दोहे।

दोहे।।

ज्ञान दान प्रभु दीजिये, सबका हो सम्मान।
मंगलमय सब काज हो, दो इतना वरदान।।1।।

सकल पाप का नाश हो, बढ़े सत्य का मान।
मिल जुल कर सब जन रहें, नहीं रहे अभिमान।।2।।

सिरहाने पर है खड़ी, देख सुनहरी भोर।
नवयुग के निर्माण को, आलस सारे छोड़।।

गई निशा नव दिन चढ़ा, नई करो शुरुआत।
नया-नया अनुमान हो, नई-नई हो बात।।

मन ही स्वयं का शत्रु है, मन ही मन का मीत।
जैसी मन की भावना, वैसी बनती रीत।।

ढूँढे मन जो आपना, कितना कुछ मिल जाय।
गहरे पानी बीच से, जैसे मोती पाय।।

संतों की संगत मिले, मिटे सकल अभिमान।
सफल मनोरथ हों सभी, बढ़े ज्ञान सम्मान।।

दूर कुसंगति से रहें, करें नहीं अभिमान।
कीर्ति सकल जग में बढ़े, बढ़ता जग में मान।।

ज्ञान मिला सम्मान भी, हुआ जगत में नाम।
लेकिन मन के मैल को, मिला नहीं आराम।।

ज्ञानी अतिज्ञानी बना, हुई ज्ञान से रार।
अर्ध ज्ञान ने कर दिया, सब कुछ बंटाधार।।

भटक-भटक कर दिन ढला, तड़प रही है रैन।
मैं के चक्कर में सभी, भूल रहे सुख चैन।।

मनवा तो चंचल यहाँ, उड़ि-उड़ि इत उत जाय।
मन पर जो काबू करे, सच्चा सुख वो पाय।।

जैसा मन का भाव है, मिलता वैसा संग।
मन की इच्छा के बिना, होत नहीं सत्संग।।

ज्ञान धन संपत्ति बढ़े, करे नहीं अभिमान।
अभिमानी जो मन हुआ, मिलत नहीं सम्मान।।

सत्य सनातन सर्वदा, जहाँ धर्म का मान।
जीवन फलता फूलता, विश्व करे यशगान।।

प्रकृति ने सबको दिया, एक बराबर धूप।
जैसा मन में भाव है, वैसा खिलता रूप।।

सच्चे मन से लीजिए, हरपल प्रभु का नाम।
सुख वैभव समृद्धि बढ़े, बनते बिगड़े काम।।

प्रेम दिनन मत बाँधिये, ये वो जीवन डोर।
रिश्तों को सुंदर करे, जैसे पावन भोर।।

प्राची की पहली किरण, आयी मन के द्वार।
धीरे-धीरे खुल रहे, बंद हृदय के द्वार।।

द्वार हृदय के खोलकर, सबका करिये मान।
भाव हृदय के शुद्ध हो, स्वतः बढ़े सम्मान।।

बीते कल को भूलकर, नूतन हो शुरुआत।
आशायें हों सारथी, नई बने फिर बात।।

लोभ मोह मद क्रोध सब, करते मन की हानि।
जीवन सुंदर चाहिये, ये अवगुण पहचानि।।






©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01फरवरी, 2023

नीलकंठ कहलायेगा।

सभयसिंधुगहिपदप्रभुकेरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥
   समुद्र नेभयभीतहोकरप्रभु के चरण पकड़करकहा- हेनाथ! मेरे सबअवगुण (दोष)क्षमाकीजिए।हे नाथ! आकाश,वायु,अग्नि, जल और पृथ्वी-इन सबकी करनीस्वभाव से ही जड़ है॥1
नीलकंठ कहलायेगा। 

बीत गई कितनी सदियाँ जब परछाईं तक छू न सके
चाहा कितना जोर लगाया अनुमानों तक छू न सके।
हुआ असंभव कद को पाना और पहुँच के बाहर था
मरे शब्द अधरों से गिरकर चाहा कितना जी न सके।।

भाव प्रभु श्री राम सा मिलना है इतना आसान नहीं
चक्र सुदर्शन धारी बनना सोच सके आसान नहीं।
त्याग तपस्या के बल से ही इनके पथ को पा सकते
द्वेष भाव औ बैर भरा हो तो पथ ये आसान नहीं।।

कलयुग का है खेल सभी ये मन सबका भरमाया है
अपने-अपने मन विवेक से सबने भाव बनाया है
जो अक्षर बोध समझ न पाये चले व्याकरण समझाने
अपना घर तो सँभल न पाया प्रभु पर प्रश्न उठाया है।।

माना तुम हो सही गलत वो क्या वो कद छू सकते हो
तुम कहते हो गलत किया है क्या तुम वो कर सकते हो।
जिन्हें वोट की चिंता रहती त्याग तपस्या क्या जानें
जन-जन के मन में बसने को क्या सोने सा तप सकते हो।।

एक शब्द के अर्थ बहुत हैं सबको है मालूम यहाँ
द्विअर्थी संवादों में जो सदा खोजते मर्म यहाँ।
मनमाफिक सब अर्थ बना कर दुनिया को भरमाते हो
अपने जिह्वा की फिसलन पर बोलो क्या सकुचाते हो।।

मर्यादा की खातिर जिसने सुख जीवन का त्याग दिया
जितनी ही विपदाएं आयीं हँस कर बस सम्मान किया।
हमें सिखाया जिसने जीवन व्यर्थ नहीं गँवाते हैं
विपदाओं के महासमर में कभी नहीं घबराते हैं।।

एक न सत्य धर्म की खातिर खुद पर कितना दाग लिया
जिस कोख से जन्म लिया था उसी कोख का त्याग किया।
हर संभव संकट को जिसने हँसकर खुद पर झेला है
गोवर्धन उँगली पर रखकर विपदाओं से खेला है।।

मात-पिता भाई का रिश्ता इक ने सबको सिखलाया
धर्म-अहिंसा सत्य सनातन इक से जग ने है पाया।
इक ने वचन बद्धता दी है दूजे ने है ज्ञान दिया
इक ने मूल्य सिखाया जग को दूजे ने सिद्धांत दिया।।

इक ने राजधर्म सिखलाया दूजा कूटनीति में माहिर
इक ने नीति धर्म सिखलाया इक की सेवा जग जाहिर।
दो नामों में मंत्र सभी है न जादू न टोना जंतर
यही शास्वत सत्य यही है और यही जगत में सुंदर।।

तनिक असुविधा होते ही जो सिर पर व्योम उठाते हैं
झूठी शानो शौकत पर जो फूले नहीं समाते हैं।
सत्ता सुख की खातिर क्या है वचनबद्धता क्या जानें
सत्ता के गलियारों का जो रस्ता केवल पहचानें।।

इन पर प्रश्न उठाना है तो इन जैसा बनना होगा
जितना त्याग किया जीवन में त्याग वही करना होगा।
आसानी से कब मिलता है उम्मीदों को पंख यहाँ
सेज फूल की यदि चाहो काँटों पे भी चलना होगा।।

अपने भीतर झाँकेगा जो वही सत्य जी पायेगा
सागर का मंथन जब होगा अमृत तब ही आयेगा
दूर खड़े हो प्रश्न उठाना रहता है आसान सदा
लेकिन विष जो धरे कंठ में नीलकंठ कहलायेगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31जनवरी, 2023

खिली कली मन की मुरझाई।

खिली कली मन की मुरझाई। 

रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

साँझ ढले मन के पनघट पर
कैसी फिसलन जान न पाया
खाली घट मैं लिए खड़ा था
सागर था, पहचान न पाया
कुछ सपनों की चाहत गहरी
नयनों की प्यासी धरती पर
जाने फिर क्यूँ स्वप्न गिरे
रक्तिम गालों की धरती पर
अधरों ने जब कहना चाहा
बात हुई सब सुनी सुनाई
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

राहें तक-तक पलकें हारीं
कितने जीवन पार हो गए
सूना-सूना मन का आँगन
सावन बीता क्वार हो गए
जितने महल बने ख्वाबों के
द्वार पलक के आकर ठहरे
चाहा कितनी बार सजा लूँ
पर जाने थे कैसे पहरे
द्वार ठहर कर देख रहा मन
सूने आँगन की परछाईं
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

संझा चाह मिलन की लेकर
रात-दिवस से रही उलझती
दूर क्षितिज पर उम्मीदें थीं
साँसें पल-पल रहीं कलपती
दूर सभी रस्ते ठहरे थे
जाना है किस ओर न जाने
रुँधे कंठ ले सांध्य खड़ी थी
आँसू का आवेग न माने
संझा आज स्वयं के घर में
क्या कहती क्यूँ हुई पराई
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जनवरी, 2023

सपने कुछ हमने भी बोए।

सपने कुछ हमने भी बोए।

यादों के कुछ मौन पलों में
बूँद पलक के द्वारे आए
कुछ ने मन को बहलाया
आहों को कुछ भरमाए
कुछ बूँदों में चैन मिला है
कुछ में हमने जीवन खोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

रही हथेली रिक्त भले ही
नहीं शिकायत रही समय से
लम्हों से कितने दर्द मिले
नहीं शिकायत करी समय से
गिरे हाथ से लम्हे कितने
लेकिन दामन नहीं भिंगोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

रूक जाता तो कैसे जीता
थमने का कुछ मोल नहीं था
रुक कर आँसू ही पीता जो
सपनों का कुछ मोल नहीं था
बने बिगड़ते सपने लेकर
जग जाने क्या, कितना रोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28जनवरी, 2023

मुक्तक।

मुक्तक।  

समंदर के किनारों ने लहर से और क्या पाया
कभी ठोकर थपेड़े औ कभी अवसाद है पाया।
हजारों जख्म खाते हैं मगर चुपचाप रहते हैं
समेटे दर्द कितने ही नया पर गीत है गाया।।
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भले हों बंदिशें कितनी राहें खुल ही जाती हैं
दिलों को जीत लेती हैं साँसें खिल ही जाती हैं।
नहीं अफसोस रहता है मिले जब साथ अपनों का
चलें जब साथ मिलकर के राहें मिल ही जाती हैं।।
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मिले जो दर्द तुमसे अब नहीं उसका मुझे गम है
तुमसे जख्म जो पाये वही अब मेरे मरहम है
मगर इक कशमकश सी है मुझे जो सालती रहती
मुकम्मल जिन्दगी है या अभी कुछ और भी गम है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       27जनवरी, 2023

जाना है क्या ये जीवन।

जाना है क्या ये जीवन।  

प्रभु आपकी शरण में आया तो जाना जीवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

भटका हुआ था जीवन खोई हुई थी राहें
क्या जाने किस गली में खोई हुई थी चाहें
आशीष जब मिला तो पाया है मैंने जीवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

अपना क्या जगत में जो मिला है सब तुम्हारा
अनजाने रास्तों पे है बस आपका सहारा
बस आपकी कृपा से पाया है मन का मधुवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

प्रभु पंथ भी तुम्हीं हो औ तुम ही हो ठिकाना
भूलूँ मैं राह जब भी तू ही रास्ता दिखाना
प्रभु आपकी कृपा से महका है मन का उपवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

झूठा जगत है सारा बस एक तू ही सच्चा
नादान हूँ अभी मैं क्या जानूँ क्या है अच्छा
आशीष पाया जब से अंतस हुआ ये पावन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जनवरी, 2023

साज दिल के।।

साज दिल के।  

चली कैसी ये पवन 
आज तुझसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

नहीं जोर अब तो
दिल पर है कोई
जागने लगीं अब
रातें जो सोईं
नया पाया जीवन
तुझसे ही मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

नये ख्वाब आंखों में
अब आने लगे हैं
खोई थी राहें जो
हम पाने लगे हैं
नए गीत अधरों पे
सजे तुमसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

यही दिल की चाहत
कि कोई जनम हो
तुमसे शुरू हो औ
तुम पर खतम हो
सजा दिल का उपवन
मेरा तुमसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24जनवरी, 2023

अवधी गीत- दहेज कुप्रथा।

अवधी गीत- दहेज कुप्रथा।  

पाई-पाई जोड़ि-जोड़ि के करईं व्यवस्था मुश्किल से
जोड़ईं हाथ मूड़ नवावईं माँगइ मोहलत तंग दिल से।

कइसन जग में रीत चलल बा पैसा ही भगवान भइल
बिटिया जनमब यहिं युग में बोला का अपमान भइल।

मंदिर-मंदिर चौखट-चौखट केतनी अरज गोहार लगायेन
तब जाई के ओनकर घर मे सुंदर सी एक बिटिया पायेन।

किलकारी सुनि के बिटिया के दुख सारा बिसराई दिहिन
बिटिया के न बोझ समझिहा घर भर के समझाई दिहिन।

अइसन लागइ देखि के ओहके परी धरा पे उतरी हौ
अउ दादी-दादा नानी-नाना के आँखे के पुतरी हौ।

आँखी से जो आंसु गिरइ तो काम छोड़ि सब दौड़ई लागईं
कोरा में लेई के सब केयू आँसू ओकर पोंछई लागईं।

बीतत समय देर केतना पढ़ि लिखी बिटिया भई सयानी
सोचि विदाई बिटिया के बहई आँख से झर-झर पानी।

लेकिन जग के रीति पुरानी केयू बिटिया के कब राखि सकल
केतनउ चाहई अपने मन में समय के का केऊ बान्हि सकल।

योग्य देखि के बिटिया खातिर ब्याहें के इंतजाम किहिन
रुपया-पैसा, गहना-गुरिया यथाशक्ति वरदान दिहिन।

एककई बिटिया जानि के लरिका वालन मुँह बाढ़ई लाग
छवउ महीना नाहि बिता कि फिर से पैसा माँगई लाग।

एक दुइ बार त ओनके मन के सारी इच्छा पूर किहिन
करजा वरजा काढ़ि के कइसेउ हाथे पइसा लाई धरिन।

एक त बियाहे के करजा ऊपर से ई नई समस्या
अब त जीवन लागई लाग अपने मां इक नई समस्या।

कुछ दिन ले बरदाश्त किहिन फिर पानी सर से ओर होइगा
हर आये दिन नई माँग अब मुश्किल दाना-पानी होइगा।

रोज-रोज के मार पीट से मन सब कर उकताई गवा
जवन सोन एस मोह बिटिया के उ कइसन मुरझाई गवा।

हद त होइगा एक दिन लरिका बिटिया के पहुंचाई दिहिन
नई कार के लिस्ट हाथ पे लाई के उनके थमाई दिहिन।

अब हमसे बरदाश्त न होई बाबू आखिर केतना करब
रोज-रोज के इनकर लालच अउर ताड़ना अब न सहब।

मोह के खातिर बिटिया के अब नई कार मँगवाई दिहिन
बेचि के आपन बिस्सा ओनकर घर पइसा पहुंचाई दिहिन।

लेकिन लालच अइसन मन में नवा पाप संचार भयल
मार-पीट आये दिन ताना अब जीवन के आहार भयल।

मूड़ पकरि के बिटिया रोवइ अउर न कउनो रस्ता सूझै
हाथ जोड़ि के कहेस प्रभु से अगले जनम न बिटिया कीजै।

एक दिन ई संदेश मिलल के बिटिया के सब जारि दिहिन
छाती पीट के माई रोवइ बिटिया के हमारे मार दिहिन।

कोर्ट कचहरी भयल मुकदमा सब अपराधी जेल ग्याल
लेकिन बिटिया के दोष रहा का जेकरे साथे पाप भयल।

लालच के खातिर दुनिया में मनई केतना अंधा होई गा
सूट-बूट से ऊपर बाटई भीतर से मुदा मंगा होई गा।

का बिटिया के जीवन के यहिं समाज मे मोल नहीं
केहू बतावइ कि समाज में का जीवन अनमोल नहीं।

दहेज प्रथा की आड़ में कितना जीवन ई बरबाद भइल
शिक्षा, संस्कृति अउर सभ्यता ई सबकर अपमान भइल।

गर सम्मान मिली नारी के जीवन ई खुशहाल रही
चीर द्रौपदी के खींची जे ऊ जीवन बदहाल रही।

कुरुक्षेत्र होई जाये जीवन कौरव जइसन हाल होई
मूल रही न जीवन के कुछ ई दुनिया बेहाल रही।

सृष्टि के निर्माता नारी अउ जीवन के पालन कर्ता 
इनके ही सम्मान से घर के सारा दुख दरिद्र हरता।

दहेज प्रथा उ दीमक हौ जो समाज के चलि डाली
जो एकर अंत न होई मनुज सभ्यता छलि डाली।

कहे देव अब गाँठ बान्हि ल बात यही अनमोल अही
जेहिं घर नारी जीवन कलपी वहिं घर के कउनो मोल नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
       हैदराबाद
       23जनवरी, 2023

अवधी गीत-कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

 अवधी गीत- कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

गंगा, यमुना, आदि गोमती अरु सरयू के का हाल भइल
कतहु पे कचरा कतहु पे टेनरी अउर कतहु अपमान भइल
कतहु पे नाली गिरत अहइ अउर कतहु पे केऊ पानी रोकई
कतहु पे काटई पेड़ रूख अउर कतहु पे केऊ गंदा झोंकई
अइसन ही जो हाल रही तो निर्मल कबहु न गंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

गंगोत्री से निकली हैं अउर हरिद्वार पे धरती आइन
जड़ी, बूटी पर्वत से लाइन दुनिया के जीवन दिखलाइन
जउने-जउने राह चलिन कुलि राह पवित्र कई देहलिन
रोग, दरिद्र दूर करिन अउ खुशहाली घर-घर देहलिन
इनके अपमान जहाँ होई मन वु कबहु न चंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

खेती-बाड़ी अउ लरिकन-बच्चन तुहिं जीवन के मूल्य अहियु
शिक्षा, संस्कृति, धरम, सभ्यता, नैतिकता के मूल अहियु
तोहरी गोदिया में खेल कूद के भारत के माटी सोन भयल
राम, कृष्ण, गौतम, नानक, गीता, पुराण अनमोल मिलल
एक बूँद से तोहरे मिल के गड़ही भी गंगाजल होइहैं
बिन तोहरे मन ई शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

जउने-जउने रस्ता चललू वहिं के माटी हरियाई दिहु
लोभ, मोह अउ पाप के मन से बहरे रस्ता दिखलाई दिहु
काशी, प्रयाग अउर गंगा सागर धरती पे स्वर्ग बसाइयू तू
शंखनाद करि कुरुक्षेत्र में पांडव के युद्ध जिताइयू तू
जेकरे मन मां पाप बसल हौ सकल जगत मां नंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

कहे देव बस पानी नाहीं तू भारत के प्राण वायु अहियु
दुख-दरिद्र दूर करे जो अइसन तू वरदान अहियु
तोहरे पानी के अंजुलि भर के देवलोक भी धन्य भयल
आशीष मिलल बा हम सबके हमरो जीवन भी धन्य भयल
जो तू रहबियु मैली अब भी भारत के मन ई गंदा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       22जनवरी, 2023

अवधी गीत-मन सोचई पहिले।

अवधी गीत-मन सोचई पहिले।  

बहुत कठिन बा का दुनिया मे
अपने मन के काबू करना
जग से अच्छी बातें सीखब
ओहके फिर से लागू करना
हरदम मन मे दुविधा कइसन
चाहेस केतनी बार कि कहिले
लेकिन कइसे बात कही सब
सोच नाई पायेस मन पहिले।।

कउनो गलती ओहर रहल
अउ कउनो गलती यहर रहल
तनिक बिगाड़ ओहर भयल
अउ तनिक बिगाड़ यहर भयल
तोहसे भी कुछ सहल गइल न
एहरौ मनवा कुछ न सहले
लेकिन कइसे बात कही सब
सोच नाई पायेस मन पहिले।।

अब पछताए होय काऊ जब
चिड़िया चुगी गयी खेत सकल
तुहई बतावा तब का करिता
मनवा में जब वहम रहल
कइसे मेल उहाँ संभव हो
केऊ न कदम बढावईं पहिले
कइसे ई सब सहल होई
सोचई अब तो मन ई पहिले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जनवरी, 2023

अवधी गीत-गलत हमेशा गलत रही।

अवधी गीत-  गलत हमेशा गलत रही।  

नवा जमाना देख के मन में
कइसन-कइसन भाव जगल
लालच, लोभ, मोह में पड़ि कर
अइसन वइसन चाह जगल।

बॉलीवुड के देखि सिनेमा
लोगन के मन बदलत बा
धरम करम के प्रति लोगन के
भाव चित्त से उतरत बा।

केहू कहे बेसरम रंग हौ
लगे केहू के सब उद्दंड
औ केहू के लागत बाटई
पूजा-पाठ भक्ति पाखंड।

दुसरे के घर देखि हवन
आपन खिड़की बंद करईं
शंख-नाद सुनि के सारे
काने के अपने बंद करईं।

केहू कहत हौ भोले जी के
दूध चढ़ाउब व्यर्थ इहाँ
राम-नाम के पाठ केहू के
लागत बाटई व्यर्थ यहाँ।

टीका-चंदन मंदिर-मंदिर
अपराधिन के डेरा बोलेन
वेद-पुराण ऋषि मुनि के
बदनाम करे खातिर मुँह खोलेन।

नवा जमाना देखि के ओनकर
मनमाना सब ढंग भईल
कलि तक साड़ी ठीक रहल
अब काहे के तंग भईल।

देह देखाइब बॉलीवुड में
लागत हौ सम्मान भईल
नीति शास्त्र के बात इहाँ
जइसन के अपमान भईल।

फिल्मन के नङ्गेपन पर
कहें, जनता इहे देखइ चहे
केऊ नँगा होइके आपन फोटो
पेपर-पेपर बेचई चाहें।

जब तक सब चुप रहल इहाँ
छेड़-छाड़ त खूब भईल
बॉयकाट के हवा चलल तो
खटिया काहें टूट गईल।

भिनसारे केयू कहेन आई के
नशा वशा केऊ नही करित
संझा होतइ दूसर बोलेन
थोड़-थाड़ सब कबहु करित।

कहे अजय यदि निक दिन चाहा
चाल, चरित्र अउ चित्र संभाला
राष्ट्र, धर्म, शिक्षा संस्कृति के
मूल के आपन ध्येय बना ला।

राम, कृष्ण, गीता रामायण
भारत के सब मूल तत्व हौ
इनकर अपमान इहाँ पर
जे करई ऊ दुष्चरित्र हौ।

गलत हमेशा गलत रही
केतनउ चाहा ठीक न होई
जेकरे मन में भाव गलत हौ
कबहु राष्ट्र के मीत न होई।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जनवरी, 2023



जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

दीप की रोशनी में सुबह हो गयी
रात भर चाँदनी छटपटाती रही
चाँद चलता रहा रात भर आस में
चाँदनी दूर से ही बुलाती रही।

चाँद के दर्द का अर्थ होगा नहीं
भाव उसके तुम्हें जो जता न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

जिन्दगी में सभी कुछ मिला कब यहाँ
कुछ न कुछ तो कहीं पर कमी रह गयी
मिल न पाया सहारा सदा बाँह का
कुछ न कुछ आस मन की दबी रह गयी।

बेसहारे रहेंगे इरादे सभी
आज उसको तुम्हें जो बता न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

चाह जिसकी हृदय को हमेशा रही
वो मुझको तुम्हारे हृदय में मिला
मन भटकता रहा इस नगर में सदा
देख तुमको हुआ खत्म वो सिलसिला।

स्वर्ग भी अब मिले व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को लुभा न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जनवरी, 2023

जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।

जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।

कुछ अधूरी ख्वाहिशें 
कुछ अधूरी चाहतें
स्वप्न के कुछ पल यहाँ
मौन कदमों के निशाँ
कुछ मचलती राहतें
दूर होती आहटें
वक्त से न जाने क्यूँ
एक लम्हा रूठ जाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

नेह के कुछ पल यहाँ
संग बीते कल वहाँ
एक हल्की सी छुअन
प्यार की मीठी चुभन
वो नजर का फेरना
और फिर से देखना
फिर पलक के कोर से
बूँद बन, टूट जाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

वो धूप में बाहर निकलना
बारिशों के संग फिसलना
वो चाँदनी रातें सुहानी
नानी-दादी की कहानी
देर तक चलती वो बातें
छोटी लगती थी वो रातें
चाँद का आँगन उतरना
फिर-फिर याद आता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

जा के आँचल से लिपटना
और फिर उसमें सिमटना
वो खिलौने को मचलना
और कदमों को पटकना
माँगना आकाश तारा
और कहना जग हमारा
वो दूध की छोटी कटोरी
फिर सब याद आता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

शाम को घर से निकलना
दोस्तों के संग टहलना
वो समोसे की लड़ाई
एक दूजे की खिंचाई
साइकिलों पर दूर जाना
अभाव में भी सब कुछ पाना
वो दिलों की चाहतें
अब भी तड़पाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       17जनवरी, 2023

शायद।

शायद।  

मेरे मन की बातों को वो खेल समझते हैं शायद
झूठे वादों को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

कुछ खामोशी गहरी होती क्यूँ इतना आभास नहीं
शोर मचाने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

नयनों के सूनेपन के भावों को कब समझा है
पलक झपकने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

यादों में कुछ गीत बसे हैं जिनकी याद सुहानी है
गीत मचलने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

कह देना मुश्किल लगता चुप रहना आसान नहीं
बेफिकरे इस दुनिया को खेल समझते हैं शायद

मन ने दर्द जिया पग-पग पर नहीं शिकायत करी कभी
सहनशीलता को दुनिया में खेल समझते हैं शायद

कुछ सपनों का इन आँखों से गहरा कुछ तो नाता है
इस नाते को दुनियावाले मेल समझते हैं शायद

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जनवरी, 2023

फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।


छोड़ कर जिन रास्तों को आ गया हूँ
फिर मुझे उन रास्तों पर मत बुलाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

ढल चुकी रात जो गहरी अंधेरी
उस रात से मेरा नहीं अब वास्ता
जिन दिशाओं से अभी छूटा हूँ मैं
अब उन दिशाओं से नहीं है वास्ता।

जिन रास्तों में दर्द से गुजरा हूँ मैं
फिर मुझे उन रास्तों को मत दिखाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

वादे मन के द्वार पर घुटते रहे 
यादों ने उनको कभी देखा नहीं
कुछ घुटे से दर्द अब भी राह तकते
है रास्ते क्या कंठ ने सोचा नहीं।

हैं घुटे उस दर्द के नासूर जो भी
उनकी आहों को मुझे मत सुनाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

आज मन की गाँठें सारी खुल गईं
सब दर्द की आहें हृदय में धुल गईं 
मन पे कोई बोझ अब कुछ भी नहीं
खोई मन की साँस सारी मिल गईं।

कंठ में थी घुटी जो साँसें कल तक
फिर से उनको कंठ में मत दबाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जनवरी, 2023

जीत का मंत्र।

जीत का मंत्र।   

सूर्य की रश्मियों से
तेज लो प्रकाश लो
मुट्ठियों को खोल कर 
सारा तुम आकाश लो
शास्त्र वीर काँधों पे 
शस्त्र तुम सजा लो अब
उठो के शत्रु सामने है 
तेज तुम दिखा दो अब
तेज हो प्रभाव हो
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।


राष्ट्र की पुकार है 
भागवत का सार है
शत्रु जब हो सामने 
प्रचंड तू प्रहार कर
भीम सा प्रभाव हो 
न मन पे कुछ दबाव हो
शत्रु के रक्त से 
धरा का तू श्रृंगार कर
मन में न अभाव हो
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।

वार तू प्रचंड कर 
स्वयं पर घमंड कर
हो जहाँ खड़े रहो 
चट्टान से अड़े रहो
नेह के प्रभाव तुम 
आज सारे त्याग दो
इस धरा को आज तुम 
शत्रुओं से पाट दो
वक्त की यही पुकार 
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।

राह में रुके नहीं
शीश ये झुके नहीं
युद्धवीर बन चलो
राह अब थके नहीं
राष्ट्र की अखंडता का
तुम ही तो प्रमाण हो
जीत के नव राग से
शांति का निर्माण हो
शांति का आधार बन
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है
चले चलो चले चलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14जनवरी, 2023


चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।


आज साँसों ने मचलकर है पुनः तुमको पुकारा
चाहता हूँ वेणियों में गूँध दूँ आकाशतारा।।

माँग में तेरे सजा दूँ नेह की सारी कलायें
पाश में भरकर उतारूँ मैं तिरी सारी बलायें
माथ पर तेरे सजा दूँ भोर का पहला सितारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

नैन मैं मैं आज भर लूँ प्रेम की हर भंगिमा को
इस हृदय को मैं सजाऊँ चाहतों की लालिमा से
और भर दूँ इस भुवन में आज मैं मधुमास सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

पुष्प से मधुरस चुराकर आज अधरों पर लगा दूँ
बाल रवि की रश्मियों को इन कपोलों पर सजा दूँ
आज रच दूँ गात पर मैं धरा का श्रृंगार सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

पास बैठो मैं भरूँ पिय अंक में मृदु रत्न सारे
भरे पुष्पित भाव मन में स्वयं रतिपति जो सँवारे
नव्य कलियों की दमक से आज भर दूँ अंक सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

यूँ सजा कर रूप तेरा चाहता तुमको निहारूँ
धूप-बाती प्रेम की ले आरती तेरी उतारूँ
और आलिंगन धरूँ मैं नेह का अमृत पिटारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10जनवरी, 2023

झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

अपने मन से भार उतारा दूजे के सिर माथ चढ़ा कर
हाहाकारी इस जीवन में अपना पद अरु मान घटाकर
दूजे के भावों को छलकर जीना मुश्किल यहाँ बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

मन के झूठे अनुरोधों पर साँसें भी असमर्थ हुई हैं
ढँक कब पाया झूठ-तर्क सब आहें सारी व्यर्थ हुई हैं
किन्तु मोह के आगे सारे जीवन के प्रतिबंध गिरे हैं
जैसे पतझड़ ऋतु आते ही शाखों से सब पुष्प झरे हैं।

पतझड़ ऋतु में पुष्पाच्छादित उपवन का मनुहार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

पग-पग जीवन एक पहेली कुछ सुलझे कुछ सुलझ न पाये
कुछ उलझे निज परिभाषा में चाहा मन पर समझ न पाये
जाने कैसी अनुशंसा में निज मन ये उलझा जाता है
खोल न पाये गाँठ हृदय की बंधन कब सुलझा पाता है।

अनुशंसा में उलझे मन को खलता ये व्यवहार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

बाँध हवा को पाना मुश्किल कितने ही आये चले गये
जितने महाबली उभरे थे सब समय चक्र में छले गये
दूजे मन को दूषित कर के कब मिलता है सम्मान यहाँ
शकुनी की चालों को मिलता सदा उचित परिणाम यहाँ।

गीता के हर उपदेशों का निज मन पर उपकार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जनवरी, 2023

मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

लिखना था तुम्हारे संग चाहा पर न लिख पाया
अधूरे गीत अधरों पर रुके पर मन न गा पाया
रुकी जो चाहतें मन में अभी तक वो सताती हैं
विरह ने गीत जो गाया अभी तक मन न सह पाया।

मिलन के स्वप्न नयनों में अभी तक वो अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

वो खुशबू आज भी मन के कोनों में महकती हैं
वो साँसें आज भी पल-पल आहों में दहकती हैं
आहों में अभी तक भी तुम्हारी चाह जिंदा है
यादों के चिरागों की वो धीमी लौ तड़पती है।

जली बाती चिरागों की मगर सपने अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

जाना जो जरूरी था तो इतना ही बता जाते
नहीं जो रीत थी कोई निगाहों को जता जाते
न लेता दोष सर माथे गिरे जो हाथ से लम्हे
कि अपने हाथ से खुद ही मिटा कर नाम तो जाते।

गिरे कुछ हाथ से लम्हे बचे जो हैं अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जनवरी, 2023


बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।


देर तक रहे खड़े नैन ये भरे-भरे
चाहतें मुखर हुईं राहतें सिफर हुईं
दर्द को मिली डगर थी कहाँ किसे खबर
आस भी सिमट गई राह भी सिमट गई
चूर थक के हो गये दूर सबसे हो गये
कह सके न बात को सह सके न घात को
शून्य को निहारते स्वयं को पुकारते
कंठ थे भरे-भरे हम रहे खड़े-खड़े
नेह सभी लुट गये मौन हुई गीतिका
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

सांध्य जब मुखर हुई रात ने छुपा लिया
सब दिवस के दर्द को आह ने दबा लिया
साँस थी घुटी-घुटी आहटें छुपी-छुपी
शब्द जो कहे नहीं दूर से समझ गए
कुछ कहे, कहे नहीं, मौन रह पलट गए
और शोर ने कहा बात जो समझ गये
शून्य को निहारते बात क्या सँभालते
सोच में पड़े-पड़े हम रहे खड़े-खड़े
स्वप्न सभी लुट गये जागती रही निशा
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

जब नहीं है वास्ता क्यूँ चले मन रास्ता
दूर जब सभी हुए दोष सब बरी हुए
रात की करवटें कह सकी न सिलवटें
दंश जब वहाँ छुए दूर अंक से हुए 
कह सकी न रात कुछ बुझ गये सभी दीये
दीप जो जले रहे सोचते पड़े रहे
कर्ज क्या उतारते भोर को पुकारते
रात भर जले-जले यही सोचते रहे
मुक्त कंठ हो गए राख हुई गीतिका
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जनवरी, 2023


तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

थे लगे प्रतिबंध कितने और कितनी थी कथाएँ
हर कथाओं से जुड़ी थीं कुछ पुरातन भावनाएँ
किंतु सारी भावनाओं से हुआ मन दूर देखो
स्वप्न कुछ ठहरे अधूरे हो न पाए पूर्ण देखो
भावनाओं से निकलकर दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

है असंगत मेल जब ये क्यूँ सहे फिर ताप मेरा
शब्द से छलनी हुआ मन फिर सहे क्यूँ पाप मेरा
क्यूँ दबाये फिर हृदय में जग रहे निज वेदना को
क्यूँ नहीं फिर से जगाये सुप्त मन की चेतना को
वेदनाओं से निकलकर दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

क्यूँ समय को दोष देना जब सभी अनुबंध ढीले
रोक अधरों को न पाया हो गए संबन्ध ढीले
आज आकुलता हृदय की जल गई सब दीपिका में
लिख दिए अनुबंध नूतन टूटती इस तूलिका ने
तोड़ कर इस तूलिका को दूर कितना आ गया हूँ
तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जनवरी, 2023


दूर निकल आया मन सबसे।

दूर निकल आया मन सबसे।

पल-पल भावों को तड़पाकर
नयनों में जो चुभते रहते
सिलवट भरी करवटों में जो
रात-रात भर घुटते रहते
जिसने दर्द दिया साँसों को
घुट-घुट जिसमें रहे सुबकते
मुक्त किया बंधन से तन को
दूर निकल आया मन सबसे।।

जली आस बस राख रह गयी
खाली हुआ अंक यादों से
विस्मित हो पल ताक रहे थे
मुक्त हुआ झूठे वादों से
मन की कतरन सिले बिना ही
छोड़ दिया सब साँस दरकते
मुक्त किया साँसों को प्रण से
दूर निकल आया मन सबसे।।

कुछ सपने जीवन से उलझे
प्रतिपल कैसी बहस छिड़ी है
तर्क यही है कौन बड़ा है
बीच मौन है किसे पड़ी है
स्वप्न प्रलोभन छोड़ डगर में
बारिश भींगी स्वयं बरसते
मुक्त किया सब स्वप्न नयन से
दूर निकल आया मन सबसे।।

किसको कह दें आज सँभालो
मन किसको दे जिम्मेदारी
मुक्त करेगा कौन साँस को
दे किसको मन आज सुपारी
जीत गया फिर वक्त आज भी
सपने फिर सब रहे तरसते
मुक्त किया जिम्मेदारी से
दूर निकल आया मन सबसे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जनवरी, 2023

खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।

जाने दुःख ने किया बसेरा
अंतर्मन के किन भावों में
तकती आँखें भरी दुपहरी
मृदुल नेह को अनुरागों में
मन में कोई भाव न आया और न कोई चाहत पनपी
सारा दिवस बीनते बीता आशाएं जो बिखरी मन की
बिखरे मन की आशाएं सब रहीं बीनती टूटा दर्पण
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

कुछ यादों के पुष्प भरे थे
जाने मन फिर भी था रीता
भय ने कैसा डेरा डाला
रात कटी कब दिन कब बीता
सुध-बुध बिसरी जिन गलियों में नहीं याद थी उसमें तन की
उन राहों में खुशियाँ भटकीं भूल गईं सब आहें मन की
पतझड़ बीता सावन आया बूँदों को फिर भी तरसा मन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

मन का घट भरने को आईं
सेज सजाने आशाओं की
पपिहे ने मृदु गीत सुनाया
पावस ऋतु में मधुमासों की
लेकिन बरखा बीत गयी सब रहीं तरसती आँखें मन की
गुजर गईं ऋतुएं भी सारी घुटी रही सब साँसें तन की
मधुमासों ने नेह लगाया मन में पर जाने क्या उलझन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

कंकड़ पत्थर गूँध-गूँध कर
चाक सजाया बना खिलौना
खाली पन में रंग भरे पर
मन जाने क्यूँ सूना-सूना
पल-पल तकती रहीं द्वार को चूड़ी नहीं न कंगन खनकी
पीड़ा ने बस नेह जताया सुनी रुदन उसने ही मन की
कितना कुछ पाया मन तुमसे फिर जाने क्यूँ रीता मृदु वन
खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जनवरी, 2023

जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें फिर से मिल जायें।।

जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

यूँ मत फेरों नजरों को अंतस का दर्पण हिल जाये
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

मौन मुखरित हो सके फिर भाव की गहराइयों में
छाँव हल्की मिल सके फिर टूटती परछाइयों में
कह सकें फिर बात सारी जो गिरे लम्हें कहीं पर
मुक्त हो मन कह सके फिर वक्त की बातें वहीं पर
 अँगड़ाइयाँ में।

यूँ मत तोड़ो डोर आस की टूटे सपने गिर जायें
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

बनकर समर्पण हैं पड़ीं अब तक भुजायें नेह की
सुर्ख मन को हैं भिंगोती स्वेद बूँदें मेह को
है अभी तक याद मन को मृदु पाश की मीठी छुअन
छू के आँचल से तुम्हारे जो मिली पगली पवन।

यूँ मत रोको मुक्त पवन को भाव हृदय के घुट जायें
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

जी उठेगी भावनाएँ अब बंद मन को खोल दो
सामने जो भी तुम्हारे सब आज मन की बोल दो
मन को मन की चाह प्रतिपल मन ही मन को खोजता
अपने अंतस की ध्वनि में मन है मधुरता खोजता।

यूँ मत रोको मन की राहें मन में गाँठें पड़ जाये
जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें  फिर से मिल जायें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जनवरी, 2023


दिल के मैखाने में।

दिल के मैखाने में।  

मिला दर्द जितना भी इस जमाने में
राहतें उतनी मिली तेरे मैखाने में

सुकून-ए-दिल तलाशते रहे जितना
मिला वो हर बार मुझे इस पैमाने में

है मालूम सच जहर लगता है सब को
इसलिए झूठ को जिलाते हैं जमाने में

चाहा कितना कि सी लूँ मैं होठों को यहाँ
मगर नजरें कब रुकी हैं इसे जताने में

वार करते हैं हरबार रूठ जाते हैं
घबराते हैं आईने के पास आने में

बहुत मुश्किल है जान पाना दिल को
कभी तो बैठो देव दिल के मैखाने में

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31दिसंबर, 2022







जिंदगी पूछती कब है।



जिंदगी पूछती कब है।  

जिंदगी तू  भी  बोलती कब है
बंद  मुट्ठी को  खोलती कब है

कर ही देती है जो भी है करना
मौका  देने का  सोचती कब है

अपनी मरजी चलाने वालों को
ये  बता  दे  तू  टोकती  कब है

दौरे-हाज़िर में सितम् मुफ्लिस् पे
ढाने  वालों  को  रोकती  कब है

कितने  आये  चले  गये  कितने
तू बता किसको  ढूँढती  कब है

कितने   हसरत   दबाये  बैठे हैं
हाले-दिल उनका पूछती कब है

कैसे कह दूँ कि कुछ नहीं पाया
दे के कुछ भी तू  भूलती कब है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29दिसंबर, 2022


दर्द का रिश्ता।

दर्द का रिश्ता।   

दर्द का मुझसे अजब नाता है
कौन अब इतना निभा पाता है

काँटे हों फूल हों या खाली दामन
हर घड़ी मुझसे दिल लगाता है

लोग तो आते हैं चले जाते हैं
पास मेरे यही रह जाता है

कौन है अपना क्या पराया है
वक्त आने पर ये बताता है

आह जो निकली कभी दिल से
पास बस इसको अपने पाता है

लिखे गीत इसपर न जाने कितने
कौन है ऐसा जो इसे न गाता है

कहने को रिश्तों से भरी दुनिया
दर्द का रिश्ता दिल को भाता है

छोड़ परछाईं जब चली जाती
"देव" बस ये ही साथ आता है

उम्र ढली कितनी और बाकी क्या
साथ रहता है साथ जाता है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        28दिसंबर, 2022

राष्ट्रधर्म।

राष्ट्रधर्म।  

धर्म ध्वजा को छोड़ हाथ में क्या पारितोषिक लाये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

गीता का उपदेश सहजता से कैसे तुम भूल गये
विषकन्याओं की बाहों में तुम जाकर कैसे झूल गये
शील भंग दिखलाते हो क्या शर्म नही तुम्हें आती है
नङ्गेपन की महिमा गाते क्या जिह्वा नहीं लजाती है
बिखरा कर के धर्म संस्कृति बोलो कुछ क्या तुम पाओगे
आने वाली संतानों को क्या नंगापन दिखलाओगे
धनलोलुप हो रही सभ्यता क्या ये दिखलाने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

चौराहों पर शोर मचा कर बोलो किसको भरमाते हो
राह रोकते जन गण मन की पर पीड़ित स्वयं दिखाते हो
टुकड़े-टुकड़े के नारों से क्यूँ तुमने खुद को जोड़ा है
क्या अहसास नहीं ये बोलो के राष्ट्र भाव को तोड़ा है
संगीनों को लिए हाथ में बोलो किसको धमकाते हो
अनजाने ही मंसूबों में अब अरि के उलझे जाते हो
अपनी ही जननी का आँचल क्यूँ छलनी करने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

गीदड़ धमकी दिए जा रहा सरहद के उस ओर खड़ा हो
लगता जैसे जिद्दी बालक तोड़ खिलौना दूर खड़ा हो
गलबहियाँ कर बैठे जो भी अरि के झूठे अनुमानों में
डाल रहे हैं अपना जीवन स्वयं हाथ से व्यवधानों में
गयी पुरानी रीत यहाँ जो कभी बीतती मनुहारों में
अब सबको उत्तर मिलता है केशव के नव अवतारों में
मगरमच्छ के आँसू से अब किसको पिघलाने आये हो
भूल गए जो राष्ट्रधर्म तो क्या जतलाने आये हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25दिसंबर, 2022

आवाहन

आवाहन।  

आज विकल है सृष्टि सकल ये मौन रहे तो क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।
         
घिरा कुहासा आज धरा पर ओर-छोर कुछ नहीं दिख रहा
धुँधली हुई दिशाएँ सारी दिनकर जाकर कहीं छुप रहा
आज निराशा तेज हो रही जग के सारे अनुमानों में
लगता जैसे क्षीण हो रहे शक्ति रही जो वरदानों में
सुनो पुकार मौन की अब तो, अब तो जग को राह दिखा दो
भटका-भटका जीवन लगता नयनों में फिर आस जगा दो
नहीं जगे जो भाव सुनहरे जग को बस कल्पित पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।1।।

आज हवाओं में क्या जाने कैसा-कैसा जहर घुल रहा
किसको है मालूम यहाँ पर क्यूँ कर मन को घाव मिल रहा
बीच धार में मचली किश्ती दूर-दूर तक नहीं किनारा
तेज उफनती धाराओं में डूब न जाये भाग्य सितारा
तूफानों के बीच लहर पर मन शांत चित्त अनुमान लिखो
लहरों को निर्देशित कर दे, हाँ नौका का सम्मान लिखो
लिखो पंथ नवयुग नूतन हो बीते पथ में क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।2।।

विचलित पर्वत मौन है सागर पल-पल रीत रही है गागर
उच्छृंखल सब भाव हो रहे मैली होती मन की चादर
प्रतिपल अंतस द्वंद पल रहा साँसों को प्रतिबंध खल रहा
आवेशित हो रहे सभी अब जैसे अपना अंग जल रहा
भींगी पलकें रैन सताती करवट में रातें हैं जाती
अवसादों में गगन घिर रहा शुचिता का सब ढंग गिर रहा
गिरे ढंग जो इस जीवन के बिखरा मन तो क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।3।।

आँसू से पूरित नयनों में आ फिर से अंगार सजा दो
युद्ध भूमि में खड़ा हुआ मन आ जाओ फिर नाद बजा दो
टुकड़ा-टुकड़ा हुआ क्षितिज अब धरती का आँचल विह्वल है
रक्त चरित्र को देख मनुजता अंतरतम तक आज विकल है
आजादी पर ग्रहण लगा है धरती का आँचल घायल है
रुनझुन-रुनझुन जो बजती थी मौन हुई वो क्यूँ पायल है
अभिशापित हो रही द्रौपदी मौन रहोगे क्या पाओगे
अंक धरा का रीत रहा है कुछ तो बोलो कब आओगे।।4।।

ठहर न जाये गंग धार ये राहों के अवरोध हटा दो
ठहरी सभी शिलाएँ पथ की ठोकर से सब आज मिटा दो
आ सकते जो नहीं यहाँ तो मन को नूतन राह दिखाओ
अँधियारा हो घना भले ही राहों में फिर दीप जलाओ
चले राह खुद अपनी मंजिल ऐसा फिर आवेग सबल दो
असुरों का सब दंभ मिटा दे आज भुजाओं में वो बल दो
इतना भी जो नहीं हुआ तो युग-युग तक फिर पछताओगे
रीत गया जो अंक धरा का बोलो फिर क्या तुम पाओगे।।5।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24दिसंबर, 2022



जग से कब बंजारा होता।

जग से कब बंजारा होता।  

पुष्पित भाव लिए नयनों में मुझको काश पुकारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

नीर कोर तक आकर ठहरे गिरे नहीं पर कहीं खो गए
गीत सजाये जो साँसों ने अधरों पर आ मौन हो गए
मौन मुखर हो जाता उस दिन मुझको बड़ा सहारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

दुख अरु सुख का हुआ मिलन जब आँसू की पहचान हो गयी
पलकों से जो गिरे मचलकर जगती से अनजान हो गयी
नयनों ने कुछ बूँद बचाये वरना कौन हमारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

तारे जितने गिरे गगन से उनके मन की पीड़ा कौन सुने
खाली अंक लिए बैठा जो कुछ बोलो उसके कौन चुने
मन से मन का नेह नहीं जब मन को किया इशारा होता
मन से मन का नेह पनपता जग से कब बंजारा होता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22दिसंबर, 2022

नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

मौन सफर में चलते-चलते 
कितने लम्हे छूट गये
हुए पराए कितने अपने 
कितने अपने छूट गए
मुक्त हृदय पर रहा सफर में अपनी सबसे रही बंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

तेरे सच में मेरे सच में 
जितनी छुपी कहानी है
शोर किया पर जग कब माना
मेरी छपी जुबानी है
समय अंक के गंगा जल में मन की सारी घुलीं गंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

पीछे मुड़ कर देखा जब भी
राहों में इक रेख दिखी
समय पृष्ठ के हर पन्ने में
धुँधली सी इक लेख दिखी
त्याग समय के लेख अधूरे आगे बढ़ती रही जिंदगी
नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       22दिसंबर, 2022

अंतस का अंतर्द्वंद।

अंतस का अंतर्द्वंद।   

डूबता है मन न जाने 
कौन सी गहराइयों में
सोचता है डूबे न फिर
दर्द में रुसवाईयों में
अंक में जो द्रोह भारी
क्यों कहो स्वीकार कर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

क्यूँ अकेला चल रहा है
कुछ आज है उत्तर नहीं
शब्द हो या अर्थ जाने
कुछ आज है अंतर नहीं
जब घटायें हों घनेरी
क्यूँ सूर्य का प्रतिकार लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

जब खड़ा है युद्ध द्वारे
क्या सोच तेरी भूमिका
हाथ तेरे क्या सजेगा
कह खड्ग या फिर तूलिका
आज भर लूँ प्राण नूतन
तूलिका में धार भर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

था बहुत मुश्किल हमेशा
स्वयं से लड़ना यहाँ पर
खींचना प्रतिबंध रेखा
रोकना मन को वहाँ पर
मन भटकता ही रहा जब
बेड़ियों में आज धर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

झूठ हो या सत्य हरदम
द्वंद सदियों से रहा है
चोट खाया घाव झेला
वक्त ने क्या-क्या सहा है
मुक्त कर लूँ आज खुद को
शून्य का आकार धर लूँ
या लड़ूँ अब स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

एक धुँधली रेख देखी
रात दिन के मध्य हमने
चाँद सूरज सामने थे
औ लगे तब पाँव थकने
थक चली संध्या अकेली
आचमन मन आज कर लूँ
अब लड़ूँ क्या स्वयं से मैं
सत्य अंगीकार कर लूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18दिसंबर, 2022

लम्हों के घाव।

लम्हों के घाव।   

बेशर्मी का खाल ओढ़कर देखो कैसे नाच रहे हैं
जितना है पाया विवेक बस उतना पन्ना बाँच रहे हैं।।

धर्म संस्कृति से दूर-दूर तक है इनका कोई मोह नहीं
पैसों की खातिर नंगेपन से इनको कोई द्रोह नहीं।।

अभिव्यक्ति के नाम पे सारे घर-घर कीचड़ बाँट रहे हैं
अपने हाथों से शुचिता की जड़ को पल-पल काट रहे हैं।।

हैं सारे ये पथभृष्ट यहाँ बस इनका तो है कर्म यही
इनके बहकावे से बचना क्या अपना है ये धर्म नहीं।।

नङ्गेपन की दौड़ में यहाँ है इनसा कोई और नहीं
चाहे जितने अंग खुले हों पैसों के आगे गौर नहीं।।

बेच चुके हैं अपना जमीर सब अब क्या बेचें सोच रहे हैं
जन गण मन के मनो भाव को गिद्धों जैसे नोच रहे हैं।।

आज लुटी जो नैतिकता तो फिर सोचो कैसी आएगी
लम्हों से जो घाव मिल रहे आगे सदियाँ पचताएँगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16दिसंबर, 2022

गीतों का मधुपान करा दो।

*4-गीतों का मधुपान करा दो।*  

आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो
बिखर न जायें भाव हृदय के
मुझको इतना ज्ञान करा दो
बिसरे भावों को आहों को
सांसों को संज्ञान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण हैं मेरे
गीतों का मधुपान करा दो।।

चलता पथ पर रहा निरंतर
पग पग उलझा उलझा जीवन
ऋतुओं के मृदु अनुमानों में
बहका बहका था ये उपवन
बरसो बनकर आज घटा तुम
मृदुल नेह का ध्यान करा दो
आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो।।


निर्जल अधरों पर मेरे ये
जाने कैसी प्यास जगी है
मेघ बरसते भीगे सावन
फिर भी कैसी आग लगी है
अंतस के इस सूनेपन में
अपनेपन का मान करा दो
आज सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो।।

लगता जैसे दूर हो रहे
सपने पलकों से बोझल हो
दूर हो रही परछाईं भी
साँझ ढले पथ में ओझल हो
मन में जो भी आशंकायें
उनको नया विहान दिखा दो
प्यासे अब तक कर्ण हैं मेरे
गीतों का मधुपान करा दो।।

✍️अजय कुमार पाण्डेय
****************

दिल में अभी मेरा बसेरा है।

दिल में अभी मेरा बसेरा है।  

चाँदनी रात थी लेकिन कहीं मन में अँधेरा था
थी जाने बात वो कैसी न जाने कैसा घेरा था

न जाने कैसी रंजिश थी मेरी दिन के उजालों से
थी भीतर रात वो गहरी मगर बाहर सवेरा था

थामा हाथ गैरों का जिन्होंने आज महफ़िल में
नहीं थकते थे वो कहते तेरा हर दर्द मेरा है

हुआ अनजान उनसे भी नहीं अब आस है कोई
नहीं थकते थे जो कहते मिरा दिल में बसेरा है

लिखता हूँ किताबों में मैं बस तेरी कहानी को
यकीं मुझको तिरे दिल में अभी मेरा बसेरा है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13दिसंबर, 2022

मुक्तक

मुक्तक-
कभी ये गीत मेरे गाये जाएंगे।।

लिखे जो गीत जीवन के कभी तो मुस्कुरायेंगे
करेंगे याद हर लम्हे इसे सब गुनगुनायेंगे।
गाता हूँ अकेले मैं अभी दुनिया के मेले में 
मेरे गीत महफ़िल में कभी तो गाये जाएंगे।।


कौन है सुनता यहाँ।

कौन है सुनता यहाँ।  

शोर गलियों में बहुत दिखता यहाँ
कौन किसको अब है सुनता यहाँ।।

यूँ तो घनी आबादियों में रहते सभी
बमुश्किल से इंसान अब दिखता यहाँ।।

है बहुत मुश्किल कहना बात दिल की
कौन किसकी बात अब सहता यहाँ।।

था वो कोई दौर सहते थे सभी हर बात को
अब पिता की बात भी कौन है सहता यहाँ।।

यूँ मिलेंगे घाव देने को यहाँ हर मोड़ पर
पास मलहम कौन अब रखता यहाँ।।

टूटते हैं घर अब हर गली हर मोड़ पे
हुनर जोड़ने का कौन अब रखता यहाँ।।

राजनीति बन गयी है खेल अब तो
अब मान इसका कौन है रखता यहाँ।।

झूठ ने वादों से जब से की सगाई
सत्य का व्यवहार कब सहता यहाँ।।

है मिलावट का जमाना "देव" अब तो
हो शुद्ध जब आहार कब पचता यहाँ।।

जब नग्नता हावी हुई परिधान पर
फिर कौन पर्दा आँख में रखता यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13दिसंबर, 2022

सीख जाते हैं।

सीख जाते हैं।   

बेवजह जो मुस्कुराना सीख जाते हैं
दर्द दिल का वो छिपाना सीख जाते हैं।।

भले ही दर्द कितना भी मिला हो इन हवाओं में
चले जो साथ में इनके निभाना सीख जाते हैं।।

जलाया हाथ जिसने भी अँधेरों में चिरागों से
हर तूफान में दीपक जलाना सीख जाते हैं।।

नहीं मिलता जिन्हें कोई सहारा इस जमाने में
जमाने से वो खुद रिश्ता निभाना सीख जाते हैं।।

नहीं तालीम मिलती है छिपाने की इन जख्मों को
समय के संग-संग चलकर खुद छिपाना सीख जाते हैं।।

झुकेगा क्या किसी इंसान के सजदे में वो माथा
गली हर मोड़ पर जो सर झुकाना सीख जाते हैं।।

थाना है कलम जिसने भी लिखने मन के भावों को
सभी के मन को अपना बनाना सीख जाते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12दिसंबर 2022

मुक्तक-मौन को इक अर्थ।

मुक्तक-मौन को इक अर्थ।  

ढूँढता प्रतिरोज मन ये एक सुंदर सी कहानी
चाहता जिसमें हृदय फिर डूब जाए बन कहानी।
और भर दे बादलों में नेह की धारा सुनहरी
उम्र भर न सूख पाए जिसकी धाराओं का पानी।।

याद में छाए जो पल ऐसा कुछ अहसास भर दो
मौन भी चुप रह सके न ऐसा नव उल्लास भर दो।
ढूँढती कब तक रहें बदलियाँ ये राहें प्रेम की
हैं आज राहें मुखर फिर अंक में मधुमास भर दो।।

कौन जाने इस सफर का कौन सा पल चल रहा है
कौन जाने भाव कैसा वक्त के मन पल रहा है
वक्त की चुप्पी यहाँ तूफान है कितने समेटे
भोर में निखरा दिवाकर सांध्य पल में ढल रहा है।।

अब और कब तक ढोएंगे ये पाँव जर्जर गात को
ढोएंगी कब तक ये साँसें उस पुरानी बात को
रोज काँधे पर उठाये स्वप्न की गठरी अधूरी
ढोएंगी कब तक ये पलकें उस अधूरी रात को।।

वक्त की पाबंद लहरें  दूर कहाँ तक जायेंगी
ज्वार के अंतिम क्षणों में लौट सतह पर आयेंगी
थक गयी जो पंक्तियाँ इस गीत के अंतिम सफर में
मौन को इक अर्थ देकर वो स्वयं ही छुप जायेंगी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11दिसंबर, 2022

दूषित अनुबंध।

दूषित अनुबंध।

देव बनाकर पूज पूज कर
मन ने जिसका सम्मान किया
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

जिनके पथ पर पुष्प बिछाए
हमने अपनी पलकों के
हमने जिनके पंथ सजाये
जीवन के हर हलकों में।।

गंतव्यों की राह मिली तो
कैसे सब संबन्ध हो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

संवादों का लिया सहारा
अभिव्यक्ति का मान किया
मुख से निकले हर शब्दों का
प्रतिपल है सम्मान किया।।

मेरी पीड़ा जब गायी तो
कैसे सब प्रतिबंध हो गए
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

संबंधों में अर्थ बढ़ा तो
अर्थहीन संबन्ध हो गये
कल्पित चक्रव्यूह में सारे
जीवन के आंनद खो गये।।

घट-घट टूट रहा यूँ जीवन
भावों में अब द्वंद हो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

गीत पिरोया जोड़-जोड़ कर
शब्द-शब्द की मोती से
साज भरे जीवन में सारे
भावों की मृदु मोती से।।

लेकिन अधरों पर जाते ही
बिखरे सारे छंद खो गये
उसकी चौखट पर जाने क्यूँ
दूषित सब अनुबंध हो गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11दिसंबर, 2022

कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

आज फिर व्याकुल नयन ये लिख रहे कोई कहानी
दूर सूनी राह में हैं ढूँढते कोई निशानी
जो लिखा था पृष्ठ पहले आज खाली हो चुका है
पंक्तियों के मध्य जीवन कुछ चला है कुछ रुका है
द्वंद अंतस में अभी तक कौन हारा कौन जीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

ये शोर है कैसा सफर में जो हृदय की बींधता है
शून्यता का भाव पल-पल इस हृदय को खींचता है
आज मन को खींचता है कौन जाने गीत कैसा
रिक्तियों में भर रहा है आज ये संगीत कैसा
है बहुत मुश्किल कहूँ अब दर्द हँसकर मन क्यूँ पीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

मन न जाने गीत गाकर क्यूँ यहाँ दोषी बना है
दो कदम भी चल न पाये वेदना से पथ सना है
गीत नयनों ने लिखे जो बह रहे बन अश्रुधारा
पूछते हैं ये अधर अब कौन जाने है हमारा
शब्द से ही चोट खाये शब्द ही पैबंद सीता
कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09दिसंबर, 2022

व्यंग्य-असली सरकार।

व्यंग्य- असली सरकार।  

प्यार बुढ़ापे में होता है जवानी में व्यापार
दोनों में मिलता है धोखा जाने क्यूँ हर बार
दोनों के आड़े आती है महँगाई की मार
इन सब को वोटों में ढाले कहते हैं सरकार।।

चिट्ठी, पत्री तार सभी अब मोबाइल से हारे हैं
ऐसा कह दो कौन यहाँ जो इनसे भी न हारे हैं
रोज नीति नई है बनती परिवारों के बीच यहाँ
सुबह उठाई कसम यहाँ वो साँझ ढले बेचारे हैं।।

जो पत्नी की बात न माने ऐसा कोई वीर नहीं
सुनकर के जो मुँह न खोले उससे बढ़कर धीर नहीं
मिलने को तो मिल जाती हैं राहें हर मुश्किल की
पर गलती वो स्वीकार करें सबकी ये तकदीर नहीं।।

बिन माँगे जो मिले यहाँ बीवी की फटकार है
जिसको डांट मिली नहीं जीवन वो धिक्कार है
दोनों में सामंजस्य रखे ऐसे कितने लोग यहाँ
झूठे वादों से बहलाये सच वो ही सरकार है।।

देश दुनिया की खबर बताए वो ही तो अखबार है
चाय पिला कर काम निकाले मित्रों का व्यवहार है
सुबह करे वादा जनता से और निभाने की कसमें
साँझ ढले सब भूल गयी जो असली वो सरकार है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07दिसंबर, 2022

द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

तारों की बारात सजी है रात सजी है दुल्हन जैसी
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दिनकर धीरे-धीरे थककर अस्तांचल में छुपा जा रहा
दिनभर में जो लिखी कहानी संझा को सब दिए जा रहा
दिए जा रहा गीत जो लिखे सांध्य पलों में अनुरागों के
और मुखर अधरों के कितने उम्मीदों के संवादों के
अनुरागों की नीति नई अब अहसासों के पार खड़ी है
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

चाँद बना है दूल्हा देखो गयी अमावस काली रातें
छिटक-छिटक कर रश्मि कर रही शबनम से मधुमासी बातें
बीते दिन के ताप हुए अब भूली बिसरी एक कहानी
हुए प्रवासी दर्द सभी अब बात हुई सब आनी-जानी
अंतस में नूतन लहरें अब अहसासों के साथ खड़ी हैं
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दूर हुई घड़ियाँ बिछोह की संध्या ने अनुराग जताया
रात-दिवस के मध्य अधूरी साँसों को फिर आज मिलाया
लौट रहे पाँखी कलरव कर मधुर मिलन का गीत सुनाते
शीतल पवन झँकोरे छूकर साँसों को सिहरन दे जाते
मीठी-मीठी सिहरन लेकर संध्या चौखट पार खड़ी है
द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06दिसंबर, 2022

दो प्रेम पाँखी।

दो प्रेम पाँखी।  

संग जीवन के सफर में चल रहे दो प्रेम पाँखी
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

दूर सागर की तरंगें झूमती हैं गीत गातीं
चूमती तटबंध अल्हण दूर जातीं पास आतीं
हैं रच दिए नवगीत कितने प्रेम के अनुराग के
और ऋतुओं को सिखाये मन साज नूतन राग के
नेह से सींचे धरा चाहे पंथ केवल ताप हो
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

थी दूर छिटकी रश्मियाँ जो आज पल-पल पास आतीं
शून्य मन में बंधनों के नेह के अनुप्रास लातीं
मन रहा भटका कभी जो जाने किन-किन रास्तों में
और सहता था कभी जो स्वयं की ही आदतों को
संग तेरे आदतों की फिर आज खुलकर बात हो
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

लिख दिया नवगीत पल-पल भर दिया मन प्राण तुमने
मौन था पथ हैं सजाये पुष्प तोरण द्वार तुमने
तुमसे सजे श्रृंगार मन के औ सजी है अल्पना
पूर्ण लम्हों में हुई हैं सब इस सदी की कल्पना
चल पड़े बेफिक्र पथ में ले हाथ तेरा हाथ में
क्यूँ फिक्र मन कोई करे अब दिन ढले या रात हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05दिसंबर, 2022


राष्ट्र प्रथम।

राष्ट्र प्रथम।  

जाति धर्म के नारों में मानवता को बाँट रहे
ऐसा कर के भारत में भारत को ही बाँट रहे।।

बलिदानों ने लिखी कहानी माटी-माटी जीवन जिसका
उसी वृक्ष पर बैठे-बैठे शाख उसी की काट रहे।।

राष्ट्र प्रथम औ राष्ट्र नीति ही जिस भारत का मौलिक है
उस भारत की जड़ में बैठे दीमक बनकर चाट रहे।।

संविधान है मूल राष्ट्र का भारत ऐसी महाशक्ति है
जिसने जग को ज्ञान दिया है उसी ज्ञान को काट रहे।।

आधा ज्ञान डुबा देता है क्या इतना मालूम नहीं
भारत माता को आँचल को टुकड़ों में क्यूँ बाँट रहे।।

शिक्षा का स्थान पवित्र है गुरुकुल ज्ञान ध्यान की भूमि
इसके नैतिक व्यवहारों शुचिता की जड़ काट रहे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04दिसंबर, 2022

तुम ना आये।

तुम ना आये।  

नयन द्वार को तकते-तकते
देहरी के तोरण मुरझाये
पुष्प प्रतीक्षारत भावों के
साँझ ढले सारे कुम्हलाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

दूर सितारे कहीं गगन से
चंदा का पथ खोज रहे हैं
रात अकेली चले सफर में
कब तक मन में सोच रहे हैं
नील गगन में उड़ते-उड़ते
बादल रस्ता भूल न जाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

रात दीप की बाती जलकर
कैसे-कैसे भाव जगाए
गूंगे दिन काली रातों के
जाने कितने प्रश्न उठाये
कितने प्रश्न गिरे पलकों से
सूख गए कुछ कह ना पाए
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

भटक रही हैं यादें मन की
डर है रस्ता भूल न जायें
भूल गए सब रिश्ते-नाते
हाथों से पल छूट न जायें
बीती यादों के सपनों में
पल-पल मन ये उलझा जाये
चली क्षितिज की ओर साँझ अब
रात हुई पर तुम ना आये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03दिसंबर, 2022

पग-पग ढूँढे राह गाँव की।

पग-पग ढूँढे राह गाँव की।   

हुई प्रवासी जहाँ संस्कृति
मन में उपजी आस छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

विद्यालय से निकला बचपन
सात समंदर पार मन चला
तोड़ नेह के कितने धागे
आसमान के पार मन चला
विचलित मन जब अनुमानों में
जिस पल चाहे आस छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

देख समय के चक्र यहाँ पर
वेद पुराण ग्रन्थ सब फीका
जाने कैसे हवा चली है
छूटा रोली चंदन टीका
चकाचौंध में भटक गया मन
जैसे बिन पतवार नाव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

नहीं आसरा मन को भाये
पंथ जोहते बापू माई
बूढ़ी आँखे पथराईं हैं
कोई चिट्ठी न पत्री आई
बेगानों के बीच पठाये
आयी मन को याद छाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

जीवन के उस अंतिम क्षण में
पैसों का सन्देशा आया
कोशिश करता हूँ आने का
मौखिक इक सन्देशा पाया
आगे बढ़ने की धुन सारी
लगती है जंजीर पाँव की
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

दाम कमाया नाम कमाया
पैसों का अंबार लगाया
समय जुआरी बन बैठा जब
दाँव कहीं तब काम न आया
पीछे मुड़ कर मन जब देखा
न आँचल, और नहीं छाँव थी
मन की कितनी शंकाएं तब
पग-पग ढूँढे राह गाँव की।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 दिसंबर, 2022

गोली विज्ञापन की।

गोली विज्ञापन की।  

आज घरों में चौराहों पे 
कानों में बस बोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

कदम कदम पर कितने वादे
कितनी रस्में कितनी कसमें
सच्चे कहते झूठे कहते
भरमाया मन रहता जिसमें
भाँति-भाँति के करतब करते
मन को पल-पल मोह रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

क्या अच्छा है क्या अनुचित है
इसका ज्ञान भुला देते हैं
रहे जरूरत भले नहीं पर
मन में चाह जगा देते हैं
मोड़-माड़ कर जोड़-तोड़ कर
दबी आस को तोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

काले को ये गोरा करते
अरु गौर वर्ण को और गोरा
भावों पर आलेपन करते
झूठ अधिक सच थोड़ा
थोड़े झूठे थोड़े सच्चे
जाने क्या-क्या बोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

ज्ञानी के सब ज्ञान शून्य हैं
थे भावुक पर भाव शून्य हैं
इनके तर्कों के आगे सब
अनुभव औ व्यवहार शून्य हैं
मन को अपने वश में करते
कितने पत्ते खोल रहे हैं
कैसी गोली विज्ञापन की
जीवन में ये घोल रहे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01दिसंबर, 2022

विचलित हैं ये गीत हमारे।।

विचलित हैं ये गीत हमारे।।

शून्य हुआ सब बचा कहो क्या
बाँट दिये तट पनघट सारे
जाने कैसी है ये विचलन 
चुभे पुष्प या काँटे सारे
मन में है प्रति पल ये उलझन
कंटक पथ है कौन बुहारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

इतिहासों की अनुश्रुतियों से
कुछ अनुस्यूत अनुकृतियों से
मन ने थोड़े भाव सजाये
अथक परिष्कृत अभिकृतियों से
जाने कैसी थी वो अनबन
हाथ नहीं कुछ आज हमारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

जाने कैसा सरोकार है
विस्मृत क्यूँ सभी संस्कार है
गूँज रहे जिन गीतों के स्वर
स्वरों में क्यूँ हाहाकार है
सरोकार में ऐसी ठनगन
मन क्या जीते मन क्या हारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

जाने मन क्यूँ नहीं जागता
मन अब मन को नहीं बाँधता
बंद पड़े गीता रामायण
चौपालों में नहीं बाँचता
सूना है अब मन का आँगन
चौबारों से कौन पुकारे
विचलित हैं ये गीत हमारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29नवंबर, 2022

अनुश्रुतियाँ- प्राप्त कथा या ज्ञान
अनुस्यूत-ग्रथित, पिरोया हुआ
अनुकृतियाँ- नकल
अभिकृति- एक प्रकार का छंद जिसमें 100 वर्ण या मात्राएं होती हैं।

मेरे मन की प्राण वायु।

मेरे मन की प्राण वायु।

जग कहता है इन गीतों में हमने भावों को रच डाला
सच तो ये है पंक्ति गीत की मेरे मन की प्राण वायु है।।

मन के नूतन आयामों की
आकाशों के पार परिधि है
मुग्ध मनोरम नंदनवन तक
इन नयनों की पुष्पित निधि है
मन के पार कहीं जाकर के
तनिक शून्य से भाव चुराकर
पृष्ठों पर उनको लिख डाला
सच तो ये है भाव पंक्ति के मेरे मन की प्राण वायु है।।

नहीं चाह जग से कुछ पाऊँ
नहीं चाहता मेरी जय हो
अपने मन की चाह यही है
पंक्ति-पंक्ति बस जीवन मय हो
जीवन के कुछ पुण्य पलों से
साँसों का अहसास चुराकर
हमने गीतों में रच डाला
सच तो ये है पंक्ति गीत के मेरे मन की प्राण वायु हैं।।

सुनता हूँ कितनों ने अपने
गीतों से सम्मोहन बाँधा
कितने मन के पार उतरकर
अंतस के भावों को साधा
भावों के उन मौन पलों से
हमने थोड़े मौन चुराकर
उनको बस गीतों में ढाला
सच तो ये है मौन पंक्तियाँ मेरे मन की प्राण वायु हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26नवंबर, 2022

मुक्तक।

मुक्तक

देख पावन रूप तेरा चाँद शरमाये
मुक्त पलकों की अदायें क्यूँ न भरमाये
नित्य पावस कर रही हों जिसका आचमन
क्यूँ न पाकर पास उसको मन ये हर्षाये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2022

मन के भाव पंक्तियों में।

मन के भाव-पंक्तियों में।

गीत लिखने का मुझको सलीका न था
शब्द खुद पंक्तियों में आ रचते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

भाव से हमने पग-पग किया आचमन
आँजुरी में भरी छंदों की पाँखुरी
नयनों में प्रेम का जब हुआ आगमन
अधरों पर आ सजी प्रीत की बाँसुरी।।

नयनों के कोर ने दीप माला चुनी
पंथ के बन वो दीपक चमकते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

माथ पर धूलिकण से यूँ कुमकुम सजे
संध्या की रोशनी में नहा मन गया
नेह के धागों से आज ऐसे बँधे
साँचे में मोह के मन सिमटता गया।।

मन से मन ने जो इक अभिलाषा बुनी
मन के आगोश में मन मचलते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

हो चले रिक्त पलकों की जब सीपियाँ
नयनों ने पास आ कर के चुंबन दिया
धुंध बन छाईं जब याद की बदलियाँ
पाश में बाँध कर मन को चंदन किया।।

मन ने मधुमास की लालसा जो बुनी
मन का अहसास पाकर निखरते गये
हमने बस भाव की एक माला बुनी
पृष्ठ की पंक्तियों में वो सजते गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2022





भुलाना आ गया होता।

भुलाना आ गया होता।  

अगर खामोशियों से दिल लगाना आ गया होता
बेवजहा तुमको भी मुस्कुराना आ गया होता

जो टकराते नहीं जज्बात यहाँ बहती हवाओं से
तो तुम्हें मँझदार में नौका चलाना आ गया होता

 कि आँचल में किसी छुपकर सुबक लेते जरा हम भी
गुनाहों पर सभी परदा गिरना आ गया होता

जरा सी जी-हुजूर सीख लेते हम दिखावे की
उसूलों से यहाँ आँखें चुराना आ गया होता 

लगे दिल पर सभी जख्मों को "देव" मलहम बना लेते
 हुआ जो दर्द दिल को वो भुलाना आ गया होता

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23नवंबर, 2022

धीरे-धीरे।

धीरे-धीरे।

चली है कैसी पवन धीरे-धीरे
लुट रहा चैनो अमन धीरे-धीरे।।

रात का धुँधलका बढ़ा जा रहा है
रोशनी का हो जतन धीरे-धीरे।।

वादों का अब तो भरम जाल तोड़ो
टूटे सभी अब चलन धीरे-धीरे।।

उजड़ी नहीं एक दिन में ये दुनिया
सदियों ने तोड़ा बदन धीरे-धीरे।।

समय एक जैसा कहाँ तक रहा है 
इसने भी बदला वचन धीरे-धीरे।।

महफ़िल में तन्हा नहीं "देव" तुम ही
बनते हैं सारे रतन धीरे-धीरे।।

चलो फिर चलें हम वहीं एक बार
मिलते जहाँ मन से मन धीरे-धीरे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20नवंबर, 2022



क्यूँ इतना आसान नहीं।

क्यूँ इतना आसान नहीं। 

कम कह देना अधिक समझना
क्यूँ इतना आसान नहीं
आवाजों के इस मेले में
चुप की क्यूँ पहचान नहीं
घाव हृदय के भीतर हो जब
ऊपर से कब दिखता है
विष पीकर हँसने वालों के
होते क्या अरमान नहीं।।

दुःख के अनुभव से गुजरा जो
वो सुख का मोल समझता
अनुभव की चक्की में पिस कर
अंतस का रूप निखरता
अनुभव के उस पुण्य पथिक की
राहें अब आसान नहीं
कम कह देना अधिक समझना
क्यूँ इतना आसान नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18नवंबर, 2022

उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

दौड़ती भागती पटरियों की तरह
कुछ कहो जिंदगी कब रुकी है यहाँ
सब बदलते रहे मौसमों की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

एक राहों से कितनी हैं राहें जुड़ीं
कुछ रुकी हैं कहीं कुछ मुड़ी हैं कहीं
कुछ चली झूमती मंजिलों की तरफ
और कुछ मंजिलों से चली हैं कहीं
कुछ, मचलती रही आस पल-पल मगर
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

सपने नयनों में छुप गये खो गये
रात की गोद में जब कहीं सो गये
उम्र ने पलकों के कोर को तब छुआ
पलकों को नेह नूतन पुनः दे गये
पलकें झुकती रही बदलियाँ की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

वो कहे-अनकहे भाव कुछ आज तक
कंठ में ही रहे जो नहीं कह सके
सालती वो रही टीस पल-पल मगर
अधर की पाँखुरी को नहीं छू सके
खो गईं मौन पल में ग्रहण की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

मधुर एक कहानी की शुरुआत हो
पलकों की बूंद में फिर जज्बात हो
फिर चलो घूम आयें, किनारे वहीं
जुगनू की रोशनी में फिर बात हो
ओढ़ें आकाश फिर आँचल की तरह
उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18नवंबर, 2022

बहती हवाओं में।

बहती हवाओं में।  

कहाँ पर है खड़ी दुनिया कहाँ हम आ के ठहरे हैं
क्यूँ लगता है कि अधरों पर बिठाए लाख पहरे हैं
दबी सी टीस उठती है हृदय के एक किनारे से
के खुल कर कह नहीं पाये मिले जो घाव गहरे हैं।।

के वादों में उलझती जिंदगी फरियाद करती है
इरादे नेक हो यदि वीराना आबाद करती है
मगर कथनी और करनी में जहाँ पर फर्क होता है
वहाँ जितनी भी दुनिया है महज बरबाद होती है।।

हमारा देश ये भारत नहीं कोई धर्मशाला है
के दे कर लाख कुर्बानी इसे सदियों ने पाला है
ये सुन लें आज दुश्मन सब लगाए घात बैठे जो
के लम्हों के इरादों ने बदल इतिहास डाला है।।

नहीं है धर्म क्यूँ कोई नहीं कोई निशानी है
दिलों में नेह जो भर दे नहीं ऐसी कहानी है
क्यूँ वोटों के लिए बस खेलते देखा हवाओं को
अंधेरों ने दिलों में क्यूँ बसाई राजधानी है।।

कब ठहरी रोशनी बोलो कहीं गहरी घटाओं से
कब ठहरी धार नदिया की बही उलटी हवाओं से
बनेंगी राहें तब खुद ही इरादे नेक जब होंगे
सजेगी फिर नई दुनिया इन्हीं बहती हवाओं में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17नवंबर, 2022




अदावत।

अदावत।  

है कैसा प्यार ये बोलो कि न आधार है कोई
के कुछ भी कह सके न जब कहो अधिकार क्या कोई
टूटी हैं कई कड़ियाँ क्यूँ इस राह में चलकर
महज जब नेह जिस्मों से कहो आधार क्या कोई।।

नहीं मजहब कहीं इसका नहीं कोई रवायत है
कि इसके रूप से हमको नहीं कोई शिकायत है
मगर जो खेल खेले आड़ में वहशी दरिंदों ने
मुझे उस खेल के अंजाम से गहरी अदावत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16नवंबर, 2022

लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।

लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं। 

ये रात सागर का किनारा और हम तुम घाट पर
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

दूधिया आकाश ओढ़े रात पल-पल ढल रही है
और मीठी सी छुअन दे पौन मद्धम चल रही है
गा रही है गीत ऋतु का सुन रहे हैं चाँद तारे
घुल रही है चाँदनी भी देख अधरों पर हमारे
ओस बूँदें चाँदनी में मोतियों में ढल रही हैं
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

नाचती हैं पंक्तियाँ औ आधरों पर गीत सारे
झूमती हैं बदलियाँ भी झूमते सारे नजारे
कनखियों से रास रचकर रात ने मन को लुभाया
भर दिया अनुराग मन में गीत ने आकाश पाया
नेह की मीठी छुअन से यामिनी भी तर रही है
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

दूर इन पगडंडियों पे देख परियाँ नाचती हैं
गात में मधुमास भरतीं पुष्प से पथ साजती हैं
बीत जाये ना कहीं ये रात की घड़ियाँ सुहानी
और कुम्हलाये कहीं न आधरों की रात रानी
शब्द से श्रृंगार करती पंक्ति आगे बढ़ रही है
देख लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15नवंबर, 2022

अपने अंतस के पट खोलें।।

 अपने अंतस के पट खोलें।।

दूर क्षितिज पर सूर्य ढल रहा आ नैनों में इसे सहेजें
नयनों के पृष्ठों को खोलें यादों को फिर चलो समेटें
पलक भरें यादों के झुरमुट सपनों को फिर चलो टटोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

याद करो उस प्रथम भेंट को जब हम दोनों थे ऋतुणखी
अधरों के दो पुष्प खिले थे नयनों ने सम्मोहन बाँधी
कहें भाव फिर से अंतस के मन के बंद द्वार फिर खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

हों अक्षर-अक्षर मधुर गीत जब मन में तब छाता है सावन 
जहाँ गीत में फागुन आता वहीं गात होता वृंदावन
नेहमुग्ध हो बाँधे मन को अधरों के फिर मधुघट खोलें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

पता नहीं मधुमास ढले कब जाने कब साँसें ढल जायें
जीवन का ये महादिवस भी संध्या में कब जा घुल जाये
हैं भूली बिसरी जो स्मृतियाँ उनसे फिर से नैन भिंगो लें
आओ इक दूजे से मिलकर अपने अंतस के पट खोलें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14नवंबर, 2022

मुक्तक- अधरों पर उपकार बहुत है।

अधरों पर उपकार बहुत है।

जीवन के इस महासमर में पीड़ा का आभार बहुत है
जग से इतना कुछ पाया है अब तो ये अधिकार बहुत है
निज पीड़ा पर गीतों ने जो मलहम बनकर चैन दिया है
गीतों के उस महा पंक्ति का अधरों पर उपकार बहुत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13नवंबर, 2022 

समय संग रीत जाता है।

समय संग रीत जाता है।

न समझो राह का पत्थर मैं वही रस्ता पुराना हूँ
जो तुम हो गीत की दुनिया तो मैं भी इक फसाना हूँ
नहीं कोई अदावत है मुझे तुम्हारे जमाने से
जो तुम हो आज की दुनिया तो मैं गुजरा जमाना हूँ।।

जहाँ तुम आज पहुँचे हो उसे हमने ही बनाया है
हटा कर के राह से काँटे नया रस्ता बनाया है
नहीं थी मखमली राहें चुभे कितने शूल पैरों में
औ कितनी ठोकरें खाईं तब जाकर पथ सजाया है।।

नया क्या सूर्य है देखा औ नया कब चंद्रमा देखा
सुना है क्या कभी तुमने नया कोई आसमां देखा
पुराने हैं सितारे ये औ वही रातें पुरानी है
सिवा धरती के आँचल के कोई क्या आसना देखा।।

नया तब दौर आता है जब पुराना बीत जाता है
है समय का खेल कुछ ऐसा समय ही जीत जाता है
कहाँ ठहरी हैं ये राहें उमर संग बीत जाती हैं
भरो सागर से घट कितना समय संग रीत जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13नवंबर, 2022

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

बावले कुछ गीत मन में चुभ गये
नैन थे बेचैन कुछ-कुछ कह गये
कुछ कपोलों पर गिरे कुछ मौन थे
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन, कितनी व्यथा का भार ढोते
शब्द के घाव का व्यवहार ढोते
हैं कलेजे पर चुभे तीर कितने
कह न पाये, मौन हर बार रोते
दर्द थे जितने सभी चुप सह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अश्रुओं में भींगते मन हारते
देखा है कितने जीवन वारते
जीत के द्वार पे जितने खड़े थे
देखा कितनों को उनमें हारते
हार कर बात दिल जो कह न पाये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

अंक में जो भाव हैं जो है कसक
छोड़ता है मन कहाँ कोई कसर
कंठ में जो शब्द की अब तक तपन
देखा है मन पे सदियों ने असर
कंठ में जो शब्द दब कर रह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

क्या नहीं इस अश्रु ने अब तक किया
मौन रह कर बात कितनी कह दिया
किंतु जाने रेख में क्या था यहाँ
आँसुओं ने दर्द को पल-पल सिया
सी न पाए दर्द जो सब बह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

भाग्य में जिनके व्यथा लिपटी रही
दर्द से उनका सदा नाता रहा
थी अभागे शब्द की कुछ तो व्यथा
आँसुओं में भींगता गाता रहा
शब्द कितने मौन झर-झर बह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन पलकों में कभी आ जब कढ़े
था भला यदि टूट गिर जाते वहीं
जब न कोई दिल पसीजा क्या कहें
टूट कर यूँ ही बिखर जाते कहीं
छूट पलकों से अकेले रह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

बह चले जो शब्द दुखिया आँख से
इस जगत ने बस उसे पानी कहा
फिर जगत की लाज क्यूँ पलकें करें
जब किसी ने भी नहीं आँसू कहा
बूँद माटी में मिले गुम हो गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये। 

क्या कहें क्या बेबसी इनकी रही
साँस से कैसा सदा नाता रहा
जब कपोलों पर लुढ़क कर आ गिरे
नैन से क्यूँ नेह भी जाता रहा
सूख कर के भी हृदय में छप गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

मौन लम्हों ने कई सदियाँ लिखी
मोड़ कितने और क्या गलियाँ लिखीं
उम्र भी जिस मोड़ पर आ थक गई
उस मोड़ पर आखिरी दुनिया लिखी
काँप कर के शब्द जिस पल दह गये
अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10नवंबर, 2022









आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।। 

घाव सारे आज मन के धुल गये
नैन जो कल तक मुँदे थे खुल गये
आज किस करवट हवायें चल रहीं हैं
बंद थे जो द्वार सारे खुल गये
सज गए सुर तार किसने बीन छेड़ी
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

आज लहरों ने मधुर संगीत गाया
दूर सागर से मिलन का पथ सजाया
चल पड़ी, मँझधार नौका कब रुकी है
दूर तारों ने मिलन का गीत गाया
चाँद करे सिंगार किसने बीन छेड़ी 
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

पौन ने छूकर मधुर संगीत गाया
दूर लहरों ने नया फिर सुर सजाया
दो दृगों में स्वप्न फिर नूतन सजे हैं
मौन लम्हों ने नया है राग गाया
मौन हैं उद्गार किसने बीन छेड़ी 
आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08नवंबर, 2022




हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

प्रेम के व्यवहार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने अश्रुधार के गीत हैं लिखे बहुत
क्या मिला नहीं मिला अब कोई गिला नहीं
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

चाहतों की रश्मियाँ ढूँढते रहे सदा
अंधड़ों में बस्तियाँ ढूँढते रहे सदा
भीड़ में रहे कभी या नीड़ में रहे कभी
मौन अपनी हस्तियाँ ढूँढते रहे सदा।।

वक्त के मनुहार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

शीत में रहे जो तो धूप की कशिश रही
धूप में रहे जो तो छाँव की कशिश रही
पूर्णता के भाव क्यूँ मन को छलते रहे
मौन में पुकार की मन को इक़ खलिश रही।।

मौन के आधार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

मन की सभी ख्वाहिशें पूर्ण कब हुई यहाँ
उम्र संग चली और कुछ उम्र में घुलीं यहाँ
कुछ ने रास्ते बुने राह में कुछ खो गए
कुछ को चित्रकार की तूलिका मिली यहाँ।।

चित्रों के आधार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

रात जब हुई कभी भोर ने आवाज दी
शून्य जब हुए कभी मौन ने आवाज दी
कब कहो के रश्मियाँ सिमट कर रही कहीं
रश्मि के श्रृंगार ने जिंदगी को साज दी।।

रश्मि से श्रृंगार के गीत हैं लिखे बहुत
हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05नवंबर, 2022



पास हम आने लगे।

पास हम आने लगे।  

शब्द अधरों पर हमारे गीत बन छाने लगे
बेकसी में जब कभी भी याद तुम आने लगे।।

बात पूरी हो न पायी दूर सबसे हो गए
दूरियाँ वो गीत बनकर होंठ पर आने लगे।।

सिलवटों ने माथ पर हैं लिखी जितनी कहानी
उम्र की दहलीज पर वो मौन समझाने लगे।।

कुछ अधूरे गीत उस दिन राह में भटके कहीं
देख कर तुमको यहाँ पर याद सब आने लगे।।

यूँ था सफर छोटा मगर दूरियाँ ऐसी बढ़ीं
दूरियों को पाटने में उम्र को जमाने लगे।।

जिंदगी की रेल का "देव" यूँ सफर चलता रहा 
दूर हम जबसे हुए हैं पास हम आने लगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03नवंबर, 2022


शर्वरी भी गा रही थी।

शर्वरी भी गा रही थी। 

द्वार पर मधुमास लेकर 
प्रेम का अनुप्रास लेकर
लाज का श्रृंगार ओढ़े
पास पल-पल आ रही थी
शर्वरी भी गा रही थी। 

दो दृगों में नेह लेकर
अंक में मृदु प्रेम भरकर
आस का आकाश ओढ़े
स्वप्न नूतन ला रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

सजल नयन में स्वीकृति थी
नवल नयन नव आकृति थी
झाँझरों के मृदु स्वरों से
साँसें सुर सजा रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

चाँदनी में आज लिपटी
दो पलों में रात सिमटी
ओस की चादर सुनहरी
पौन मद्धम आ रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

आँजुरी संसार सारा
अंक में आकाश तारा
भोर भी जिसके सहारे
आस नूतन ला रही थी
शर्वरी भी गा रही थी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02नवंबर, 2022



कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

साँझ ढले सागर के तट पर तरुवर है एकाकी
आस सिमटती चली जा रही कितना कुछ है बाकी
लहरों से भी शोर अधिक अब अंतस में उठता है
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

कौन किनारा छोड़ सका जो छोड़ चले जाओगे
दूर कहीं भी जाओ सबसे यादों में आओगे
कहीं रागिनी मद्धम-मद्धम जब मन बहलायेगी
बरबस तब तस्वीर हमारी नयनों में पाओगे।।

नयनों के कोरों में अब भी कहीं नमी है बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

टूटे कितने दफा किनारे लहरों से टकराए
कभी दूर से घात लगाया कभी पास तक आये
बिछड़े कितनी बार लहर से कितने दाग उठाये
दूर कहो कब हुए किनारे, पास लहर के आये।।

लहरों की हर घातों में कुछ, कहीं कशिश है बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

छूटा अवसर जो हाथों से मुश्किल फिर आएगा
छूटा मन का साथ कहीं तो जीवन पछतायेगा
बिखरे मन से गीत भला कब कोई गा पाया है
सरगम गीतों से रूठी छंद सँवर कब पाया है।।

सरगम में फिर गीत सजाओ राग अभी भी बाकी
कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01नवंबर, 2022




राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

कितनी घड़ियाँ बीत गईं
 इक दूजे के भाव समझते
कितनी कड़ियाँ छूट गईं
इक दूजे का राग समझते
इक युग बीत गया हमको 
इक दूजे को गीत सुनाते
इक युग बीत गया हमको 
इस ड्योढ़ी तक आते जाते।।

राह भटकने से पहले गीतों का संसार सँभालो
राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

मन के भाव कहे हर कोई 
इतना तो अधिकार सभी का
मन के भाव समझ पायें 
इतना हो सत्कार सभी का
सबकी रेखों ने कब पाया 
दुनिया का अनमोल खजाना
किंतु समय का मर्म समझना 
हाय, न अब तक सबने जाना।।

समय छिटकने से पहले आहों का व्यवहार सँभालो
राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

मोल विजय का क्या बोलो
जीत माथ जब चढ़ कर बोले
हारा पर वो जीत गया
जिसने मन के भाव झिंझोड़े
जीत कभी जो कहा नहीं
हार बात वो कह जाती है
आवाजें जो कही नहीं
मौन हृदय के कह जाती है।।

हार-जीत के निस पल में रिश्तों का आधार सँभालो
राग उतरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर, 2022




पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

बाँध मुझको आज अपने नेह के नव बंधनों में
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

रोक मुझको न सकीं संसार की घातें कोई भी
बाँध मुझको न सकीं अवसाद की रातें कोई भी
माना मेरे पथ में केवल कंटकों के जाल थे
जंजीर थी इक पाँव में औ अंक में जंजाल थे
दूर आया हूँ सभी से लौट अब जाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

धूल के कुछ कण उड़े जो शीश पर मेरे गिरे थे
सिलवटें कभी मिट सकी न भाल पर ऐसे सटे थे
किंतु मेरी भावनाओं ने मुझे बाँधा यहाँ पर
थे भरे जब नैन मेरे दोष था आधा वहाँ पर
बहुत बिखर का दर्द पाया और अब पाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

मुक्त हूँ सब बंधनों से मुक्त आहों के सफर से
मुक्त हैं अब सब किनारे मुक्त सागर की लहर से
आज मन की रागिनी निर्बाध निर्झर बह रही है
संग पा कर के मधुर सब भाव मन के कह रही है
कह रही है चाह मन की और अब पाना नहीं है
पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27अक्टूबर, 2022

दिन ने माना दिया बहुत कुछ कम रातों ने भी दिया नहीं।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ
कम रातों ने भी दिया नहीं।।

नभ के सारे पंछी थककर
तरुवर को अपने लौट रहे
सागर में बलखाती नौका
फिर तटबंधों को ओर चले
पश्चिम की गोदी में जाकर
थक कर किरणें कहीं छुप रहीं
दबे पाँव संध्या भी आकर
रातों को आवाज दे रहीं
कितना कुछ दिन ने ढोया है
उफ्फ तक लेकिन किया नहीं।।

दिन के कितने काम अधूरे
चाहे लेकिन कर ना पाये
अधरों तक कितनी ही बातें
आईं लेकिन कह ना पाये
पलकों ने था किया इशारा
औ साँसों ने स्वीकार किया
पर कुछ बातें रहीं अधूरी
आ रातों ने सत्कार किया
मन से मन की डोरी बाँधी
नव सपनों को पर दिया यहीं।।

रवि का रजनी से आलिंगन
संध्या साक्षी स्नेह मिलन का
उपवन का हर कोना महका
ऐसे बहका झोंक पवन का
आज प्रतीक्षा में यादों ने
फिर से मन का दीप जलाया
आलिंगन में पिय को पाकर
पपिहे ने मधुमास जगाया
दिन का चाहे ताप गहन था
रातों ने उफ्फ किया नहीं।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ
कम रातों ने भी दिया नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26अक्टूबर, 2022

देख खुशियाँ आ रही हैं।

देख खुशियाँ आ रही हैं।  

दीप की जगमग लताओं ने कुहासों को मिटाया
रात की गुमनामियों से देख पर्दा है उठाया
आज खुशियाँ स्वयं चल कर द्वार देखो आ रही है
और चादर जो तिमिर की दूर देखो जा रही है
दीप आशा के जगे हैं जिंदगी भी गा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

रोशनी से जगमगाया औ गेह वंदनवार से
झूम कर दिल मिल रहे हैं इस दीप के त्यौहार में
आज आशा की किरण भी देख नर्तन कर रही है
और ये बहती हवायें आस नूतन भर रही हैं
दीप की लड़ियों में सजकर रात मुस्कुरा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

आज हम भूलें दिवस के ताप थे जो भी हठीले
आज मिलकर गुनगुनाएं राग जीवन के सुरीले
अवसादों के अंधेरे अब आज सारे त्याग दो
वीथियों पे नेह लिख दो औ गात को नव साज दो
गात का श्रृंगार करने की घड़ी अब आ रही है
देख खुशियाँ आ रही है।।

भाव को चंदन करें हम थाल पूजा के सजाएँ
आंजुरी में आस भरकर नेह से हम पथ सजाएँ
जब मिलेंगे दिल सभी के गीत अधर ये गाएंगे
प्रेम को आशय मिलेगा देव धरा पर आएंगे
रात का श्रृंगार करने दीपमाला छा रही है
देख खुशियाँ आ रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अक्टूबर, 2022

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

सत्य हो या कल्पना हो या फिर कोई अभ्यर्थना हो
स्वप्न हो माधुर्य कोई भावों की अभिव्यंजना हो
व्यर्थ आशाएं सभी कहो मन से क्यूँ कर रार ठानूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

आज रोना व्यर्थ होगा आँसुओं का कुछ न अर्थ होगा
जब बूँद माटी में मिलेगी चाँदनी पल-पल जलेगी
जब चाँदनी अपनी नहीं फिर क्यूँ कहो श्रृंगार साजूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

आएगा मधुमास फिर से, फिर से पपीहे गायेंगे
चाहे तुम जितना पुकारो पर हम नहीं फिर आएंगे
गीत ही जब ना रहेंगे कैसे कहो नव राग साजूं
जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21अक्टूबर, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...