तपन छाँव की।
उमड़-घुमड़ कर रह जाता है
चाहे कितनी बातें कहना
मगर नहीं कुछ कह पाता है
मन के सूनेपन को बरबस
छल जाए तब, छुअन छाँव की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।
मन जब विचलित प्रतिवादों से
ढूँढे रह-रह अनुवादों में
सूझे ना जब गति जीवन की
जब जीना मुश्किल अपवादों में
जीवन के हर पहलू में फिर
पल-पल ढूँढे नयन, छाँव की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।
गीतों में जब साज सजे, ना
अधरों पर जब राग सजे, ना
व्याकुल मन कुछ लिखना चाहे
पृष्ठों पर अल्फाज सजे, ना
तब गीतों की करुण साधना
ढूँढे कोई, कलम नाम की
बेबस मन कुछ कर ना पाये
तड़पाए जब तपन छाँव की।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
16अप्रैल, 2022
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