तीन बाल कविताएँ।

तीन बाल कविताएँ

बिल्ली बोली म्यायूँ म्यायूँ
कौआ बोले काँव काँव
हाथी बोला सूंढ़ उठाकर
चलो घूमने गाँव गाँव।।1।।

बंदर मामा चले घूमने
ले झोला शॉपिंग मॉल में
देख मिठाई जी ललचाया
बैठ गए वहीं हॉल में।।

एक मिठाई उठा लिए जब
मालिक ने पैसा माँगा
मुँह चिढ़ा कर बंदर मामा
फिर झोला लेकर भागा।।2।।

लोमड़ मौसी चली घूमने
आज शहर की ओर
सूट बूट औ चश्मा पहने
लगीं खूब मचाने शोर।।

सुनकर शोर आयी पुलिस
डंडा लेकर हाथ में
और पकड़कर पुलिस ले गयी
उनको अपने साथ में।।

उठक बैठक उन्हें कराई
और फिर वसूली फीस
बेचारी कुछ कह ना पाईं
चुपचाप निपोरी खीस।।3।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2021


नूतन जीवन।

नूतन जीवन।  

साँसों पर कैसा पहरा है
संताप यहाँ क्यूँ गहरा है
क्यूँ जंजीरें है पैरों में
ये सन्नाटा क्यूँ पसरा है।

उम्मीदों के आकाशों पर
ये आशंका क्यूँ भारी है
क्यूँ सहमे सहमे लोग पड़े
है कैसी ये लाचारी है।

सन्नाटे अब चीख रहे हैं
आवाजें अब मौन पड़ी हैं
मंजिल मंजिल राह चली जो
अवरोधों में रुकी पड़ी है।

रुकी कहानी मध्यांतर में
उसको फिर से कहना होगा
अवसादों से बाहर आकर
नूतन जीवन रचना होगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2021


मौन मुसाफिर मेले में।

मौन मुसाफिर मेले में।  

इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।

इन राहों में भीड़ बहुत है
कहने को तो नीड़ बहुत है
बहुत दूर तक सफर घनेरे
मंजिल तक कितने हैं फेरे।
इन फेरों के चक्रव्यूह में
संग संग सबके मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

इच्छाओं का भार लिए सब
मंजिल मंजिल भटक रहे हैं
कुछ को छाँव मिली राहों में
कुछ तापों में चिटक रहे हैं।
धूप छाँव के खेल में घिरा
छोटी अभिलाषा मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

होंगे सबके लाखों सपने
है अपना बस अरमान यही
रहती दुनिया के गीतों में
हो छोटा सा ही नाम सही।
आशाओं के इस मेले में
इक दीप जलाए मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2021

नूतन इतिहास रचना है।

नूतन इतिहास रचना है।  

नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा
नहीं जानने की चाहत है
साथ हमारे कौन पलेगा।

अनजानी उन राहों में भी
कुछ तो सत्य छिपा होगा
राह भले दुर्गम हो कितनी
मौन कोई चला तो होगा।
दुर्गम देख राह जो बदली
फिर बोलो के कौन चलेगा।
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

अगणित प्रश्नों के नश्तर से
रुख अपना मोड़ नहीं सकता
नाकामी से डरकर के मैं
ये रस्ता छोड़ नहीं सकता।।
छोड़ दिया जो राहों को फिर
तुम ही बोलो कौन चलेगा
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

माना राहें ये मुश्किल हैं
पर इनपर तो चलना होगा
लोग चले हों पदचिन्हों पर
पदचिन्ह नया रचना होगा
इतिहासों को दोहराएँ तो
इतिहास नया कौन रचेगा
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14मई, 2021

दिल का दर्द।

दिल का दर्द।  

जग के तानों से आहत हो
पलकों से सागर बहता है
जब चोट हृदय पर लगती है
औ दंश हजारों सहता है
जब मन के भीतर शब्दों का
इक सागर मंथन करता है
तब दर्द उमड़ कर जगता है
दिल खुद से बातें करता है।।

अपने जब नाते तोड़ चलें
औ बीच राह जब छोड़ चलें
जब उम्मीदें बेमानी हों
जब बीती सभी कहानी हों
जब नींद आँख को छोड़ चले
सपने भी पलकें छोड़ चलें
मन गीत नया फिर रचता है
दिल खुद से बातें करता है।।

विरह वेदना के सागर में
अंतस का दीपक रोता है
जब चोट कहीं भी लगती है
और दर्द हृदय में होता है
जब शब्दों की फुलवारी से
कोइ मौन शब्द बिछड़ता है
तब पीड़ा सहने की खातिर
दिल खुद से बातें करता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13मई, 2021


तराना प्रेम का।

तराना प्रेम का।  

प्यार में दो कदम तुम चलो तो सही
बात दिल की कभी तुम कहो तो सही।
है ये वादा मेरा हर घड़ी साथ हूँ
कभी यूँ ही जरा तुम मिलो तो सही।।

प्रीत की रीत कितनी सुहानी यहाँ
लोकगीतों में सुनी कहानी यहाँ
हीर राँझा कहो सोहनी महिवाल
याद सबके लवों पर जुबानी यहाँ।।

चलो हम तुम गढ़ें इक नया प्रेम ग्रंथ
चलो हम तुम रचें इक नया प्रीत पंथ
जिसपे चल कर जहाँ ये सुहाना लगे
और गूंजे दिलों में नया प्रीत मंत्र।।

तुम चलो हम चलें फिर उसी राह पर
गीत नूतन लिखें हम उसी राह पर
हर लवों पर हमारे फसाने रहें
सदियों तलक गूँजते  तराने रहें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        13मई, 2021

पिता।

पिता।  

जिंदगी की धूप में चुपचाप कोई चल रहा है
देकर के हमको छाँव ताप में खुद जल रहा है।
चट्टान सा है सख्त पर भीतर से वो मोम है
पुण्यता का है प्रतीक और मंदिरों का ॐ है।
अनुभवों का ज्ञान है और प्रेम है विश्वास है
नन्हीं नन्हीं उँगलियों के आस का आकाश है।
रास्तों की धूप में वटवृक्ष की शीतल छाँव है
तूफानों को चीर दे उम्मीद की वो नाव है।
हालात कैसे भी रहे उफ नहीं करते यहाँ
पैर के छालों को हरदम फूल वो समझे यहाँ।
बैठ कर काँधों पे जिनके देखा है हमने जहाँ
स्वेद बूंदों से भी जिनके मृदुलता बरसे यहाँ।
मंजिलों को नापने को ताउम्र जो चलते रहे
औ जिनके काँधों पर मासूम स्वप्न पलते रहे।
जिनके पलकों की नमी देव भी न देख पाए
औ जिनके हौसलों को मुश्किलें न रोक पाए।
जिसने सिखलाया हमें के क्या बुरा है क्या भला
अनुभवों के छाँव तले वक्त जिनके हरदम पला।
जिसने सबको है सिखाया पंथ प्रतिपल जीत का
पाठ प्रतिपल है पढ़ाया मनुष्यता से प्रीत का।
जिसने सिखलाया है सदा मूल मंत्र बस कर्म का
जिसने दिखलाया है हमें राह प्रतिपल धर्म का।
उपनिषद हैं वेद हैं गीता का पूरा सार हैं
कहने को बस पंक्ति है पर शब्दों का संसार है।
संतान के सुख के लिए जो हर दर्द भूल जाते हैं
वो पिता ही हैं जो जिम्मेदारियाँ निभाते हैं।
जिसकी इक मुस्कान से ही खिल उठे सारे चमन
पिता के निश्छल प्रेम को शत शत है अपना नमन।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         12मई, 2021




अजनबी रात अपनी हो गयी।

अजनबी रात अपनी हो गयी।  

अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है
ख्वाब में थी बात की जो
बात अपनी हो गयी है।।

तुम जो आये जिंदगी में
ख्वाब में उड़ने लगे हम
साथ तेरे गीत कितने
प्रीत के बुनने लगे हम।
कल तलक जो दूर हमसे
साज अपने हो गए हैं।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

दो नैनों ने कह डाली
मन की वो सारी बातें
तुम बिन कैसे दिवस ढले
कैसे काटी हैं रातें।
कल तलक जो बेगानी थी
रात अपनी हो गयी है।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

चाहता है दिल हमारा
ये रात यूँ सजती रहे
चाँदनी का ये सफर अब
यूँ साथ ही चलती रहे।
दिल में अभी तक जो छुपे
राज अपने हो गए हैं।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10मई, 2021

राहों की धूल।

राहों की धूल।   

कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं
कभी न कहना उन बातों को
जिनका कोई मूल नहीं।।

सुन कर जन की विरह वेदना
मूक शब्द रह जाएं जब
और देख कर जन की पीड़ा
मौन नयन रह जाएं जब 
ऐसे व्यवहारों का जग में
रहता कोई मोल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

जग के सारे संतापों में
जिनको अवसर दिखता है
और जहाँ के अवसादों में
मौका अकसर दिखता है
उन लोगों से बचना जिनके
हृद में चुभती शूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

समय चक्र का खेल है सारा
कौन यहाँ कब रुकता है
आज चढ़े जो आकाशों पर
उनका सिर भी झुकता है
झुका शीश जो कभी कहीं तो
उसको समझो भूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

जीवन की गोधूली बेला 
कितना अनुभव देती है
पथ के सारे किंतु परन्तु को
वो संभव कर देती है
धूल नहीं माथे का चंदन
समझो इसको भूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मई, 2021

इक सरल अनुवाद

इक सरल अनुवाद।   

ढूँढता हूँ पंक्तियों में मोक्ष का संवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

यूँ लिखी सबने बहुत है जिंदगी की गीतिका
राह भी सबने दिखाई संग सबके प्रीत का
सत्य हैं सबके अलग पर मार्ग सबके एक हैं
चल रहे जिस पर सभी वो पंथ है पर जीत का।

ढूँढता हूँ पंथ में उस प्रीत का अनुनाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

सबकी अपनी है व्यथा सबके अपने रास्ते
कोई लिखता औरों पर कोई खुद के वास्ते
और कितनी बात कह दी छंद के आकार में
गीतों गज़लों में कही और कही व्यवहार में।

ढूँढता हूँ पंक्तियों में वो सकल संवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

मौन मैं भी लिख रहा हूँ पंक्ति में अपनी व्यथा
सत्य मानो तुम इसे या फिर इसे मानो कथा
रोज लिखता हूँ यहाँ मैं जिंदगी की एक गजल
और देखा खुद को जब पलकों को पाया सजल।

ढूँढता हूँ पलकों में गीतों का अभिवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 मई, 2021

नूतन प्रतिमान।

नूतन प्रतिमान।   

नवयुग का साक्षी बनने को
मौन अकेले आज चलाचल
स्थापित प्रतिमानों से आगे
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

मानवता की व्यापक दृष्टी
भावों में तू छलकाए जा 
संकीर्ण भाव परे त्यागकर
सबको हँसकर अपनाए जा।।

कालखंड का उद्देश्य यही
तू नूतन पथ गढ़े चलाचल
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

जन जन की पीड़ा को अपने
शब्दों में संयोजित करना
स्मृतियों के पुण्य लकीरों को
भावों में सुनियोजित करना।

हर हृद के भावों को पढ़कर
पुण्यश्लोक सम्मान गढ़े चल।
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

नित प्रति जीवन संघर्षों की
विराट कहानी लिखता है
जैसी दृष्टी डालो जग पर
वैसा ही जग दिखता है।

तोड़ यहाँ के किंतु परंतु सब
तू नूतन अनुमान गढ़े चल।
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07मई, 2021







चूल्हे में उल्लास।

चूल्हे में उल्लास।  

मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ 
घर की चकरी बंद पड़ी है
कैसा है वनवास यहाँ।।

पल पल कानों में जैसे
पदचाप सुनाई देती है
दूर दूर तक राहों में
बस आस दिखाई देती है।

आशाओं का झुरमुट है पर
सपनों का अवकाश यहाँ
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

भूखी प्यासी सड़क चली है
बंद गली थी आज खुली है
नन्हें नन्हें पैरों में भी
उम्मीदों की ओस घुली है।

पर पलकों के छाँव तले अब
आँसू को विश्राम कहाँ।
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

साँसों को आराम कहाँ अब
रह रह कर आती जाती हैं
इधर उधर फिरती रहती है
आराम कहाँ वो पाती है।

कितने घाव छुपा सीने में
राह चली अब मौन यहाँ।
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

इसका अंत कहीं तो होगा
मुक्त कंठ कभी तो होगा
कहीं मिलेगा ठौर ठिकाना
कोई तंत्र कहीं तो होगा।

जहाँ मिलेंगी खुशियाँ सारी
उम्मीदें औ उल्लास जहाँ
वहीं हँसेगी फिर से चिमनी
चूल्हे में उल्लास वहाँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2021





छोटी सी अरज।

छोटी सी अरज।  

आकाशों पर रहने वाले
चरण धूलि हम धरती के
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

युग जाने कितने बीत गए
हम भरे कहाँ जो रीत गए
युग युग का बस दरद यही है
हम लड़े यहाँ तुम जीत गए।।

तुम राजनीति के शीर्षपुंज
हम अदना दीपक धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के 
हम रहने वाले बस्ती के।।

बरसों से हमने वादों पर
पल पल विश्वास जताया है
तुम साथ चले या छोड़ दिये
हमने तो साथ निभाया है।।

तुम वादों के व्यापारी हो
हम अदना याचक धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

यूँ लोकतंत्र के मंदिर में
संवाद बहुत ही गहरे हैं
पर बरसों से लगता ऐसा
होठों पर कितने पहरे हैं।

व्योम पटल पर मुक्त प्रवाहक
हम मौन नियंत्रित धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

कभी हमारे साथ चलोगे
तब दरद हमारा समझोगे
मुक्त हृदय से कभी मिलोगे
तब मरम हमारा समझोगे।

विपुलता के शीर्ष बिंदु तुम
औ अकिंचन हम हैं धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2021



स्मृतियाँ।

स्मृतियाँ।  

धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।

मन का साथी ढूंढ रहा है
पहले वाला दीवानापन
और घटायें चाह रही हैं
फिर वैसा ही अपनापन।
लेकिन वही धुँधलका पसरा
जैसा पसरा बादल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।

बीते पल की कितनी बातें
रह रह मन पर छाती हैं
विरह, करुण, दारुण भावों से
अंतरमन को तड़पाती हैं।
अंतरमन की पीड़ाएँ अब
उकर चली हैं बादल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।

यादों ने भी पंख समेटे
पलकों की अँगनाई में
राह थकी अब चलते चलते
साँझ ढले परछाईं में।
गूँज रहे हैं मौन शब्द पर
स्मृतियों के मूक पटल पर
धीरे धीरे उतर रही है
साँझ समय के आँचल पर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अप्रैल, 2021



कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं।

कैसे तुम्हें मनाऊँ में।  

जाने कैसी है हलचल
व्यग्र हो रहा मैं पलपल
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं ।।

भाव हृदय में रह रहकर
हलचल नई मचाते हैं
रचता हूँ कुछ और यहाँ
और गीत रच जाते हैं
इन रूठे शब्दों को बोलो
कैसे आज बुलाऊँ मैँ।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ मैँ।।

अनजाना भय व्याप्त हुआ
किसने जाने किसे छुआ
संवादों पर ताले हैं
उर के फूटे छाले हैं
बाँध सबर का टूट रहा
जीवन जैसे रूठ रहा
टूट रहे सपनों को फिर
कैसे कहो सजाऊँ मैं।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं।।

कदम कदम पर क्रंदन है
मौन हृदय का नंदन है
कितने सपने खोएंगे
पलकें कबतक रोयेंगे
चीखूँ या अरदास करूँ
कैसे और प्रयास करूँ
कैसे दरद दिखाऊँ मैं
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ में।।

जो विलंब है आने में
तो इतना उपकार करो
जहाँ जहाँ तम गहरा है
वहाँ वहाँ उजियार करो
ऐसा दो वरदान मुझे
गीत नया कुछ रच जाऊँ
अँधियारे में दीप जला
मधुर रागिनी गाऊँ मैं।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अप्रैल, 2021

गीत खुशी के गाता हूँ।

गीत खुशी के गाता हूँ।  

सहमी सहमी आज पवन है
सहमी सभी दीशाएँ हैं
लेकिन इन सहमी राहों पर
मैं तो आता जाता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

आज रुका कल चल जाएगा
झुका कहीं फिर उठ जाएगा
थक कर बैठ नहीं सकता हूँ
मैं प्रतिपल चलता जाता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

बहती आँखों के आँसू का
अब मोल बहुत ही गहरा है
लेकिन हर पल इन आँसू पर
पलकों का मेरे पहरा है
पलकों के साये में प्रतिपल
मैं सारे भाव छुपाता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

कह दो तम से अँधियारों से
इन राहों के अंगारों से
आँधी से औ तूफानों से
कह दो सारे अवसादों से
अब नहीं कहीं घबराता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

जीवन की राहों में अब तो
अवसादों की बात पुरानी
मैंने इन गीतों में लिख दी
जीवन की इक नई कहानी
उम्मीदों की इस गाथा को
मैं पल पल अब दुहराता हूँ
मैं गीत खुशी के गाता हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       28अप्रैल, 2021




उजियारा तो होना है।

उजियारा तो होना है।  

माना रात अँधेरी है पर उजियारा तो होना है
उम्मीदें जब हमराही फिर काहे का रोना है।।

सपने तेरी आँखों में फिर से देखो खिल जाएंगे
पलकों से जो गिरे कभी तो कहो किधर फिर जाएंगे
बिछड़े आज पलक से तेरी लेकिन कल फिर आएंगे
जीवन का दस्तूर यही है कभी पाना कभी खोना है
माना रात अँधेरी है पर उजियारा तो होना है।।

जीवन मोती की माला है प्रतिपल एक तपस्या है
मानो तो ये अवसर है औ मानो तो एक समस्या है
जीवन की राहों में हमको हर सुख दुख अपनाना है
पल पल अश्रु बहाने से कब मिला यहाँ जो खोना है
माना रात अँधेरी है पर उजियारा तो होना है।।

पनघट की चिकनी राहों पर फिसले कितनी बार गिरे
कभी भरी सपनों की गागर और कभी अरमान गिरे
लेकिन अरमानों की खातिर गिरना और सँभलना है
जो मिला नहीं उसकी खातिर आज नहीं फिर रोना है
माना रात अँधेरी है पर उजियारा तो होना है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28अप्रैल, 2021




नई भोर बड़ी मतवाली है।

नई भोर बड़ी मतवाली है।  

रुक जाना नही घबरा कर तू शुरुआत अजब निराली है
बादल के पीछे जो छुपी नई भोर बड़ी मतवाली है।

कदम कदम अँधियारे कितने
तुझको राहों में टोकेंगे
औ जाने कितनी ही मुश्किल
तुझको बढ़ने से रोकेंगे।
लेकिन तुम झुक जाना ना चाहे रात भले ही काली हो
बादल के पीछे जो छुपी नई भोर बड़ी मतवाली है।।

साथ कोई आये न आये
राहों के तू साथ चला चल
नहीं किसी से कभी शिकायत
हँस कर तू सब ओर मिलाकर।
दूर क्षितिज के पार हँस रही उम्मीदों की लाली है
बादल के पीछे जो छुपी नई भोर बड़ी मतवाली है।।

माना तूफानों ने इस पल
तेरा रस्ता रोक दिया है
अनजानी पीड़ा ने तुझको
बढ़ने से अब रोक दिया है।
रात अमावस के आगे ही नव सपनों की दिवाली है
बादल के पीछे जो छुपी है नई भोर बड़ी मतवाली है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अप्रैल, 2021

आस का दीपक।

आस का दीपक।  

रात भर आस का दीप जलता रहा
रात गहरी मगर चाँद चलता रहा।।

द्वार पर नैन मेरे तुम्हें खोजते
रात पलकों में बीती तुम्हें सोचते
चाँदनी भी बदन ये जलाती रही
रात करवट में बीती तुम्हें सोचते
तुम न आये मगर वक्त चलता रहा
रात भर आस का दीप जलता रहा।।

रात भर मौन तुम गुनगुनाते रहे
हम भी यादों में तुमको बुलाते रहे
साँझ सा धुँधलका याद तेरी बनी
हम शाम से एक दीपक जलाते रहे।
साथ में लौ के मन ये मचलता रहा
रात भर आस का दीप जलता रहा।।

तुम कहीं रुक गए हम कहीं थम गए
रिश्तों की गर्मियाँ बर्फ से जम गए
साँस अपनी मगर मौन चलती रही
ना तुम कह सके कुछ न हम कह सके
काँपते होठों पर गीत चलता रहा
रात भर आस का दीप जलता रहा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25अप्रैल, 2021

भरत मिलाप।

भरत मिलाप।  

सुन के अवध वासी अपने प्रभु के आगमन की
नगर के द्वार सभी दीप बाती से सजा रहे
आँखों में चमक लेकर गीतों में खनक लेकर
मिल जुल पुर वासी सभी बधाई गीत गा रहे।

जिसे देखो व्यस्त है औ सारा नगर मस्त है
जन जन के होठों पे अब बस एक ही नाम है
बरसों से सूनी पड़ी थी अवध की नगरी ये
प्रभु के अवन से देखो बनी आज ये धाम है।

खग, मृग, जीव जंतु सभी आज मंत्र-मुग्ध देखो
गली-गली, नगर नगर मंगल गीत गा रहे हैं
सभी के होठों पर बस एक ही है गीत सजा 
जन जन के प्रिय श्री रघुवर आज घर आ रहे हैं।

नगर के द्वार पर भरत आज व्याकुल घूम रहे
रह रह मन के सब अपने भावों को दबा रहे 
मिलन में विलंब हुआ तो क्या मैं बताऊँगा
माता कौशल्या को कैसे मुँह दिखलाऊँगा।

यही दशा प्रभु जी के मन में भी है बनी हुई
विलंब हुई तनिक तो भरत को नहीं पाऊँगा
कितने कष्ट झेले हैं भरत ने वहाँ अकेले
कुछ हुआ उसे तो फिर माफ नहीं कर पाऊँगा।

अवध की सीमा पे पहुँचा जैसे वायुयान वो
सारा नगर खुशी हो के झूम झूम नाच उठा
बरसों से सोये हुए नगर के थे भाग जगे 
जैसे अँधियारे को चीर कर सूरज खिल उठा।

देख कर वेश भूषा भरत जड़ जैसे बन गए
सूर्य गगन चाँद तारे धरती पवन रुक गए
वक्त ने ये खेल निठुर कैसा खेला है यहाँ
झुकता था जग जिनसे आज वो खुद ही झुक गए।


कभी देखें दूजे को कभी देखें अपने को
झर झर नैनों से देखो बस अश्रुधार बह रहे।
होठ चुपचाप हैं दोनों ही भाइयों के मगर
अँखियों ही अँखियों से अपने दुख सभी कह रहे।

मेरी त्रुटी थी क्या जो मुझे ऐसे छोड़ दिया
जरा भी ना सोचा कैसे जिंदगी बिताऊँगा
एक कदम मैं कभी अबतक चला न प्रभु के बिना
बिन आपके कैसे कोई कर्तव्य निभाऊँगा।

आपकी खड़ाऊँ यही मेरी प्राण वायु बनी
इसके सहारे  मैंने सुख दुख सभी काटे हैं
कैसे बताऊँ प्रभु आपके बिना यहाँ मैंने
दिन रात अपने आँखों हि आँखों में काटे हैं।

क्या हुई थी भूल मुझसे जो मुझे ये सजा दी
अपनी सेवा से मुझे आपने वंचित कर दिया
पिछले जनम की कोई ऐसी भूल थी मेरी
जिसकी सजा में प्रभु आपने मुझको त्याग दिया।

सुन कर भरत के शब्द प्रभु भाव विह्वल हो गए
उठा के चरणों से अपने फिर उर से लगा लिया
कैसे कहूँ तुम बिन कैसे बिता है ये पल पल
लगता था जैसे मैंने खुद को ही सजा दिया।

बिन भाई पूछो नहीं जीवन ये कैसे जिया
शरीर तो साथ रहा पर प्राण तेरे पास था
लखन जो आँखे मेरी शत्रुघ्न भुजाएँ मेरी
पर प्राण मेरे भाई तुम्हारे ही पास था।

मौन बात कर रहे सामने से दोनों भाई
देख देख देवता भी सारे विह्वल हो गए
देख कर प्रेम ऐसा दोनों भाइयों के बीच
अवनी, अंबर, चाँद-तारे पल भर को थम गए।

बरसों का खालीपन आज देखो भरने चला
यही सोच सोच के अवधवासी आज खिल रहे
वियोग से मिला कष्ट अब आज मिटने चला है
चारों ही दिशाएँ जैसे आज यहाँ मिल रहे।

सारे जन हर्षित है औ भाव भाव पुलकित है
बरसों के बाद देखो अवध के भाग खिल रहे
काले बादल जो भी छाए थे इस नगरी पे
धीरे धीरे आज वो बादल काले खुल रहे।

खड़े खड़े दोनों भाई देखते दूसरे को
लगता कि जैसे दोनों दो बदन एक प्राण हैं
चाहे साँस चल रही है दोनों की भले अलग 
लेकिन दोनों भाई इक दूसरे की जान हैं।

दोनों भाइयों के मन इक अंतर्द्वंद चल रहा
एक दूसरे से कैसे बात अपनी वो कहें
कहने को कितनी ही बातें सारी उनकी हैं
सोच यही मन में कि बात कैसे और कब कहें।

देख मनोदशा भरत की प्रभु बाँह फैला दिए
पैरों पे झुके भरत तो सीने से लगा लिए
बरसों का दुख सारा इक पल में ही खतम हुआ
सदियों का तप सारा जा के अब सफल हुआ।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अप्रैल, 2021

विकलाँगता- अभिशाप नहीं।

विकलाँगता- अभिशाप नहीं।  

दौड़ नहीं सकता सब जैसा
लेकिन दूर मुझे भी जाना है
जैसा सब जन ने पाया है
मुझको भी मंजिल पाना है।

कमजोरी अभिशाप नहीं है
इसको वरदान बना लूँगा
अपने हिम्मत औ ताकत से
अपने अरमान सजा लूँगा।
लिख सकता इतिहास नया मैं
ये दुनिया को दिखलाना है।
दौड़ नहीं सकता सब जैसा
लेकिन दूर मुझे भी जाना है।।

अहसानों का पात्र न समझो
मुझको किंचित मात्र न समझो
इस शारीरिक कमजोरी को
तुम कोई अभिशाप न समझो।
बिना सहारे बैसाखी के
अब मंजिल मुझको पाना है
दौड़ नहीं सकता सब जैसा
लेकिन दूर मुझे भी जाना है।।

माना मैं कुछ कमजोरी है
मजबूत हौसला है मेरा
गढ़ने को आकाश यहाँ है
अब यही फैसला है मेरा।
कमजोर नहीं मैं दुनिया मे
ये दुनिया को बतलाना है।
दौड़ नहीं सकता सब जैसा
लेकिन दूर मुझे भी जाना है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अप्रैल, 2021


प्रेम गीत।

प्रेम गीत।  

हँसते फूल चुने हैं मैंने
तुम उनको लेने आ जाना
अपनी मोहक मुस्कानों से
अंतरतम तक तुम छा जाना।

कोमलता का चरम बिंदु तुम
सहज प्रेम का परम सिंधु तुम
तुम हो जीवन की उज्ज्वलता
मधु भावों का केंद्र बिंदु तुम।
मेरे अंतस के भावों में
तुम अपने भाव मिला जाना
हँसते फूल चुने हैं मैंने
तुम उनको लेने आ जाना।।

मृदु पंकज पलकों पर तेरे
उज्ज्वल सूरज का प्रकाश है
और मधुर अवयव में तेरे
मृदुल भावों का आकाश है।
मेरे मृदु भावों में अपना
तुम मृदु मधुमास मिला जाना।
हँसते फूल चुने हैं मैंने
तुम उनको लेने आ जाना।।

अंग अंग तेरे दिव्य निखिल
नवजीवन की तुझमें क्षमता
सकल प्रभावित पुण्य पुंज तुम
तृण तृण तुझमें है प्रियता।
मेरे अंतस के प्रियतम से
प्रिय अपना प्रेम मिला जाना
हँसते फूल चुने हैं मैंने
तुम उनको लेने आ जाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अप्रैल, 2021




दोष।

दोष।  

नजदीकियाँ यूँ तो बहुत थी
फिर दूरियाँ कैसे बनीं
थी चाहतें दोनों तरफ जब
फिर बात इतनी क्यूँ ठनी।।

यूँ तो सफर सीधा हमारा
औ मंजिलें भी एक थी
औ रास्तों पर रोक बहुत थे
पर भावनाएँ नेक थीं।।

जाने कब छूटा तुम्हारा
ये हाथ मेरे हाथ से
और टूटा मोह का धागा
छोटी सी किसी बात से।।

पर साथ तेरा छूटने का
सब दोष मुझ पर मढ़ गया
औ जाने कितने शब्दों से
आरोप मुझपे गढ़ गया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 अप्रैल, 2021









अवधी गीत-वन जिन जाइहा।

 अवधी गीत-  वन जिन जाइहा।  

हे भइया तू वन जिन जाईहा
हे भइया तू वन जिन जाइहा।

बिन तोहरे निक नाहि लागे 
सूरज, चंदा, तारे हो 
बिन तोहरे निक नाहि लागे 
सूरज, चंदा, तारे
तोहसे ही सब जुड़ल इहाँ है
औ सब हउए तोहरे सहारे
तोहरे बिना नदिया सुनी
बहे कइसे ई पुरवइया
हे भइया तू वन जिन जाइहा।।

तोहसे ही है दिनवा हमार 
सुबह, दोपहर, रतिया, हो
तोहसे ही है दिनवा हमार 
सुबह, दोपहर, रतिया
बिन तोहरे हम केसे बोलब
अपने जिउ के बतिया
तोहके देखे बिना मुश्किल हौ
मुश्किल हौ रहवइया।
हे भइया तू वन जिन जाइहा।।

हम सबके बस तू ही देवता
तू हउआ भगवान, हो
हम सबके बस तू ही देवता
तू हउआ भगवान।
बिन तोहरे कुछ कइसे समझब
तोहपे हौ अभिमान
तोहसे ही सब ज्ञान ध्यान हौ
तू ही हउआ हमार खेवइया
हे भइया तू वन जिन जाइहा।।

जो तू जाइबा जंगल मां 
तो हमहू सङ्गे जाइब, हो
जो तू जाइबा जंगल मां
तो हमहू सङ्गे जाइब।
रतिया दिनवा सेवा करब
जिनगी सङ्गे बिताइब।
बिन तोहरे मुश्किल हौ जीवन
तू ही संगी, साथी, भइया
है भइया तू वन जिन जाइहा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अप्रैल, 2021




मूल मंत्र।

मूल मंत्र।  

काल के भाल पर अमर ग्रन्थ एक है
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

राष्ट्र के प्रतीक वो धर्म की नीति वो
भाव की प्रधानता नेत्र की ज्योति वो
सबको सूत्र में गुहे जो तंत्र वो एक है
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

पंथ पंथ मुक्ति है मुश्किलों में युक्ति है
मार्ग के अवरोध में बस वही शक्ति है
सर्वोच्च का प्रमाण जो पंथ वो एक है
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

मंत्र मंत्र ज्ञान है हर शब्द में विज्ञान है
प्रवाह के प्रतीक वो राष्ट्र की शान हैं
काल के प्रभाव का मुक्ति मंत्र एक है
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

सत्य के लिए चले सत्य के लिए जले
सत के विस्तार को मोम बन जो गले
खुद जले ताप में जग के चन्द्र एक हैं
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

जग के लिए लड़े कदम कदम रहे खड़े
जीते हर युद्ध  हारे जब खुद से लड़े
रिश्तों में प्रीत का दिव्य मंत्र एक है
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

फूलों से पाँव थे शूल पर चले मगर
छोड़ करके सुख सभी दर्द को चुने मगर
ताप में भी शीत का मुख्य मंत्र एक है
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

सृष्टि के प्रसार ब्रह्मांड का विस्तार वो
कण कण तारे जो मोक्ष का व्यवहार वो
मोक्ष के मार्ग का मुख्य पंथ एक है
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

प्रेम के प्रतीक वो सद्भाव की रीत वो
सत का प्रतीक औ विश्वास की जीत वो
हृद को शांति दे वो राम मंत्र एक है
रूप हैं अनेक पर मूल मंत्र एक है।।

©️✍🏻अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20अप्रैल, 2021

किससे बोलूं ?

किससे बोलूँ ?

क्या मुझको अधिकार नहीं 
अपने मन की मैं बोलूँ
घाव लगे जिन शब्दों से
उनकी पीड़ा को खोलूँ।।

मेरे नभ के आँगन में
भोर रश्मि सा तुम चमके
इस अँधियारे जीवन में
बिजली बनकर तुम दमके।
पर तुमसे जो रात मिली 
उसको मैं किससे बोलूँ
क्या मुझको अधिकार नहीं
अपने मन की मैं बोलूँ।।

तुमको सुनने की खातिर
मौन रहा मैं कितने पल
लेकिन तेरी बातों से
छला गया हूँ मैं प्रतिपल।
मौन सभी उन बातों को
बोलो मैं किससे बोलूँ।।
क्या मुझको अधिकार नहीं
अपने मन की मैं बोलूँ।।

स्वप्न दिखा उजियारे के
अँधियारे में छोड़ दिया
तुमने झूठे वादों से
मेरे मन को तोड़ दिया।
टूटे मन की पीड़ा को
तुम बोलो किससे बोलूँ
क्या मुझको अधिकार नहीं
अपने मन की मैं बोलूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19अप्रैल, 2021

गीत मैं कैसे गाऊँ।

गीत मैं कैसे गाऊँ।  

आज हृदय की पीड़ा को कैसे तुम्हें सुनाऊँ बोलो
बिखरे बिखरे सुर हैं मेरे गीत मैं कैसे गाऊँ बोलो।।

मैंने पलकों के आँचल में
कितने अश्रु छुपा रखे हैं
अपने अंतस के कोने में
कितने भाव दबा रखे हैं।

अंतस के उन भावों को कैसे तुम्हें बताऊँ बोलो
बिखरे बिखरे सुर हैं मेरे गीत मैं कैसे गाऊँ बोलो।।

जाने कैसी हवा चली है
संबंधों से प्रीत ढही है
भ्रम के इतने जालों में
कौन बताए कौन सही है।

सही झूठ के ताने बाने कैसे मैं सुलझाऊँ बोलो
बिखरे बिखरे सुर हैं मेरे गीत मैं कैसे गाऊँ बोलो।।

जिधर भी देखो दर्द दिख रहा
उम्मीदों में फर्क दिख रहा
जाने कैसी पीड़ा पसरी
पग पग जीवन सर्द दिख रहा।

सर्द हो रहे इस जीवन में जोश मैं कैसे लाऊँ बोलो
बिखरे बिखरे सुर हैं मेरे गीत मैं कैसे गाऊँ बोलो।।

दूर तलक अँधियारा घेरा
बस दिखता पत्थर का फेरा
गीली लकड़ी सूखे चूल्हे
अंतस का कब मिटे अँधेरा।

बिखरे अँधियारे में खुद को कैसे मैं बहलाऊँ बोलो
बिखरे बिखरे सुर हैं मेरे गीत मैं कैसे गाऊँ बोलो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अप्रैल, 2021




रात भर।

रात भर।  

अँधियारे दुख के बादल में
सुख का दीपक जला रात भर
पसरी पीर हृदय में लेकिन
मलहम बनकर घुला रात भर।

व्याकुल मन का ये पंछी
इत उत डाली घूम रहा
मन में लाखों प्रश्न लिए
खुद अपने से पूछ रहा।
कितने ही प्रश्नों में उलझा
फिर भी हँसता रहा रात भर
अँधियारे दुख के बादल में
सुख का दीपक जला रात भर।।

सूनी डगर मन बना मुसाफिर
पग पग मंजिल ढूंढ रहा
टिम टिम तारों के प्रकाश में
अँधियारों से जूझ रहा।
जूझ रहा अपने भीतर भी
डग डग लेकिन चला रात भर
अँधियारे दुख के बादल में
सुख का दीपक जला रात भर।।

चाँद मुसाफिर बना रात भर
तारों ने भी साथ दिया
रात घनेरी कितनी भी थी
सपनो का मधुमास दिया।
सपनों का सूरज पाने को
चंदा पग पग चला रात भर।
अँधियारे दुख के बादल में
सुख का दीपक जला रात भर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16अप्रैल, 2021

एक बहाना।

एक बहाना।  

तुमसे मिलने का जबसे बहाना मिला
मेरे दर्द को भी एक ठिकाना मिला।।

यूँ भी ताउम्र किस्मत से लड़ना ही था
मुकद्दर को भी इक बहाना मिला।।

मुहब्बत, अदावत, शराफत,  बेकसी
कहने को सही एक फसाना मिला।।

तेरे मेरे दरम्यान कुछ तो था जुरूर
ज़माने को यूँ ही नहीं ये बहाना मिला।।

भूल चुका अब जमाने के वो रंजो गम
एक तुम मिले मुझको जमाना मिला।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
 हैदराबाद
 14अप्रैल, 2021

जीवन बीता जाता है।

जीवन बीता जाता है।  

छिन पल छिन जीवन के
धीरे धीरे बीत रहे हैं
मृद मधु मेरे मधुवन के
रह रह कर रीत रहे हैं।

तेरे पदचिन्हों ने प्रतिपल
मुझको पंथ दिखाया था
कोटि कोटि अवरोध भले थे
प्रतिपल राह सुझाया था।
बिन तेरे वो पंथ सभी अब
रह रह कर बीत रहे हैं।
मृद मधु मेरे मधुवन के
रह रह कर रीत रहे हैं।।

बहुत चला औरों की खातिर
अब साथ तुम्हारे चलना था
बहुत सुनी औरों की बातें
अब बात तुम्हारी सुनना था।
कहने सुनने की ये बेला 
तुम बिन अब बीत रहे हैं।
मृदु मधु मेरे मधुवन के
रह रह कर रीत रहे हैं।।

हार जीत का खेल है जीवन
कभी हारे कभी जीत गए
संग तुम्हारे कितने ही पल
हारे फिर भी जीत गए।
बिन तेरे वो सारी खुशियाँ
अब मेरे मनमीत रहे हैं।
मृद मधु मेरे उपवन के
रह रह कर रीत रहे हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13अप्रैल, 2021



नव संवत्सर।

नव संवत्सर।  

सौम्य मनोहर नव संवत्सर
नूतन भाव पुण्य संवत्सर
हृदय हृदय नव पुष्प खिले
शुभम करोति भाव संवत्सर।

सर्व जगत नव मंगल कारिणी
कर कमल हृद पुण्य विचारिणी
सद्विचार पोषक जन तारक
जन गण मन सर्व दुख हारिणी।

पग पग गुंजित वीणा के स्वर
ज्ञान ध्यान भाव हो उच्चतर
तम हारिणी प्रकाश संवाहक
जन जन तारक नवसंवत्सर।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13अप्रैल, 2021

राह दिखाने आ जाना।

राह दिखाने आ जाना।  

कितना सूना सफर यहाँ है
साथ निभाने आ जाओ
भूल नहीं जाऊँ मैं पथ को
राह दिखाने आ जाओ।

चला अकेला बहुत अभी तक
और नहीं चल पाऊँगा
जीवन की मुश्किल राहों पर
कैसे खुद को पाऊँगा।
मुझसे मेरा नाता कैसा
ये बतलाने आ जाओ।
भूल नहीं जाऊँ मैं पथ को
राह दिखाने आ जाओ।।

अंतस के भावों को समझो
कब तक मौन रहूँ बोलो
कब तक बंद रखूँगा दिल को
तुम ही अब इसको खोलो
व्यथा हमारे मन की समझो
इसको सुलझाने आ जाओ
भूल नहीं जाऊँ मैं पथ को
राह दिखाने आ जाओ।।

मेरे मन का पनघट सूना
भाव अधूरे सरगम सूना
सूनी है सरिता की धारा
तुम बिन ये मधुवन है सूना
सूने अंतस के आँगन में
दीप जलाने आ जाओ।
भूल नहीं जाऊँ मैं पथ को
राह दिखाने आ जाओ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12अप्रैल,2021


मैं से मैं का सफर।

मैं से मैं का सफर।  

आज चला मैं मुझे ढूँढने
कितना दूर मुझे जाना है
अंतहीन राहों पर कब तक
मुझको यूँ चलते जाना है

मैं से मैं का शुरू सफर ये
मैं से मैं को अब पाना है
आज चला मैं मुझे ढूँढने
कितना दूर मुझे जाना है

प्रतिपल मैं के साथ रहा मैं
पर मैं कब पहचान सका
जग की कितनी बातें समझा
पर मैं को कब जान सका

त्याग दिया सब किंतु परन्तु 
बस मैं से मैं तक जाना है
आज चला मैं मुझे ढूँढने
कितना दूर मुझे जाना है।

मैं से मैं का छिड़ा द्वंद्व यह
आखिर कब तक यहाँ चलेगा
जान नहीं पाया जिस मैं को
मैं वो जाने कहाँ मिलेगा
उस मैं को पाने की खातिर
मुझको मैं तक जाना है
आज चला मैं मुझे ढूँढने
कितना दूर मुझे जाना है

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        12अप्रैल, 2021


थोड़ी दूर भोर है बाकी।

थोड़ी दूर भोर है बाकी।  

पग पग डग डग चलता जा तू
कदम कदम यूँ बढ़ता जा तू
कितना कुछ है पाया तुमने
कितना कुछ पाना है बाकी।
थोड़ी दूर भोर है बाकी।।

अँधियारा अब दूर हो रहा
दूर क्षितिज पर सूर्य दिख रहा
हटा रहा बादल का घूँघट
थोड़ा और हटाना बाकी।
थोड़ी दूर भोर है बाकी।।

चलते पथ में रुकना कैसा
बाधाओं में झुकना कैसा
उम्मीदों ने राह पकड़ ली
चली बहुत, कुछ और है बाकी।
थोड़ी दूर भोर है बाकी।।

पाने को सम्मान बहुत है
गढ़ने को प्रतिमान बहुत है
पथ के कंटक फूल बन रहे
धुंध छँटे कुछ और है बाकी।
थोड़ी दूर भोर है बाकी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11अप्रैल, 2021


किरण प्रभाती।

किरण प्रभाती।  

किरण प्रभाती रवि के रथ से
प्रतिदिन उल्लासित करती है
मन में नूतन भाव जगाकर
नव भाव प्रभासित करती है।

अलसाई सुबह में इसको
चेतन, हुलास भरते देखा
जग के झंझावत में इसको
नूतन विलास भरते देखा।

आकांक्षा, उत्साह प्रेम का
नव भाव दिलों में भरती है।
किरण प्रभाती रवि के रथ से
प्रतिदिन उल्लासित करती है।।

भिन्न भिन्न व्यवहार यहाँ हैं
भिन्न भिन्न आधार यहाँ
भिन्न भिन्न हैं मूल सभी के
भिन्न भिन्न सत्कार यहाँ।

एक सूत्र सब भाव पिरोकर
जग अनुशासित करती है।
किरण प्रभाती रवि के रथ से
प्रतिदिन उल्लासित करती है।।

नहीं निराशा का भाव कभी
ये मन में जगने देती 
कुण्ठा या अवसाद कभी भी
मन में ना पलने देती।

देती सबको ज्ञान मनोहर
दिवस प्रकाशित करती है
किरण प्रभाती रवि के रथ से
प्रतिदिन उल्लासित करती है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09अप्रैल, 2021





जो आते इक बार यहाँ।

जो आते इक बार यहाँ।  

कितने बादल छँट जाते
कितने सपने खिल जाते
अपने कितने मिल जाते
जो आते इक बार यहाँ।

बिखरी माला सिल जाती
बिछड़ी राहें मिल जातीं
उपवन फिर से खिल जाता
जो आते इक बार यहाँ।

कितने उत्तर मिल जाते
घाव पुराने सिल जाते
अवगुंठन सब खुल जाते
जो आते इक बार यहाँ।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2021

मन-उपवन।

मन-उपवन।  

पुष्पित अधरों के कंपन में
मुखरित है प्रिय स्वप्न सुनहरे
अंतस के उपवन में गुंजित
मोहित मधुमय गान मनहरे।।

लुक छिप करती पलकें तेरी
नयनों की गुपचुप मुस्कान
नवल भाव उद्दवेलित करतीं
भरतीं हिय में नूतन प्राण।।

मेरे मुस्कानों के पथ में
तुम ही संगी तुम आधार
तुमसे मधुवन सुरभित है ये
तुम ही जीवन का आकार।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06अप्रैल, 2021




शब्द की भूमिका।

शब्द की भूमिका।  

भावनाओं के समर में शब्द की है भूमिका
शब्द का आशय भले लघु भाव विस्तृत प्रीत का।

कौन हृदय ऐसा है यहाँ प्रीत न जिसके पले
ढाई आखर प्रीत का ये पंथ जिसके न मिले
जो हिय है श्वेत वसन तो प्रीत ही है तूलिका
भावनाओं के समर में शब्द की है भूमिका।।

सृष्टि का आधार है ये प्रीत ही आकार है
प्रेम पावन हृद पले जो बस वही व्यवहार है
शब्द सिंधु जो उत्तम गढ़े बस वही शुचि गीतिका
भावनाओं के समर में शब्द की है भूमिका।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अप्रैल, 2021

नव प्रभात आशाभिलाष

नव प्रभात आशाभिलाष।  

नव प्रभात आशाभिलाष
सुरभित पुलकित महाकाश
उर उर स्पंदित नव चेतन
सुभग मनोहर मोहपाश।।

प्रबुद्ध शुद्ध वातायन करती
मानव मूल्य चेतना भरती
करती आशा का विकास
नव प्रभात आशाभिलाष।।

शीतल सौम्य दृश्य मनभावन
कानन कानन समुचित पावन
भावों में विस्तृत प्रकाश
नव प्रभात आशाभिलाष।।

मधु सुरम्मित नव नभ सुष्मित
हर्षित, पुलकित हिय आह्लादित
आच्छादित नव मधु प्रकाश
नव प्रभात आशाभिलाष।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05अप्रैल, 2021


प्रणय मिलन।

प्रणय मिलन।

मधुर मधुर कुछ गा मेरे मन
प्रणय मिलन की बेला में
लाजारुण पलकों से निखरे
सौम्य समर्पित बेला में।।

रात्रि की एकांत बेला 
औऱ ये रिमझिम घटायें
बन के बरसे प्रीत ऐसे
रात्रि भी पथ भूल जाये।

भूल जाये मुग्ध हो मन
प्रणय पुंज की बेला में।
मधुर मधुर कुछ गा मेरे मन
प्रणय मिलन की बेला में।।

लाज का गहना तुम्हीं हो
प्रीत का श्रृंगार हो तुम 
तुम हृदय की पूर्णता हो
मधुमास का मनुहार तुम।

पुण्यता की पूर्णता हो
प्रेम मिलन की बेला में।
मधुर मधुर कुछ गा मेरे मन
प्रणय मिलन की बेला में।।

चाँदनी का मौन पथ तुम
पल रहा जिस पर सवेरा
भोर की शीतल किरण तुम
आस का जिस पर बसेरा।

आस का निर्माण हो फिर 
प्रणय मिलन की बेला में।
मधुर मधुर कुछ गा मेरे मन
प्रणय मिलन की बेला में।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04अप्रैल, 2021


जीत या हार।

जीत या हार।  

तुम्हें हराया जब भी मैंने
खुद को भी तो हार गया
जो भी दाँव चला था मैंने
खुद मेरे मन के पार गया।।

कौन पराया अपना क्या है
बीच भँवर जब नौका ठहरी
भूल नहीं पाया उस पल को
क्षण भर जब उम्मीदें ठहरी।

ठिठक गया मैं भी उस पल को
जब दाँव सभी बेकार गया।
तुम्हें हराया जब भी मैंने
खुद को भी तो हार गया।।

भुला नहीं सकता हूँ वो क्षण
जब जीता फिर भी हारा था
अपनेपन से लड़ा बहुत मैं
तब जाकर स्वीकारा था।

जीत गया तुमसे मैं लेकिन
अपना सब कुछ हार गया।
तुम्हें हराया जब भी मैंने
खुद को भी तो हार गया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03अप्रैल, 2021




बिछोह।

बिछोह।   

मुझे पता था तुमको खोकर
एक कदम ना चल पाऊँगा
बिछड़ा तुमसे कभी कहीं तो
खुद से भी ना मिल पाऊँगा।।

मंजर मंजर गाया तुमको
औ महफ़िल महफ़िल पाया है
मैंने जीवन के हर पथ में
बस तुमको ही अपनाया है।

तुम मेरे गीतों की सरगम
तुम बिन ना मैं गा पाऊँगा
बिछड़ा तुमसे कभी कहीं तो
खुद से भी ना मिल पाऊँगा।।

तुम बिन साँस अधूरी मेरी
तुम बिन है एकाकी जीवन
तुम बिन मैं अनजाना खुद से
तुमसे जग के सारे बंधन।

खोया तुमको कभी कहीं तो
मैं खुद को भी ना पाऊँगा।
बिछड़ा तुमसे कभी कहीं तो
खुद से भी ना मिल पाऊँगा।।

जो ये जीवन बहता दरिया
तो तुम हि इसकी रवानी हो
इन साँसों ने जिसे सुनाया
तुम ही वो अमिट कहानी हो।

तुम लफ्जों की पुण्य प्रेरणा
तुम बिन ना कुछ कह पाऊँगा।
बिछड़ा तुमसे कभी कहीं तो
खुद से भी ना मिल पाऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03अप्रैल, 2021








अन्वेषण।

अन्वेषण।   

अपना मन दर्पण चिर परिचित
इसमें कितने शब्द तरंगित
नित नूतन हैं भाव पनपते
जो करते अंतस प्रतिबिंबित।

पग पग स्वर्गिक स्वप्न शिखर
मदिर मधुर औ कभी मुखर
पलकों पर इंद्रधनुषी छाया
शनैः शनैः हो रहे निखर।

मन कितने भावों का पोषण
उर उर करते रहते घोषण
शुद्ध भाव अंतर्मन चित्रित
सिद्ध जगत करता अन्वेषण।

अंतस में जो उठे तरंगें
मधुर भाव ज्योतिर्मय पावन
ज्योति पुंज फिर करे प्रकाशित
पुलकित मन आह्लादित कानन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03अप्रैल, 2021


निज मन तू शीतल रहना।

निज मन तू शीतल रहना।  

ताप गहन हो रहा गगन में
निज मन पर तू शीतल रहना।

विश्व वेदना प्रतिपल क्षण क्षण
बन ज्वाला जलती है कण कण
अवसादों में घिर रहा व्योम ये
जग जीवन यूँ घिसता क्षण क्षण।

प्रबुद्ध शुद्ध बन उज्ज्वल रहना
निज मन पर तू शीतल रहना।।

सजल भाव स्वर्णादिक पावन
पग पग रच जीवन पूर्णतम
विस्मृत कर विस्तृत विचार अब
विस्तारित कर तू अपनापन।

ऋतु परिवर्तन संग तू बहना
निज मन पर तू शीतल रहना।।

पग पग ढलते कितने बंधन
कुछ सीमित कुछ मन अनुरंजन
विद्द्यमान कुछ मूर्तिमान सम
औ रचते कुछ नव स्वरूप मन।

नव चेतन बन रग रग बहना
निज मन पर तू शीतल रहना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01अप्रैल, 2021

दुख में सुख को पलते देखा।

दुख में सुख को पलते देखा।

डगर डगर में नव प्रभात ले
उम्मीदों का सत्य सनात ले
आशाओं को खिलते देखा
दुख में सुख को पलते देखा।।

पृथक पृथक भावों को लेकर
भिन्न भिन्न परिभाषा लेकर
अभिलाषा को चलते देखा
दुख में सुख को पलते देखा।।

नूतन सपनों की आस लिए
प्रशस्त पुण्य आकाश लिए
अनुमानों को खिलते देखा
दुख में सुख को पलते देखा।।

धूप छाँव प्रकृति नियम है
चले जहाँ पथ वही सुगम है
कंटक पथ भी हँसते देखा
दुख में सुख को पलते देखा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2021

विनय दान।

विनय दान।  

मुखर सत्य है प्रखर कृत्य है
गुंजित भ्रमर रच रहे प्राण
अवनी अंबर पुण्य मिलन से
कर रहे नूतन निर्माण।

पुलकित मुखरित तपन छुअन की
सहसा भर जाते प्रणय गान
कुसुमित विंबित उत्कंठित मन
कर जाते हैं सर्वस्व दान।

सांध्य समय कर रहा प्रतीक्षित
नव निर्माणों का कर सम्मान
चुम्बित कर नव किसलय का
विस्तारित हो विनय दान।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2021

नव किसलय नव पुष्प।

नव किसलय नव पुष्प।

नव आशा नव पुष्प खिले हैं
नीले नीले कुंज निलय में
स्फूर्ति संचार भर रही है
जीवन के हर आशय में।
नई दिशाएं नई विधाएं
अंग अंग नई उमंग जगी
मुस्काते नव किसलय देखो
जागृत अंतस पुण्य विनय है।।

ऋतु परिवर्तन की अँगड़ाई
नव संवत्सर की बेला आई
नूतन भाव विचार नित्य ले
आह्लादित करती पुरवाई।
पंखुड़ियों पर नर्तन करती
पुण्य श्लोक उच्चारित करती
भाव सुरंजित नूतन अंकन
वात वात संचारण करती।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29मार्च, 2021

नारी- सब सह लेती है।

नारी- सब सह लेती है।  

जब चाहे हँस लेती है
पर चुपके से रोती है
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।

सूरज कभी कभी अलसा जाए
उसको अलसाते नहीं देखा
उठ जाती है सबसे पहले वो
कभी खुद को फुसलाते नहीं देखा
खुद का खयाल नहीं करती वो
पर वो सबको फुसलाती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

रसोई के गर्म मौसम में भी
वो शीतल बयार सी लगती
बाहर हो चाहे जैसा मौसम
वो तो बसंत बहार सी लगती
माथे पर भले हो गर्म पसीना
पर अबको शीतलता देती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

मुझसे ज्यादा क्या मेरी पसंद है
उसको  सब पहले से पता है
मेरे मन के सूनेपन  में भी
उसको लगता उसकी खता है
माँ, बहन, बेटी, पत्नी 
कितने ही किरदारों में ढल
सब पीड़ाएँ हर लेती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

उसका भी तो दिल सोचता होगा
उसका भी कहीं आसमाँ होगा
इस छोटी सी दुनिया में थोड़ा सही
उसका भी कहीं नामोनिशां होगा
नहीं कभी वो कहती  कुछ भी
पर सर्वस्व समर्पण कर देती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

मैं भी सोचता हूँ कभी
ना जाने किस मिट्टी की बनी है
धूप, ताप, बारिश या ठंडक
चुटकी में ही वो ढल लेती है
इतनी सहज प्रवृत्ति है उसकी
शायद इसीलिए सब कर लेती है।
जी हाँ वो नारी ही तो है
जो सब कुछ सह लेती है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मार्च, 2021




फागुन का रंग।



फागुन का रंग।

नयनन की भूल भुलइया में
पिय अइसन तुमरे खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

रात रात भर जागत हैं 
इन अँखियन में अब नींद नहीं
इक तुमरो संग सुहात इसे
दूजा अब कउनो मीत नहीं।

अंग लगा लो अब तो हमको
रंग में तुमरे खोय गयी।
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

यहि फागुन फाग रचो अइसन
मन मोहन मोय श्रृंगार करो
रँग जाऊँ तुमरे रंगन में
मोहे कछु अइसन प्यार करो।

अइसन रंग लगा हिय पर
सब रंगन को मैं खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मार्च, 2021

तूफानों का आदी हूँ।

तूफानों का आदी हूँ।   

मुक्त गगन का पंछी हूँ मैं
सीमाहीन क्षितिज मेरा है
आशाओं का पोषक हूँ मैं
धरती मेरी गगन मेरा है
बाँध सकेगा क्या मुझको
मैं तो इक अनुरागी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

मुझको कब तक बाँधेंगे 
झूठे रिश्तों के ये बंधन
कब तक मुझको रोकेंगे
स्वार्थयुक्त ये झूठे क्रंदन
परे छोड़ सब बाधाओं को
मैं परिवर्तन का साथी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

नहीं छाँव का मोह मुझे
वरदानों को क्या तकना
निकल पड़ा जब अपनी धुन में
बीच डगर फिर क्या रुकना
चलते फिरते इस जीवन में
मैं रफ्तारों का साथी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मार्च, 2021





पहचान।

पहचान।  

इस आभासी दुनिया में तुम
प्रिय मेरी मुस्कान बने हो
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

धूप छाँव के सफर घनेरे
शाम तुम्हीं हो तुम्हीं सवेरे
अभिलाषा के शीर्ष तुम्हीं
प्रेम पंथ ने पुष्प बिखेरे।

प्रेम पथिक मैं जिन राहों का
तुम उसकी वरदान बने हो।
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

तुम शीतलता की परिभाषा
चाँद चाँदनी की अभिलाषा
तुम नैनों की दिव्य ज्योति हो
तुम अधरों की कंपित आशा।

मेरे मन की इस वीणा के
मदिर मधुर सुर तान बने हो।
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26मार्च, 2021 


साथ तुम्हारा।

साथ तुम्हारा।  

मौसम के अनुमानों ने
इस दिल के अरमानों ने
मुझमें कितने रंग भरे हैं
जो साथ चलो तो कह दूं मैं।।

तुमसे मैं तो मिला अभी ही
और अभी ही देखा है
तुमसे मिलकर लगा मुझे यूँ
तुझमें जीवन रेखा है।
मेरे जीवन में तुम क्या हो
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

पल भर के इस नेह मिलन ने
स्वप्न अनेकों बुन डाले
और तुम्हारे अपनेपन ने
गीत अनेकों रच डाले।
गीतों ने क्या कुछ रच डाला
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

कहने को हैं कितनी बातें
नई पुरानी कितनी घातें
दिल ने कितना दरद सहा है
पलकें जागी कितनी रातें।
इस पल में तुमसे क्या पाया
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26मार्च, 2021
जो साथ तुम्ह
उम्मीदों के फूल खिले तो








मुस्कानों का साथी।

मुस्कानों का साथी।   

खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।

आशाओं ने करवट बदली
उम्मीदों ने राह पकड़ ली
सपनों को इक पंथ मिला
विश्वासों ने अँगड़ाई ली।

मुक्त पंख आकाश खुला है
दूर क्षितिज तक जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

गिरने का कहीं भय नहीं
तारों से बातें करता हूँ
अपनी हर इच्छाओं से
झोली हर खाली भरता हूँ।

आशाओं के संयोजन तक
पल पल पलते जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

बहुत किया पछतावा अब तक
अब कोई अफसोस नहीं
बीती सारी बातों पर अब
मुझको कोई रोष नहीं।

मुस्कानों का साथी हूँ मैं
मुस्कानों तक जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मार्च, 2021


कैसे गाऊँगा।

कैसे गाऊँगा।   

यादों में मेरी बसी हो
गीतों में मेरे रची हो
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

साथ चले कितने ही सावन
कुछ झुलसाए कुछ मनभावन
कुछ में पीर मिली थी हमको
कुछ पूजा से भी थे पावन।

बीती सारी बातों को मैं
कैसे कहो भुलाऊंगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

तुम बिन मेरा यौवन सूना
तुम बिन सूनी रातें सारी
तुम बिन मेरी राह अधूरी
तुम बिन मेरी प्रीत बिचारी।

तुम बिन चलना मुश्किल है
कैसे मैं समझाऊँगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

तुमसे मेरे गीत जुड़े हैं
तुमसे मेरे सपने सारे
तुमसे सारी रीत जुड़ी है
तुमसे मेरे अपने सारे।

तुम ही गीतों की सरगम
मैं तुमको ही गाऊँगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24मार्च, 2021

सफर।

सफर।  

चलो कुछ सपने देखते हैं
यूँ ही तुम मुझमें मैं तुझमें
चलो मिलकर कुछ खोजते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

कुछ मैं तुमको बतलाऊँ
कुछ तुम मुझको समझाना
कुछ मैं तुमको दिखलाऊँ
कुछ तुम मुझको बतलाना।

वक्त की दहलीज पर हम
एक दूजे को खोजते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

एक उम्र चली है राहों पर
थामे दूजे की बाहों को
इस धड़कन से उस धड़कन तक
थामे दूजे की साँसों को।

थामे साँसों की वही डोर
चलो बाहों में भींचते हैं
चलो रिश्तों को सींचते हैं।।

दूर क्षितिज तक चलें साथ मे
राह मुड़े तो मुड़े साथ में
अस्तांचल तक चलना है
भोर खिले जब खिले साथ में।

सूर्योदय से अस्तांचल तक
उम्र को दरीचों में देखते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मार्च, 2021

काशी।

काशी।  

जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

कष्ट सभी मिट जाते हैं
खुद से खुद मिल जाते हैं
लगा भभूत माथ पर अपने
देवों का दर्शन पाते हैं।

अल्हड़ गंगा की धारा में
वक्त यहाँ सिमटा जाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

गलियों में नवरंग यहाँ पर
बरसे हैं सब रंग यहाँ पर
रस की धार बना-रसिया
जज्बातों को पंख यहाँ पर।

जज्बातों की धारा में मन
खुद को बहता पाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

दुनिया के सब रौनक फीके
शानो शौकत सारे झूठे
जिस पर इसका रंग चढ़े है
रंग लगे सब उसको फीके।

काशी की गलियों में कोई
नहीं कभी तन्हा पाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

अंतिम सत्य यहाँ मिलता है
सृष्टि का पल पल पलता है
जीवन मृत्यु मोक्ष कामना
उम्मीदों को पथ मिलता है।

जन्म मरण के सब बंधन से
जीवन मुक्त हुआ जाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मार्च, 2021

गंगा के उस पार।

गंगा के उस पार।   

जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे
सब सपनों की छोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

छिटक छिटक कर सूर्य रश्मियाँ
जल थल पर क्रीड़ा करती
नित नूतन संदेशों से वो
मन में भाव प्रवणता भरतीं।

उम्मीदों की कोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

भीतर है तूफान समेटे
ऊपर, पर शांत लहर है
पल पल छिन छिन बीत रही
सिमटाये मौन प्रहर है।

शांत लहर की पोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

साँझ ढले जीवन बेला में
घाटों पर इक हलचल है
नवजीवन की उम्मीदों से
निशा जागती पल पल है।

पुनर्जन्म की भोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       21मार्च, 2021




पहचान।

पहचान।   

सत्ता के गलियारों में सब अरमान खिलौने हो गये
तकती नजरें सूनी सूनी सम्मान खिलौने हो गये।।

काजू की प्लेटों में दिखी जिनके सपनों की परछाईं
उनकी इच्छाओं के सारे अनुमान खिलौने हो गये।।

नैतिकता अपने घर में हि बंधक बनकर आज रो रही
इसके गिरते किरदारों से पहचान खिलौने हो गये।।

आम आदमी सपनों को अपने ही काँधों पर ढो रहा
जाने फिर नजरों में कैसे किरदार खिलौने हो गये।।

खून पसीने से जिनके, महलों में लाखों दिए जले
महलों के आँगन में उनकी पहचान घिनौने हो गये।।

दोष मढ़ें अब किसके ऊपर, शिकवा किसी से क्या करना
पहचान दिये जिसको हमने अहसान खिलौने हो गए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20मार्च, 2021


आम की बालियाँ।

आम की बालियाँ।  

मैंने घर के आँगन में
कुछ पेड़ लगाए आमों के
स्वप्न में देखा मधुर रसीले
उम्मीदों को आमों में।

खट्टा मीठा जीवन अपना
आम सरीखा लगता है
जबतक कच्चा, खट्टा है
पके तो मीठा लगता है।

बौर लगे पेड़ों पर देखो
ऋतु परिवर्तन बतलाती हैं
खेतों की ये पकी बालियाँ
तन मन को हर्षाती हैं।

बीत रहा मधुमास माह अब
किरणें भी ताप बढ़ाती हैं
खेतों खलिहानों में पग पग
उम्मीदें मुस्काती हैं।

लगन मुहूरत, नव संबंधों
का नूतन मौसम आया 
उम्मीदों को पंख मिले हैं
कलियों का मन हरषाया।

मौसम के इन संकेतों ने
जीवन को आयाम दिया
पेड़ों पर खिलते आमों ने
इक नूतन अभियान दिया।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20मार्च, 2021


प्रीत ने पंथ निखारा।

प्रीत ने पंथ निखारा।  

रात की मद्धम गति औ तेरा मुस्काना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

तू मुस्कुरा दे फूल खिलते
बातों में जादू तेरे
जबसे देखा मैंने तुझको
दिल पर नहि काबू मेरे।

यूँ लगे ज्यूँ पुष्प पर भ्रमर का मँडराना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

मचल रही अधरों पे तेरे
यूँ सूर्य की ये लालिमा
मदमस्त होकर चूमती हैं
कपोलों को ये बालियाँ।

यूँ लगे ज्यूँ भोर का अहसास मिल जाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

ये केश तेरे यूँ घनेरे
ज्यूँ मेघ के गुम्फे लगें
मैं देखूँ जब जब रुप तेरा
मृदु भाव, हिय प्रियतम जगे।

यूँ लगे ज्यूँ रूप की चादरों का छाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

सुंदरता की मूरत है तू
भावों में मधुरस धारा
जीवन में तेरे आने से
समृद्धि ने पंथ निखारा।

यूँ लगे ज्यूँ अंक में नभ का सिमट जाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       18मार्च, 2021


देव दर्शन।

देव दर्शन।  

औरों ने बस पत्थर माना
मैंने देवों के दर्शन देखे
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

नदिया, परबत, मेघ घनेरे
कल कल छल छल भाव सुनहरे
प्रकृति ने है रूप निखारा
सुघड़, सुभग भाव मनहरे।

कितना सुंदर दृश्य पटल पर
अंकित मन अनुरंजन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

किरण प्रभाती पुण्य भाव से
कण कण रूप सजाती है
हरित कांति से सजी धरा
देवों का रूप दिखाती है।

अवनी अंबर साथ चले हैं
पुलकित मन अभिनंदन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

शुद्ध चित्त औ शुद्ध भाव से
सहज सरल बन सकता जीवन
अंतस के पुष्पित भावों से
पुष्पाच्छादित तन मन उपवन।

शुद्ध चित्त औ पवित्र भाव ने
कितने ही परिवर्तन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17 मार्च, 2021




अपनापन।

अपनापन।   

पात टूट कर गिरे डाल से
फिर से उसको कौन मिलाए
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

सुखद सपन सी लगती दुनिया
नई नवेली दिखती दुनिया
चमक दमक के पीछे लेकिन
एकाकी सी कितनी दुनिया।।

जीवन के एकाकीपन को
अपनापन ही दूर भगाए
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

मतभेदों में जला उजाला
मनभेदों ने निगला जीवन
जाने कैसे पवन चल रही
उजड़ा जाता हरपल जीवन।।

निज जीवन के अनुमानों ने
अहसासों को दूर भगाए।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

विखर गए कितने ही उपवन
अहंकार के तूफानों में
बिछड़ गए कितने ही जीवन
हीनभाव वश अनुमानों में।।

ऐसे अनुमानों के कारण
जीवन पल पल ठोकर खाये।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

सफर सुहाना लगता तबतक
जबतक अपने साथ चले हैं
पग-पग खुशियाँ मिलती तबतक
उम्मीदों के फूल खिले हैं।।

अपनेपन की उम्मीदें ही
जीवन को नव राह दिखाए।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      15मार्च, 2021



नई सुबह नई भोर।

नई सुबह नई भोर।  

भोर रश्मि की मुस्कानों से
वरदानों की डोर जुड़ी है
हँस कर जब भी देखा मैने
नई सुबह की भोर दिखी है।।

दूर क्षितिज से किरण प्रभाती
उम्मीदें बनकर आती 
अपने स्वर्णिम अहसासों से
मन में मधुरिम भाव जगाती।
मधुरिम मधुरिम अहसासों में
नूतन सपनों की छोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

शीतल चंदा की किरणों ने
रातों का श्रृंगार किया है
रजनी के नीले आँचल को
तारों ने गुलजार किया है।
खिली चाँदनी की किरणों में
प्रेम की सुंदर डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

सुंदर मन के व्यवहारों से
खुशियों की कलियाँ खिलती हैं
मन में जैसा भाव यहाँ हो
वैसी ही दुनिया मिलती है।
मन की सुंदरता से देखा
खुशियों की इक डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने 
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

मैंने जीवन के हर इक पल को
हँसकर के सम्मान दिया है
सोम समझ कर गरल पिया है
नहीं कभी अपमान किया है।
जीवन के हर पल में मुझको
अमृत की रसधार दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

मेरा प्रण है इस जीवन को
ऐसे ही गाता जाऊँगा
जीवन के हर पहलू में मैं
ऐसे ही हँसता जाऊँगा।
मुस्कानों में हरपल मुझको
साँसों की नव डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      14मार्च, 2021

मजबूरी।

मजबूरी।   

मेरे औ मंजिल के बीच
बस थोड़ी सी दूरी है
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।

मौन पंथ का मूक पथिक हूँ
उम्मीदों ने पाला मुझको
जीवन पथ के तूफानों ने
अपनेपन में ढाला मुझको।

निकल गया सब तूफानों से
पर थोड़ी सी दूरी है
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

जी करता है सपनों में मैं
अपने हरपल गीत सजाऊँ
तुम सम्मुख प्रतिपल बैठो
अविरल मैं  गाता जाऊँ।

मेरे गीतों की महफ़िल में
तेरी मुस्कान जरूरी है।
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

उम्मीदों ने रात ओढ़ ली
पर मैंने स्वीकार किया
दिए तुम्हारे सब घावों को
मैंने तो हर बार जिया।

कहने को मैं भी कह देता
पर चुप रहना भी जरूरी है।
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12मार्च, 2021

सम्मान कइसे मिली।

सम्मान कइसे मिली।  

एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली
नारी जबले नारी के ही
सम्मान नाहीं देली।।

कोख में ज लइकी सुनिके
आँसू गिरे लागे
मनवा में कइसन कइसन
भाव जागे लागे
कोखी में बराबर जबले
अधिकार नहीं मिली
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

जनमते ही लईकीन खातिर
दहेजवा सतावेला
यही देश में नारी ही खुद
नारी के जलावेला
जबले कुरीतिन के असली
अंजाम नाहीं मिली
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

दुनिया में जिधरो देखा
अत्याचार बढ़त बा
नारी की शुचिता देखा
कइसे कइसे कुढ़त बा
नारी अपराधन के जबले
परिणाम नहीं मिली।
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

माई, बहिन, बेटी, पत्नी अउर सहेली
कितना ही रूप नारी, हरपल धरेली
कइसन भी मुश्किल हो, उफ्फ ना करेली
चेहरा पे खुशी रखिके दुखवा छुपावेळी।

भगवान के देखली नाहीं,
तुहके ही देखली हम
बिना तोहरे चली नाहीं
सृष्टि ई एक्को कदम।

जवने घर में नारी के उचित 
स्थान नाहीं मिली
वहि घर मा खुशियन के
फूल नाहीं खिली।
इहे बात अजय कहे 
आज सबसे मिल के
सोच जबले बदली नाहीं
एहसास नाहीं खिली।
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      09मार्च, 2021

स्वयं का विस्तार कर।

स्वयं का विस्तार कर।  

आस्था के फूल सारे स्वार्थ में बिखर रहे
निजता, प्रमुखता अहसास कैसे पल रहे
संबंधों की सोच संकीर्ण हो रही है, क्या
भान ही नहीं के खुद ही खुद को छल रहे।।

स्वप्न का श्रृंगार कर ये रास्ते बुहार कर
वासनाओं पर यहाँ अपने तू प्रहार कर
शूल पथ के सभी खुद फूल हो जाएंगे 
बन के सत्यकाम तू स्वयं विस्तार कर।।

एक दिन सभी यहाँ, खुद ही जान जाएंगे
तेरे पदचिन्हों पर खुद शीश वो नवाएँगे
व्यर्थ का प्रलाप जो भी कर रहे हैं यहाँ
संबंधों की भीड़ में खुद को तन्हा पाएंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07फरवरी, 2021

कभी मानूँगा ना हार।

कभी मानूँगा ना हार।   

जीवन के विस्तृत प्रसार में
मनोभावों के विस्तार में
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।

तेज भले कितनी हो लहरें
सम्मुख सागर भले अपार
तूफानों से डरना कैसा
जब तक हाथों में पतवार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

कभी कभी मिलता है जीवन
पुण्य कर्म का फल है जीवन
हैं असीम निज इसकी इच्छा
उम्मीदों का है ये मधुवन।

इस मधुवन से आज मिला है
मुझे जीवन का सब सार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

तूफानों में जोर भले हो
जूझ गया जो, कब थकता है
ऊँची सागर की लहरों में
माँझी कभी कहाँ रुकता है।

सागर की अपनी सीमा है
औ मन की असीम अपार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06मार्च, 2021

रंगमंच।

रंगमंच।   

जीवन ये इक रंगमंच है
सबका है अपना अभिनय
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।

पात्र, पात्रता, आवश्यकता
पग पग पर मंचन होती है
जिसकी जैसी यहाँ भूमिका
वैसी ही अंकन होती है।

सबके अपने पात्र सुनिश्चित
धर्म कर्म है सबका संचय।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

वचनबद्धता, भाव, प्रार्थना
सब इच्छाओं में चिन्हित हैं
औ अंतस की समग्र कामना
प्रत्यक्ष यहाँ पर प्रतिबिंबित है।

इच्छाओं की मधुर कल्पना
हिय संबंधों का है मधुमय ।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

रुपहले पर्दे पर चित्रित
सबकी अपनी भाव भंगिमा
जिसकी जैसी प्रस्तुति है
वैसी बनती उसकी गरिमा।

भावों की प्रस्तुति से होता
सबके जीवन में अरुणोदय।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05मार्च, 2021





मौन पीड़ाएँ।

मौन पीड़ाएँ।  

जीवन के नीरव निशीथ में
मौन उमड़ते अंधकार में
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।

कितने छल कितनी पीड़ाएँ
मौन बींधते रहते मन को
उमड़ घुमड़ कितनी इच्छाएँ
मौन खीझते रहते मन को।

मुक्त कंठ की इच्छा लेकर
आखिर कब तक मौन तड़पता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।।

व्याकुल व्याकुल रहते प्रतिपल
अंतस की अभिलाषा कितनी
नयनों में फिरती हैं प्रतिपल
जीवन की आशाएँ कितनी।

पलकों में संचित आशा ले
आखिर कब तक भाव सुलगता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।

पृथक पृथक हों भाव सभी जब
पृथक पृथक सब राह चलें जब
कांटों से भी मुश्किल लगती
सहज भले हों राह यहाँ तब।

अपनी डाली के काँटों का
दंश कोइ कब तक सहता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04मार्च, 2021






मनमीत।

मनमीत।   

मेरे मन के मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

अधरों पर हो प्रेम का अंकन
उर में मधुर मधुर स्पंदन
अंक में भर लूँ स्वप्न तुम्हारे
जीवन ये हो जाये नंदन।

मुक्त गगन की मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

संवादों में गीत मधुर हो
अहसासों में प्रीत मधुर हो
शब्द शब्द में थिरकन जागे
नई तरंगें, रीत मधुर हो।

नई रीत की गीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

ताप तरंगें इस जीवन को
रह रह कर झुलसाती हैं
जाने कितने भाव हृदय को
रह रह कर हुलसाती हैं।

मेरे अंतस की मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मार्च, 2021

मौन अब खोल दो।

मौन अब खोल दो।   

कभी तो बैठो पास मेरे
औ कभी तुम कुछ बोल दो
मौन क्यूँ बैठे हो यहॉं पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

जानता हूँ दिल में दबी हैं
तिरे भावनाएँ प्यार की
और कितनी चाहतें हैं
इस प्यार के संसार की।

आज दिल में जो दबी है
सभी भावनाएँ बोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

क्या याद अब तुमको नहीं
मुझसे था क्या क्या कहा
साथ मिलकर जब चले थे
हमने था क्या क्या सहा।

भूल तुम कैसे गए सब
कुछ तो कहो कुछ बोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

बाद अपने प्रेम की बस
रह जायेंगी निशानियाँ
गीत अपने प्रीत की
गूंजेंगी बन कहानियाँ।

फिर हमारे गीत में तुम
प्रीत के रस घोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2021

दर्द।

दर्द।   

जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने मुझको प्रीत सिखाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

सूना जीवन था ये मेरा
तुम आये आकाश मिला
सदियों से प्यासी धरती को
बूँदों का मधुमास मिला।

जिन बूंदों ने मधुमास खिलाया
उन बूंदों का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

कभी खिली थीं कलियाँ मुझमें
जाने कब कैसे बिखर गयीं 
कभी मिली थीं खुशियाँ मुझको
जाने कब कैसे बिछड़ गयीं।

जिस दर्द ने मुझको पास बिठाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

आज मिले जो जीवन पथ में
तन्हा छोड़ नहीं तुम जाना
मेरे गीतों में शब्द तुम्हीं हो
मुश्किल है इनका जी पाना।

जिस फर्ज ने तुमसे मुझे मिलाया
उस फर्ज का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01मार्च, 2021



ऐसे कैसे रहते हो।

ऐसे कैसे रहते हो।  

कितना कुछ सुनते हो सबकी
फिर भी हंसते रहते हो
कुछ बतलाओ मुझसे भी
के ऐसे कैसे रहते हो।।

कितनी ही आवाजों में
तुमने खुद को ढाला है
मुख से उफ ना किया कभी
हँस कर सबको पाला है
आघातों के बीच खड़े हो
फिर भी हँसते रहते हो।
कुछ बतलाओ मुझसे भी
के ऐसे कैसे रहते हो।।

छोटी छोटी इच्छाओं का
सबकी हरदम मान किया
खुद की सारी इच्छाओं का
हरपल ही बलिदान किया
दबी हुई इच्छाएं कितनी
फिर भी हँसते रहते हो।
कुछ बतलाओ मुझसे भी
के ऐसे कैसे रहते हो।।

कितने सूनेपन में तुमको
छुपकर रोते देखा है
रोशन महफ़िल में भी तुमको
 तन्हा होते देखा है
तन्हाई की टीस लिए हो
फिर भी हँसते रहते हो।
कुछ बतलाओ मुझसे भी
के ऐसे कैसे रहते हो।।

तुमको देखा जीवन देखा
पग पग कितनी सीख मिली है
अँधियारा कितना हो गहरा
उम्मीदों से जीत मिली है
तुमको देखा तब है जाना
जीवन किसको कहते हैं।
अब जाकर मैंने भी जाना
के ऐसे कैसे रहते हो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी, 2021

आँखों की बातें।

आंखों की बातें।   

दिल की कितनी ही बातें
दिल ही में रह जाती हैं
होंठ कहें चाहे ना कुछ भी
आँख मगर कह जाती है।।

कोई कितना दूर रहे पर
यादों में रहता है हरदम
परछाईं बन चलता रहता
साँसों में बसता है हरदम।

आती जाती साँसें हरदम
गीत उसी के गाती हैं।
होंठ कहें चाहे ना कुछ भी
आँख मगर कह जाती है।।

आज वफ़ा की बातें कितने
अरमानों में झलक रहे हैं
और राहतें दिल के कितने
पैमानों में छलक रहे हैं।

अरमानों के पैमाने भी
सपनों में आती जाती हैं।
होंठ कहें चाहे ना कुछ भी
आँख मगर कह जाती है।।

इक थर्राहट होठों पर है
आँखों में भी बेचैनी है
दिल मे दूर किसी कोने पर
शायद अब भी बेचैनी है।

बेचैनी के कितने ही पल
छुप छुप कर बह जाती है।
होंठ कहें चाहे ना कुछ भी
आँख मगर कह जाती है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       28फरवरी, 2021





इतिहास बनाने आया हूँ।

इतिहास बनाने आया हूँ।   

चलते फिरते इस जीवन में
जाने क्या क्या होता है
कहीं बिखरते फूल खुशी के
कहीं आसमां रोता है।

हंसते रोते आसमाँ में
उम्मीद जगाने आया हूँ।
इतिहासों को क्या दुहराना
मैं इतिहास बनाने आया हूँ।।

आँखों में अंगारे देखा
जिह्वाओं पर नारे देखा
छोटे से जीवन में हमने
जीत कभी कभि हारे देखा।

हार जीत से ऊपर उठकर
विश्वास जगाने आया हूँ।
इतिहासों को क्या दुहराना
मैं इतिहास बनाने आया हूँ।।

बने बिगड़ते संबंधों में
अपनेपन की पीड़ाएँ हैं
कभी गौर से देखो जब भी
दिखती कितनी क्रीड़ाएँ हैं।

संबंधों में सूनेपन का
वनवास मिटाने आया हूँ।
इतिहासों को क्या दुहराना
मैं इतिहास बनाने आया हूँ।।

इस जीवन की अँगनाई में
धूप छाँव का डेरा है
जिंदापन का एहसास तभी
जब संवादों का फेरा है।

अधरों के मुखरित कंपन में
नव साँस जगाने आया हूँ।
इतिहासों को क्या दुहराना
मैं इतिहास बनाने आया हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी,2021



इशारा।

इशारा।  

कब मेरे इस मौन को
संवादों का आश्रय मिलेगा
कब मेरे इस कौन को
परिचयों का आशय मिलेगा।

कब मुझे धरती मिलेगी
कब गगन मुझको मिलेगा
कब मिलूँगा खुद से मैं
कब चमन मुझको मिलेगा।

कब मिलेगा मन हमारा
और उपवन कब खिलेगा
कब खिलेंगी मौन कलियाँ
और गुलशन कब खिलेगा।

औरों की उम्मीदों का
कबतक वहन खुशियाँ करेंगी
औरों की इच्छाओं में
कबतक यहाँ खुशियाँ पलेंगी।

जानता हूँ प्रश्न कितने
मौन संवादों में छिपे हैं
और उनकी भावनाएँ
बीच पलकों के छिपे हैं।

अपनी सारी भावनाओं का
तुमसे सहारा चाहता हूँ
मौन को आवाज दूँ
तुमसे इशारा चाहता हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25फरवरी, 2021

जीवन अविरल बहता रहता।

जीवन अविरल बहता रहता | 

जीवन अविरल बहता रहता 
कभी सुनता कभी कुछ कहता 
कितनी बातें इसके दिल में 
बिखर सिमट कर चलता रहता | 

कभी पाने की जिद कहीं की 
और कभी दाता बन बैठा 
कभि खोया अपनी ही धुन में 
और कभी याचक बन बैठा | 

कितने स्वप्न तराशे इसने 
खोकर आँखों की नींदें 
कितने दांव लगाए इसने 
अपनी आँखों को मींचें | 

जितने शब्द पिरोये इसने 
उतना इसको मान मिला 
चली लेखनी जब भी इसकी
इसको बस सम्मान मिला | 

इसकी परछाईं ने कितने 
आकारों को गढ़ा यहाँ 
भावों को औ मंतव्यों को
सँभल सँभल कर पढा यहाँ|

आभासों औ अहसासों में 
परिवर्तन ये पलता रहता 
जीवन अविरल बहता रहता 
जीवन अविरल बहता रहता ||   

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       23फरवरी, 2021

*सफर को कोई नाम दें।*   

इस खामोशी को जुबान दें
आओ इसे कुछ आयाम दें
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफ़र को अब कोई नाम दें।।

कब गुजरीं लम्हों में सदियाँ
अभी तलक ये पता ना चला
यूँ तो मिलते रहे हम सदा
खुद से अभी तक ना मैं मिला।

चलो खुद से मिलें दोनों
एक दूजे को कुछ नाम दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफर को अब कोई नाम दें।।

यूँ चले कितनी हसरत लिए 
आशाओं के जलाए दिए
कल लिखे थे जो गीत हमने
तिरे होठों ने उनको छुए।

चलो फिर से सारे गीतों को 
मिलकर के अपनी जुबान दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
साफर को अब कोई नाम दें।।

न तेरी ख़ता न मेरी ख़ता
हुआ कुछ मगर किसे है पता
अब भी दिलों में थोड़ी कसक
तुझे ये पता मुझे भी पता।

चलो आज फिर, वहीं पर मिलें
 एक दूजे को ईनाम दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफर को अब कोई नाम दें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

       22फरवरी, 2021

सफर को कोई नाम दें।

सफर को कोई नाम दें।   

इस खामोशी को जुबान दें
आओ इसे कुछ आयाम दें
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफ़र को अब कोई नाम दें।।

लम्हों में सदियाँ कब गुजरी 
मुझे अब तलक पता ना चला
यूँ तो मिलते रहे सदा हम
पर खुद से अभी तक ना मिला।

चलो खुद से मिलें हम दोनों
एक दूजे को कुछ नाम दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफर को अब कोई नाम दें।।

यूँ चले कितनी हसरत लिए 
आशाओं के जलाए दिए
कल लिखे जो भी गीत हमने
तिरे होठों ने उनको छुए।

चलो फिर उन सारे गीतों को 
मिलकर हम अपनी जुबान दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
साफर को अब कोई नाम दें।।

न तेरी ख़ता न मेरी ख़ता
हुआ कुछ मगर किसे है पता
अब भी दिलों में थोड़ी कसक
तुझे ये पता मुझे भी पता।

चलो आज फिर, वहीं पर मिलें
 एक दूजे को ईनाम दें।
कब तलक यूँ ही चलते रहेंगे
सफर को अब कोई नाम दें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22फरवरी, 2021

तुम आज गवाही देना।

तुम आज गवाही देना।   

बिखर रहे इन हालातों में
बस थोड़ी परछाईं देना
मौन हुआ हूँ भले यहाँ मैं
पर तुम आज गवाही देना।।

पल-पल अभ्यासों के बल पर
कितने विश्वासों के बल पर
चला पंथ उम्मीद सहारे
कितने अहसासों के बल पर।

हुई चूक जो कहीं कभी तो
तुम उसकी सुनवाई देना।
मौन हुआ हूँ भले यहाँ मैं
पर तुम आज गवाही देना।।

छोटे छोटे प्रण के बल पर
इच्छा का सम्मान किया है
गंतव्यों तक जाने खातिर
मैंने सबका मान किया है।

मेरे प्रण की पीड़ाओं की
तुम बस आज दवाई देना।
मौन हुआ हूँ भले यहाँ मैं
पर तुम आज गवाही देना।।

इक बस तेरा साथ मुझे है
सारी उम्मीदों से बढ़कर
मैंने अपना जीवन पाया
इक बस तुझसे ही मिलकर।

मेरे अहसासों से मिलकर
तुम अपनी परछाई देना।
मौन हुआ हूँ भले यहाँ मैं
पर तुम आज गवाही देना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19फरवरी,2021


प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...