जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।
कुछ में भाव लिखे हैं अपने कुछ में दूजे भाव सजाये
फिर भी सोचा इस रंगमंच पे आऊँ मैं क्या-क्या बनकर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।
लेकिन जगती रंगमंच पर कैसा अभिनय करवाती है
भरती है उल्लास कभी औ कभी निराशा दे जाती है
कभी नटी सा जीवन लगता और कभी लगती मनमानी
फिर भी जाने क्यूँ लगती है ये दुनिया जानी पहचानी।।
अपने मन के भावों को कह लेता हूँ यूँ ही लिखकर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।
तुमसे ये जो मेल हुआ है यही भाव है यही प्रणय है
जगती के इस आडंबर में सत को समझे वही हृदय है
एक सत्य है एक प्राण है बहती जिसमें जीवन धारा
करता रहता जिसमें जीवन हर हिस्से का अभिनय सारा।।
भले दृष्टि में अभिनय है ये जीता हूँ मैं इसको मनभर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।
हैं हम सब किरदार जगत के मन ही अपना रंगमहल है
जिस पर सारा मंच सजा है ये जगती वो क्रीड़ाथल है
अपना अंश निभा लें जिसपल उन्हीं पलों में जीवन मूल
वरना जाने कौन यहाँ पर कब क्या हो जाये अगले पल।।
बीते पल की घोर निशा में फिर क्यूँ भटके मन घुट-घुट कर
जीत सकूँ चाहे ना जग को पर जी लूँ इसको जी भरकर।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08जून, 2022
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