मौन पीड़ाएँ।
मौन उमड़ते अंधकार में
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।
कितने छल कितनी पीड़ाएँ
मौन बींधते रहते मन को
उमड़ घुमड़ कितनी इच्छाएँ
मौन खीझते रहते मन को।
मुक्त कंठ की इच्छा लेकर
आखिर कब तक मौन तड़पता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।।
व्याकुल व्याकुल रहते प्रतिपल
अंतस की अभिलाषा कितनी
नयनों में फिरती हैं प्रतिपल
जीवन की आशाएँ कितनी।
पलकों में संचित आशा ले
आखिर कब तक भाव सुलगता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।
पृथक पृथक हों भाव सभी जब
पृथक पृथक सब राह चलें जब
कांटों से भी मुश्किल लगती
सहज भले हों राह यहाँ तब।
अपनी डाली के काँटों का
दंश कोइ कब तक सहता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04मार्च, 2021
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