सपनों का क्या दोष।
चाहा बहुत पर कह न पाया।।
क्या अपराध कहूँ मैं अपना
पलकें निस दिन रहीं खोजती
दोषी है क्यूँ मन ये अपना
प्रतिपल बस ये रहीं सोचती।।
भ्रम में बिखरे भाव सभी थे
चाहा बहुत पर चुन न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।
सपनों को अभियुक्त बना कर
पलकों को कटघरा बना दूँ
इतना दोष नहीं है इनका
जिसकी खातिर इसे सजा दूँ।।
आकांक्षाओं का भार बहुत
चाहा बहुत पर सह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।
रहा व्याकरण से अनजाना
प्रतिपल मन संघर्ष किया है
नैनों के कोरों की बूँदें
प्रतिपल बस संघर्ष जिया है।।
चाहा कितना बूँद रोक लें
पलकें बहुत पर रह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।
क्या परिणति है उन सपनों की
नयनों में जो कभी सजे थे
इक मूरत जो बनी हृदय में
पलकों ने जो कभी गढ़े थे।।
सपनों का फिर दोष नहीं है
चाह के परिचय कह न पाया
पलकों पर कुछ स्वप्न सजीले
चाहा बहुत पर कह न पाया।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20मई, 2022
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें