स्वयं का विस्तार कर।

स्वयं का विस्तार कर।  

आस्था के फूल सारे स्वार्थ में बिखर रहे
निजता, प्रमुखता अहसास कैसे पल रहे
संबंधों की सोच संकीर्ण हो रही है, क्या
भान ही नहीं के खुद ही खुद को छल रहे।।

स्वप्न का श्रृंगार कर ये रास्ते बुहार कर
वासनाओं पर यहाँ अपने तू प्रहार कर
शूल पथ के सभी खुद फूल हो जाएंगे 
बन के सत्यकाम तू स्वयं विस्तार कर।।

एक दिन सभी यहाँ, खुद ही जान जाएंगे
तेरे पदचिन्हों पर खुद शीश वो नवाएँगे
व्यर्थ का प्रलाप जो भी कर रहे हैं यहाँ
संबंधों की भीड़ में खुद को तन्हा पाएंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07फरवरी, 2021

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