थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।
तूफानों में झंझाओं में या बेमौसम विपदाओं में
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।
निज पलकों के स्थापित सपने
विश्वासों में हो दृढ़ निश्चय
संकल्पित भावों का चंदन
आस अडिग हो अटल औ अक्षय
संदर्भों के भाव अलग हों मन ऐसा कहाँ विचार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।
कदम-कदम हों घातें कितनी
या उमस भरी हों रातें कितनी
ताप दिवस का गात जलाये
धूल भरी बरसातें कितनी
कंटक पथ-पथ बिछे हुए हों कब पग ने यहाँ विचार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।
तेरे स्वेद बूँद से सींची
बंजर धरती मुस्काई है
जब-जब तेरे कदम बढ़े हैं
बाँह स्वप्न की खिल आयी है
जब तेरे सारे सपनों को पलकों ने अंगीकार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।
तेरे पग की चिनगारी में
क्षमता, पथ रोशन करने की
तेरी दृढ़ता में वो बल है
निज संकट मोचन बनने की
तेज धार कितनी लहरों की कब तट ने है चीत्कार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।
जिस मिट्टी को तुमने सींचा
वो उपवन महकायेगी ही
मरुथल में भी तेरा उद्द्यम
जल बूँदें बरसायेंगी ही
तेरा तेज गगन तक छाया जब रवि ने है स्वीकार किया
थक कर हार मान ले जीवन कब राहों ने स्वीकार किया।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
09मई, 2022
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