कितने उल्का पाले
जितने प्रश्न उमड़ते मन में वो सारे रहे निरुत्तर
मन वीथी में अब तक उलझा है ढोये भाव निरन्तर।।
हाथ आहुती लेकर बैठे समिधाएँ पर सिमट गये
कुछ बरसाए नेह यहाँ पर कुछ तरसा कर चले गए।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
24मई, 2022
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