कभी मानूँगा ना हार।
मनोभावों के विस्तार में
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।
तेज भले कितनी हो लहरें
सम्मुख सागर भले अपार
तूफानों से डरना कैसा
जब तक हाथों में पतवार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।
कभी कभी मिलता है जीवन
पुण्य कर्म का फल है जीवन
हैं असीम निज इसकी इच्छा
उम्मीदों का है ये मधुवन।
इस मधुवन से आज मिला है
मुझे जीवन का सब सार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।
तूफानों में जोर भले हो
जूझ गया जो, कब थकता है
ऊँची सागर की लहरों में
माँझी कभी कहाँ रुकता है।
सागर की अपनी सीमा है
औ मन की असीम अपार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06मार्च, 2021
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