झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।

झुलसाऊँ या फिर गीत गाऊँ।  

मैं इस जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

है, देव ने एक रूप दे मुझको निखारा
और भर कर भाव हृदय में उसको सँवारा
फिर दिए कुछ शब्द भाव अंतस के कहूँ मैं
जिसमें रच कर गीत मैंने प्रतिपल पुकारा।।

अब ये है मुझपर कि लिखूँ प्रेम के गीत मैं
या लिखूँ विरह के गीत औ ख़ुद को भुलाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

है कौन सी ये ज्वाल जगत में जल रही है
मोहती जो किसी को, किसी को खल रही है
मोहती बूँद कहते ओस के सब यहाँ पर
फिर किसी को बूँद ये भला क्यूँ खल रही है।।

जो लतायें झुक गयी हों ओस के निज भार से
उन लताओं को सँभालूँ या कहो भूल जाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

क्या नहीं फर्ज जानूँ पास में क्या हो रहा
जागता कौन पल-पल, कौन पल-पल सो रहा
कौन है जो जगत का भार काँधों पर लिये
कौन जगती के लिये आस पग-पग ढो रहा।।

क्या यही पुरुषार्थ है जो मिला हमको यहाँ
छोड़ दूँ तुम कहो या कहो इसको निभाऊँ
या फिर जगत के ताप में झुलसाऊँ खुद को
या किसी रमणी के संग-संग गीत गाऊँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14मई, 2022

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