प्रीत साँसों में उतरती।
शब्द अधरों पर सँभलकर
यद्दपि पलकों ने कहा कुछ
जब मिले फिर सोचना क्या
देख संध्या है मचलती
प्रीत साँसों में उतरती।।
साँस को छूती किरण ये
पंथ में बिखरे सुमन ये
याद के पट खोलते हैं
नैन के धुंधले सपन ये
स्वप्न पलकों में निखरती
प्रीत साँसों में उतरती।।
हो उजाला जब हृदय में
तब अँधेरे क्या करेंगे
आवरण कितने भले हों
मन को कहो क्या छलेंगे
तिमिर धीरे से सरकती
प्रीत साँसों में उतरती।।
है दिवस का खेल सारा
अंक में जाकर क्षितिज के
मौन कैसे छुप गया है
पाश में जाकर हरिज के
अंक में नव रीत भरती
प्रीत साँसों में उतरती।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
15अप्रैल, 2022
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