पहचान।

पहचान।   

सत्ता के गलियारों में सब अरमान खिलौने हो गये
तकती नजरें सूनी सूनी सम्मान खिलौने हो गये।।

काजू की प्लेटों में दिखी जिनके सपनों की परछाईं
उनकी इच्छाओं के सारे अनुमान खिलौने हो गये।।

नैतिकता अपने घर में हि बंधक बनकर आज रो रही
इसके गिरते किरदारों से पहचान खिलौने हो गये।।

आम आदमी सपनों को अपने ही काँधों पर ढो रहा
जाने फिर नजरों में कैसे किरदार खिलौने हो गये।।

खून पसीने से जिनके, महलों में लाखों दिए जले
महलों के आँगन में उनकी पहचान घिनौने हो गये।।

दोष मढ़ें अब किसके ऊपर, शिकवा किसी से क्या करना
पहचान दिये जिसको हमने अहसान खिलौने हो गए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20मार्च, 2021


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